rashtrya ujala

Sunday, December 5, 2010

भूख बेचती सरकार

देश के सबसे बड़े खाद्यान्न घोटोले में उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने मामले की जांच कर रही सीबीआई को छह महीने की मोहलत देते हुए उत्तर प्रदेश को भ्रष्टतम प्रदेश करार दिया। लगभग 30 हजार करोड़ के इस घोटाले से यह बात साफ हो गया है कि पैसे की हवस में शासन-प्रशासन इस कदर अंधा हो चुका है कि उसने गरीबों की पेट का भी सौदा कर दिया। करोड़ों लोगों का निवाला छीनने वाले भ्रष्ट अधिकारी बिना किसी राजनीतिक वरदहस्त के इस घोटाले को अंजाम नहीं दे सकते। माननीय उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पर जो टिप्पणी की है वह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि उत्तर प्रदेश में जो हो रहा है उसे चुपचाप सहन नहीं किया जाना चाहिए। एक तरह से देखा जाए तो देश घोटालों के शिकंजे में फंस चुका है जिसमें उत्तर प्रदेश घपलों की फेहरिस्त में अव्वल बन गया है। वंचित समुदायों की हितैषी कहलाने वाली प्रदेश की मुखिया मायावती के शासन में आज उन्हीं वंचितों को अनाज से वंचित किया जा रहा है लेकिन उन्हें इसकी फिक्र कहां? उन्हें फिक्र होना भी नहीं चाहिए क्र्योंकि बहुजन और शोषित समाज की दंभ भरने वाली मायावती खुद पूरी तरह पंचसितारा संस्कृति में ढल चुकी हैं। दिल्ली में उनकी कोई भी प्रेस वार्ता फाइव स्टार होटल के सिवा नहीं नहीं होता। हालांकि कोर्ट ने सीबीआई को भले ही छह महीने की मोहलत प्रदान की हो,लेकिन सीबीआई की कार्यशैली पर लोगों को भरोसा नहीं रह गया है। जनता के बीच यह बात आम हो चुकी है कि किसी भी मामले को ठंडे बस्ते में डालना हो तो उसे सीबीआई के हवाले कर दो। देखा जाए तो यह तल्ख टिप्पणी काफी हद तक सही भी है। नोएडा में आरुषि हत्याकांड का मामला हो या लखनऊ में अमरमणि त्रिपाठी केस में सीबीआई की लापरवाही पर सवाल खड़े किए जा जुके हैं। कहने को सीबीआई एक स्वतंत्र संस्था है लेकिन सीबीआई में राजनीतिक घुसपैठ ने इसे भी राजनीति की तरह भ्रष्ट बना दिया है। बहरहाल उच्च न्यायालय द्वारा खाद्यान घोटाले में संज्ञान लिए जाने के बाद कहीं न कहीं यह उम्मीद जगी है कि इस मामले पर से पर्दा जल्द उठेगा और घोटाले में शामिल अधिकारी और राजनेता बेनकाब होंगे।

लोकतंत्र या लाठीतंत्र

लखनऊ में अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे प्रदेश के निहत्थे ग्राम सेवकों पर लाठीचार्ज और फायरिंग कर यूपी पुलिस ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह पूरी तरह से निरंकुश है। पुलिस की इस बबर्रता ने अंग्रेजों के जमाने की याद ताजा कर दी जब स्वतंत्रता प्रेमी अपनी मांगों को लेकर पुलिस के जुल्म का शिकार होते थे। इस घटना में कई निर्दोष घायल हुए हैं,जिनमें कई की हालत गंभीर बनी हुई है। यह घटना मानवता को शर्मसार कर देने वाली है। लोकतंत्र में आवाम को यह हक है कि वह अपनी मांगों के लिए आंदोलन करे। लोकतंत्र इस बात की कतई इजाजत नहीं देता कि बेगुनाह जनता की आवाज को जुल्म के जोर पर दबाया जाए। अगर किसी सूरत में ऐसा हो रहा है तो यह समझना चाहिए कि कहीं न कहीं सरकार निरंकुशता की ओर बढ़ रही है। हैरत करने वाली बात है कि यह घटना उस प्रदेश की है जहां की मुख्यमंत्री खुद को दलितों और लाचारों की हमदर्द बताती है। घटना के दिन वह राजधानी में थी लेकिन सरेआम पुलिस वालों का नंगा नाच चल रहा था और मायावती नीरो की तरह बेफिक्र आराम फरमा रही थी। एक पुरानी कहावत है जब शासन निकम्मा हो जाता है तब सरकारी अधिकारी और कर्मचारी निरकुंश हो जाते हैं। यह बातें मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश की हालत को देखकर बिल्कुल समीचीन दिखती है। अराजकता अपने चरम पर पहुंच गया है, आम आदमी के मन में आज अपराधियों से ज्यादा खाकी वर्दी वालों का खौफ है। लखनऊ में बेगुनाह सैंकड़ों ग्राम सेवकों का खून बहाकर यूपी पुलिस अपनी असलियत जगजाहिर कर चुकी है। सवाल यह है कि आखिर प्रदेश पुलिस इस घटना को अंजाम किस बुनियाद पर दिया। सरकार के खिलाफ विरोध जताना स्वतंत्र देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार है। लेकिन इसका जबाव प्रशासन गोलियों से दे ये कहां का इंसाफ है?

