rashtrya ujala

Tuesday, May 12, 2009

प्रधानमंत्री के लिए दौड़

लोकसभा चुनाव का अंतिम मुकाम प्रधानमंत्री का चुनाव है इसलिए ज्यों-ज्यों निर्वाचन का निर्णायक दौर समाप्त हो रहा है, सभी दलों और गुटों ने अपने-अपने दाँव लगाना शुरू कर दिए हैं। प्रथमतः तो यूपीए सरकार के पाँच वर्षों तक काम करने वाले डॉ. मनमोहनसिंह हैं, जिन दलों के साथ पाँच वर्षों तक अपनी सफल सरकार चलाने का दावा कर रहे हैं उन दलों को साथ रखकर चुनाव मैदान में नहीं उतर सके। इसमें उनकी नाकामयाबी भी है और चालाकी भी। चालाकी इस मायने में कि यूपीए सरकार की उपलब्धियों को अपने दल कांग्रेस के पक्ष में अकेले भुनाना चाहते थे। चुनाव प्रचार के दौरान ऐसा ही दिखाई भी पड़ा। दूसरे उनके सहयोगियों की चुनाव में सीटें कम भी हो सकती थीं इसलिए नए सहयोगियों की तलाश की जा सके। उत्तरप्रदेश और बिहार में अपने विश्वस्त सहयोगियों को केवल इसलिए छोड़ दिया कि नीतीश कुमार और मायावती के लिए दरवाजे बंद न हो जाएँ। यदि सपा ने परमाणु समझौते के समय साथ न दिया होता तो शायद यह चुनाव एक साल पहले हो जाता। सहयोगियों को गच्चा देना कांग्रेस की पुरानी नीति है। उनके रणनीतिकारों ने चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में अपने नेतृत्व को समझाने में सफलता प्राप्त कर ली कि कल्याणसिंह फैक्टर और नीतीश के अच्छे कार्यों के चलते मुलायम-लालू इस बार कमजोर किए जा सकते हैं और ऐसी हालत में कांग्रेस के बीस वर्षों से दूर हटे मतदाताओं को वापस कांग्रेस के खेमे में लाया जा सकता है, साथ ही इनसे अधिक सीटें पाने वाले दलों को यूपीए में समेटने में आसानी हो सकती है।
इस रणनीति के अंतर्गत देश के इन दोनों बड़े राज्यों में कांग्रेस ने अपनी जीत के लिए उम्मीदवार खड़े किए और ऐसे जो सपा-राजद गठबंधन को अधिकतम नुकसान पहुँचा सकें। बहुत हद तक कांग्रेस अपनी इस रणनीति में सफल भी नजर आई, किंतु कांग्रेस तो चौधरी चरणसिंह और कर्पूरी ठाकुर के जमाने से इन दो राज्यों से किसान राजनीति को समाप्त करने में लगी रही इसलिए उसे निराशा ही हाथ लगी। इन दोनों राज्यों का पचास वर्षों का इतिहास है कि किसान राजनीति एक बार कमजोर होती है, फिर मजबूती से उठ खड़ी होती है। ऐसे में केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस अपनी रणनीति में सफल होगी, कुछ कहना कठिन है।
निर्णायक जीत के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं होने के कारण ही शायद कांग्रेस डॉ। मनमोहनसिंह को पूरी दमदारी के साथ अपने नेता के रूप में उभार भी नहीं पा रही है। मौजूदा प्रधानमंत्री की दो बुनियादी कमजोरियाँ हैं। प्रधानमंत्री नरसिंहराव, प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल में भी ये कमियाँ थीं, जो लोकतंत्र के सर्वोच्च आसन पर विराजते समय लोकसभा के सदस्य नहीं थे। बाद में सभी लोकसभा में चुनकर आए। ये देश के अकेले प्रधानमंत्री हैं जो अपने लिए एक लोकसभा की सुरक्षित सीट नहीं ढूँढ पाए। प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार लालकृष्ण आडवाणी हैं। कम से कम एनडीए में इतनी राजनीतिक ईमानदारी तो है कि एक वर्ष पहले ही अपने प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री का ऐलान कर दिया। इस मोर्चे का पूरा प्रचार आडवाणी के इर्द-गिर्द घूमता रहा। उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार घटकों में से केवल बीजू जनता दल ने अपना समर्थन वापस ले लिया।
चुनाव अभियान के मध्य में बीजद के इस फैसले को उड़ीसा की जनता पूरी तरह पचा नहीं पाई। इसीलिए मेरा अनुमान है कि उड़ीसा में बीजद के इस कदम से कांग्रेस लाभान्वित हो सकती है। उत्तर भारत में पहली बार मुस्लिम राजनीति ने अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश की। यह पहली बार नहीं है, इसके पहले भी अनेक मुस्लिम संगठन चुनावी राजनीति में कूदे किंतु भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह ने बहुसंख्यक समाज के साथ गठबंधन करके ही अपने मताधिकार का प्रयोग किया जिससे इस देश के संकीर्ण सांप्रदायिक शक्तियों के हाथ निराशा लगती थी।
इस बार की स्थिति असम, बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश में भिन्न हो गई। चुनाव पूर्व के सभी आकलन को धता बताते हुए इन राज्यों में जहाँ से भाजपा का तंबू उखड़ गया था, उन्हीं इलाकों में 25 से 30 सीटों का इजाफा होने वाला है। एनडीए को यूपीए की बराबरी में लाने के लिए इस नुकसान की भरपाई कहीं से नहीं होनी है और उसके बाद कांग्रेस को भी पछतावा होगा कि अपने विश्वसनीय सहयोगियों को छोड़ देने का कितना नुकसान होता है। आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने के लिए अब केवल जयललिता, चन्द्रबाबू नायडू और मायावती को फिर से अपने खेमे में फँसाना होगा।
वामपंथी दल राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। परिस्थिति ऐसी बन रही है कि या तो वे कांग्रेस के प्रति अपने कड़वाहटभरे रुख में नरमी लाएँ अन्यथा एनडीए को राजसत्ता सौंपें। वामपंथी, सपा, राजद ऐसे दल हैं जो घाटा झेल सकते हैं लेकिन एनडीए के खेमे में नहीं जा सकते। आखिर चार वर्ष तक यूपीए ने सपा को केवल अपमानित ही किया लेकिन संकटकाल में वही साथी नजर आए। इसलिए वामपंथी एनडीए विरोधी किंतु कांग्रेस के घरौंदे से बाहर दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षा को जगाकर एनडीए को लाभान्वित कराने का कोई पासा न फेंकें। ये सभी जानते हैं कि शरद पवार, मुलायमसिंह व लालूप्रसाद यादव क्यों नहीं प्रधानमंत्री बनना चाहेंगे। इन लोगों की शक्ति को कमजोर करने के लिए सभी तरफ से हमले होते हैं। करात, पवार, मुलायमसिंह, लालू यादव सभी सक्षम प्रधानमंत्री हो सकते हैं। किसी से भी अधिक निर्णायक करात को छोड़ शेष सभी का मंत्री रूप में सक्षम अधिकार रहा है। राजनीतिक अनुभव की भी कोई कमी नहीं है लेकिन पुराना अनुभव बताता है कि परिस्थिति के दबाव में बड़े दल छोटे दल के किसी सक्षम व्यक्ति को प्रधानमंत्री के लिए स्वीकार तो कर लेते हैं, फिर कुछ ही महीनों में सरकार अस्थिर कर देश को चुनाव के झमेले में धकेल देते हैं। लोकतंत्र में संख्या बल का महत्व है। सौ सदस्यों की संख्या से कम वाले दलों के नेता के नेतृत्व में बनने वाला कोई गठबंधन टिकाऊ नहीं होगा। अन्यथा उस प्रधानमंत्री को चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल का-सा दंश झेलना पड़ेगा। हालाँकि देवेगौड़ा, गुजराल, चन्द्रशेखर की सरकारों को किसी भी तरह खराब सरकार नहीं कहा जा सकता इसके बावजूद वे गिरीं। वीपी सिंह सरकार को समर्थन दे रही भाजपा ने भी जल्द ही हाथ खींच लिया था। हालाँकि वह संघर्ष जनआंदोलन के गर्भ से पैदा हुई थी। इसलिए सभी गैर एनडीए दलों को आपसी सहमति से चुनाव का अंतिम दौर पूरा होने के साथ ही अपने नेता का चयन कर लेना चाहिए और यदि टिकाऊ सरकार देनी हो तो नेता घटकों में से सबसे बड़े दल को चुनना चाहिए।