Thursday, December 2, 2010

नीरा राडिया और कॉर्पोरेट मीडिया का चरित्र

नीरा राडिया इनदिनों काफी सुर्खियों में है उनकी करतूत पूरे देश के सामने है। व्यापार और राजनीति का घालमेल किस तरह चल रहा है नीरा प्रकरण से बखूबी देखा जा सकता है। ब्रिटेन की मूल निवासी नीरा राडिया करतूतों को किनारे कर जरा उसकी सक्रियता देखिए। पिछले नौ सालों के दौरान वह देश की राजधानी पर इतने करीने से नजरे इनायत करती है कि दो शीर्ष उद्योगपति रतन टाटा और मुकेश अंबानी नीरा के घाट पर एक साथ पानी पीने चले आते हैं। राजनीतिज्ञ, नौकरशाही, मीडिया और उद्योगपतियों के चतुष्कोण को आपस में ऐसा जोड़ देती है कि अबला नारी नीरा एकाएक सबला नजर आने लगती है।
लेकिन नीरा राडिया की वजह से देश में एक ऐसी बहस खड़ी हो गयी है जो पेड न्यूज की सड़ांध में भी पैदा नहीं हो सकी थी। वह बहस है मीडिया पर सभ्य पत्रकारिता के ऐसे कई चेहरे दागदार हो गये जिनके दम पर देश की अंग्रेजी पत्रकारिता भाषायी पत्रकारिता के नाम पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को हेयदृष्टि से देखती थी। नीरा ने इन सबको नंगा कर दिया। नीरा ने अंग्रेजी पत्रकारिता को अपने फायदे के लिए बहुत करीने से इस्तेमाल किया है। नीरा के कारनामों की जो कड़ी खुल रही है उसमें अन्य तथ्यों के अलावा एक तथ्य बहुत खुलकर सामने आ रहा है कि नीरा राडिया ने अंग्रेजी पत्रकार और पत्रकारिता को अपने कारपोरेट फायदे के लिए जमकर इस्तेमाल किया है। एक लिहाज से देखा जाए तो नीरा राडिया ने कुछ भी ऐसा नहीं किया है जिसके लिए उन्हें दोषी ठहराया जा सके। बरखा दत्त, वीर संघवी ने भी ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके लिए उनकी पत्रकारिता पर सवाल खड़े कर दिये जाएं। अगर आप बरखा दत्त और वीर संघवी के नीरा राडिया से हुई बातचीत के टेप सुनेंगे तो उसमें आपत्तिजनक कहने जैसा कुछ नहीं है। दिल्ली में रहनेवाले वही पत्रकार सफल और महत्वपूर्ण माने जाते हैं जो सियासी गलियारों में अपनी पकड़ रखते हैं। यह तो हैसियत की बात है कि कोई पत्रकार इतनी हैसियत रखता है कि वह सत्तातंत्र को प्रभावित कर सकता है। जो लोग वीर संघवी और बरखा दत्त पर सवाल उठा रहे हैं वे खुद अपने गिरेबां में झांककर देखें, उनके ज्यादा नीच कर्म उन्हें दिखाई दे जाएंगे।

माया-मुलायम लालू ना बनो...

बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा-जद(यू) गठबंधन के चहेते और वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मिली ऐतिहासिक जीत ने अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की नींद उड़ा दी है। सबसे ज्यादा परेशान गैर एनडीए सरकारें हैं,जिन्हें अगले एक-दो साल में चुनावों का सामना करना है। सबसे ज्यादा चिंता बिहार के पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती और समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को सताने लगी है। उन्हें डर है कि कहींबिहार की बयार उनके सियासी कुनबे को भी धाराशायी न कर दे। दरअसल इन नेताओं की चिंता लाजिमी है,क्योंकि बिहार में नीतीश कुमार की अगुवाई वाले एनडीए ने प्रदेश में सिर्फ और सिर्फ विकास के नाम के पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की। हमेशा की तरह अपना जनाधार बनाने के मकसद से बिहार चुनावों उतरी सपा और बसपा की इस बार न तो साईकिल चली और न ही हाथी। नतीजा यह रहा कि माया और मुलायम को बिहार में एक सीट भी नहीं मिली। अब जबकि 2012 में उत्तर-प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं,ऐसे में पिछले चुनाव में अपने शोशल इंजीनियंिरंग के जरिए प्रदेश में भारी बहुमत से जीत हासिल करने वाली बसपा प्रमुख मायावती अपना पिछला रिकार्ड दोहरा पाएंगींयह मुश्किल लग रहा है। क्योंकि नीतीश कुमार के नए किस्म की शोशल इंजीनियरिंग मायावती के समीकरण पर भारी पड़ता दिख रहा है। इस बार बसपा से ब्रह्म्ïाण समाज टूटता नजर आ रहा है। चुनावी चिंता से इन दिनों पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी खासे परेशान हैं इसकी वजह भी साफ है। दरअसल, लालू प्रसाद के मुस्लिम-यादव समीकरण जैसा ही उत्तर-प्रदेश में मुलायम की पार्टी का भी आधार वोट बैंक इन्हींदो समुदायों का है। मुलायम बिहार चुनावों में लालू की दुर्दशा और उनके समीकरणों को ध्वस्त होते देखा है। ठाकुरों के समर्थन का भरोसा लालू प्रसाद को था,लेकिन ठाकुरों ने चुनाव में उन्हें इस कदर ठुकराया जिसकी उम्मीद उन्हें नहींथी। मुलायम के दाहिना हाथ कहे जाने वाले अमर ंिसंह का साथ छूटने से मुलायम की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। इसी कारण मुलायम ने पुराने साथी मुस्लिम समुदाय के दिग्गज आजम खां को फिर सपा में शामिल कर लिया है। प्रदेश की मुखिया मायावती ने जब सत्ता संभाली तो उन्होंने उत्तर-प्रदेश को अपराध मुक्त राज्य बनाने का वादा किया था। अब जबकि उन्होंने तीन साल से ज्यादा का कार्यकाल पूरा कर लिया है इसके बाद भी प्रदेश की दुर्दशा खासकर कानून और विकास की स्थिति उनकी वादाखिलाफी का जीता जागता उदाहरण है। प्रदेश में अपहरण, हत्याएं,लूट की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। राज्य में न तो नए उद्योग लग रहे हैं और न ही रोजगार के नए अवसर? दरअसल मैडम माया का सारा ध्यान पार्क, मूर्ति निर्माण और बिल्डरों में लगा है। भारत के राजनीतिक इतिहास में वह पहली ऐसी नेता हैं,जिन्होंने जीते-जी अपनी मूर्ति लगवाई है। पिछले दिनों लखनऊ में उन्होंने प्रदेश के आला पुलिस पदाधिकारियों से राज्य में कानून व्यवस्था दुरुस्त करने को कहा है। माया के इस निर्देश से साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश की गिरती विधि व्यवस्था उनके लिए सरदर्द बन गया है। हालांकि मैडम माया ने घोषणा तो कर दी है कि विकास और अपराध की समीक्षा प्रत्येक जनपद में स्वयं पहुंचकर करेंगी। अब देखना यह है कि इसका आगामी चुनाव में उन्हें कितना लाभ मिलेगा।