बेहद गरीबी में होंगे एक तिहाई भारतीय!

नई दिल्ली । वर्ल्ड बैंक ने भारत में गरीबी के बारे जो आंकड़े पेश किए हैं, वे आंखें खोलने वाले हैं। विश्व संस्था के आकलन के अनुसार, गरीबीरेखा से नीचे रहने वाली आबादी के प्रतिशत के लिहाज से भारत की स्थिति केवल अफ्रीका के सब-सहारा देशों से ही बेहतर है। बैंक की ग्लोबल इकनॉमिक प्रॉस्पेक्टस फॉर 2009 शीर्षक से जारी रिपोर्ट भारत के 'शाइनिंग इंडिया' के पीछे की हकीकत दिखाती है :
* बैंक ने अनुमान जताया है कि 2015 तक भारत की एक तिहाई आबादी बेहद गरीबी (1.25 डॉलर, यानी करीब 60 रुपये प्रति दिन से कम आय) में अपना गुजारा कर रही होगी। इसमें चीन के लिए यह आंकड़ा 6.1 प्रतिशत और सब-सहारा अफ्रीकी क्षेत्र के लिए 37.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है। गणना 2005 में डॉलर की क्रय शक्ति के आधार पर की गई है।
* 1990 में गरीबी के मामले में भारत की स्थिति चीन से बेहतर थी। उस वक्त चीन में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली जनसंख्या 60.2 प्रतिशत और भारत में 51.3 प्रतिशत थी। लेकिन 15 साल बाद 2005 में चीन में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली जनसंख्या घटकर 15.9 प्रतिशत रह गई और भारत में बढ़कर 41.6 प्रतिशत हो गई।
* भारत में अत्यंत गरीबी में जीवन गुजारने वाले लोगों की तादाद 1990 में 43.6 करोड़ (51.3 फीसदी) और 2005 में 45.6 करोड़ (41.6 फीसदी) थी, जो 2015 में 31.3 करोड़ (25.4 फीसदी) रहने का अनुमान है।