Saturday, November 27, 2010

तानाशाह या जनप्रतिनिधि

स्वयं को जनप्रतिनिधि कहलाने वाले राजनेताओं के दिमाग से देश भक्ति एवं जनसेवा की भावना शायद समाप्त हो चुकी है। सत्ताधारी नेता ज्यादातर समारोहों में केवल अपना चेहरा दिखाने पहुंचते हैं और फिर समारोह के में ही उठ कर चल देते हैं। ऐसा ही एक प्रकरण २६/११ की सभा में सामने आया। महराष्ट्र के मुख्यमंत्री को दूसरे कार्यक्रम में जाकर लोगों से वाहवाही लूटने की इतनी जल्दी थी कि उन्होंने राष्ट्रगान के दौरान पूरे समय मंच पर खड़ा रहना भी उचित नहीं समझा। राष्ट्रगान को पूरा होने में दो मिनट का समय लगता है। मुख्यमंत्री राष्ट्रगान के लिए इतना समय भी देने के लिए तैयार नहीं थे। आयोजकों ने उन्हें रोकने का प्रयास भी किया, इसके बाद भी उन्होंने रुकना उचित नहीं समझा और समारोह को छोड़कर चले गए। मुख्यमंत्री की बचकाना हरकत ने साफ कर दिया कि शहीदों की शहादत उनकी नजर में कोई कीमत नहीं है। मुख्यमंत्री शायद भूल गए कि जवानों के कारण ही देश की जनता एवं राजनेता सुरक्षित हैं

Monday, November 22, 2010

आखिर जुबां पर आ ही गई दिल की बात

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी आखिरकार टूट ही गई। दिल्ली में आयोजित एक समारोह में उन्होंने खुद को नादान विद्यार्थी कह कर सबको चौंका दिया। कहते हैं खामोशी किसी आने वाले तूफान का पैगाम होती हैं। लेकिन पीएम की खामोशी का टूटना और खुद को स्कूल का छात्र कहना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया को शोभा नहीं देता। वैसे मनमोहन सिंह की के इस कथन से ज्यादातर लोगों को आश्चर्य शायद इस वजह से भी नहीं होगा कि उन्होंने जो बातें कहीं वह कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी की परंपरा रही है। जहां प्रधानमंत्री से बड़ा आलाकमान होता है। डा.मनमोहन सिंह ने बखूबी स्वीकार किया कि वे जब से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर ,उन्हें कई तरह के इम्तिहानों से गुजरना पड़ता है। प्रधानमंत्री के इस विलाप को देखकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जमाने में उनकी कृपा से राष्ट्रपति बने ज्ञानी जैल सिंह की वह बात याद आती है जब उन्होंने कहा था 'अगर इंदिरा कहें तो मैं झाड़ू लगाने को तैयार हूंÓ इस बात से भले ही कांग्रेसी इंदिरा की अहमियत तलाश रहे हों,लेकिन खुद को भारत की सबसे पुरानी और लोकतांत्रिक पार्टी कहने कांग्रेस के अंदरूनी राजशाही प्रदर्शित होती है। एनडीए के शासन के बाद यूपीए की ओर से प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह कभी भी खुद मानसिक तौर पर एक मजबूत आत्मनिर्णय लेने में सक्षम प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित नहीं कर पाए हैं। कहीं न कहीं उनके अंदर यह बात आज भी है कि कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने उन्हें यह पद देकर उपकृत किया है। लगभग साढ़े सात साल का कार्यकाल पूरा कर चुके डा. मनमोहन सिंह की यह पीड़ा एक दिन की नहीं है। जब वामदलों के सहारे यूपीए प्रथम थी तो कई आर्थिक मसलों पर उन्हें सहयोगी पार्टियों के दबाव के आगे झुकना पड़ा था। वह चाहकर भी स्वतंत्र फैसले नहीं कर पाए। एक जाने-माने अर्थशास्त्री होने के नाते वह कई बार अपने अनुभवों से कई सारे प्रयोग करने चाहे, लेकिन उन्हें भरसक कामयाबी नहींमिली। यह कहना अतिश्योक्ति न होगा देश की एक बड़ी आबादी आज भी उनके आत्मविश्वास की कमी देख रही है। उनके संभाषणों और बयानों में इसकी झलक साफ देखी जा सकती है। दुनिया में एक मंजे हुए अर्थशास्त्री के तौर पर भले ही उनकी छवि असरदार हो ,लेकिन एक सशक्त प्रधानमंत्री के तौर पर भारत उन्हें अब तक नहीं देख पाया है। अपने दूसरे कार्यकाल में उनके सामने चुनौतियां कई रूपों में सामने आई, लेकिन हर मसलों पर उन्होने कभी खुलकर कोई बयान नहीं दिया। ए.राजा मामले में जब बात प्रधानमंत्री पर आई तो आखिरकार उन्होंने अपनी खामोशी भंग की, लेकिन खामोशी टूटी भी तो उसमें गरज कम, लाचारी ज्यादा दिखी। ऐसे सवाल इस बात का है कि क्या मनमोहन ंिसंह वाकई एक लाचार प्रधानमंत्री हैं, क्या उनके अधिकार क्षेत्र कांग्रेस आलाकमान से कमतर है। क्या गठबंधन धर्म निभाने की खातिर राजधर्म की अनदेखी की जाए? लोकतंत्र में जनता की शान और उनकी आवाज उनके जनप्रतिनिधि होते हैं। लिहाजा जनता यह चाहती है कि देश का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति आत्मविश्वास से भरपूर हो...क्योंकि कहीं न कहीं प्रधानमंत्री जैसे पद में देश की छवि निहित होती है।

Saturday, November 20, 2010

व्यापार कर विभाग की विजिलेंस भी कटघरे में

भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के जिन उम्मीदों के साथ विजिलेंस का गठन किया गया था, शायद यह आशाएं धूमिल पड़ती जा रही हैं। इस आशंका की पुष्टि नोएडा में हुई एक घटना से हुई है। 13 अक्टूबर को जिस सेल टैक्स अधिकारी यादवेन्द्र सिंह को विजिलेंस की टीम ने रंगेहाथ तीन लाख रुपये रिश्वत लेते पकड़ा था, उसी भ्रष्ट अफसर को बचाने में व्यापार कर विभाग एड़ी-चोटी एक किए हुए हैं, उनके इस मुहिम में विजिलेंस विभाग भी पीछे नहीं है। पहले गिरफ्तारी कर ईमानदारी का तमगा लिया और बाद में आरोपी को सजा दिलाने के नाम पर हो रही देरी इस बात का सबूत है कि इस मामले में विजिलेंस की नीयत भी साफ नहीं है। इसे लेकर सेल टैक्स अधिकारी यादवेन्द्र सिंह द्वारा सताए गए व्यापारियों में गहरा आक्रोश है। उन्हें पहले उम्मीद थी कि विजिलेंस विभाग के हत्थे चढऩे के बाद आरोपी की अब तक की कारस्तानियों का काला चिट्ठा खुलेगा। लेकिन इस मामले में हो रही देरी से यह साफ संकेत है कि इस मामले की लीपापोती करने की शुरुआत हो चुकी है। हैरत की बात यह है कि गिरफ्तारी के बाद आरोपी अधिकारी थाने में सरकारी दामाद की तरह रह रहे हैं। हिरासत के बावजूद उनकी सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं की जा रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि गिरफ्तारी के दो महीने के बाद भी यादवेंद्र सिंह के खिलाफ न्यायालय में विजिलेंस टीम द्वारा चार्जशीट दाखिल नहीं करना उनके खिलाफ कमजोर केस बनाने की शुरुआती योजना है। क्योंकि कानून के मुताबिक दो माह के भीतर हर हाल में आरोप पत्र जमा करना होता है। ऐसा न होने पर आरोपी के खिलाफ कानूनी पक्ष कमजोर हो जाता है। इस मामले में देरी की वजह क्या है इस बारे में सेल टैक्स विभाग से जुड़े अधिवक्ताओं का कहना है कि यादवेन्द्र सिंह की पहुंच कई आला प्रशासनिक अधिकारियों तक है। इतना ही नहींकई केेंद्रीय मंत्रियों से भी उनके ताल्लुकात बेहतर हैं। यही वजह है कि इस मामले को रफा-दफा करने में सारा सिस्टम लगा हुआ है। गौरतलब है कि भारतीय सेना की एसएससी से रिटायर होने के बाद यादवेंद्र सिंह नोएडा सेल टैक्स में अधिकारी बने। इस पद पर वह पिछले आठ सालों से कार्यरत थे। फेहरिस्त यहीं खत्म नही होती। इस विभाग में अब भी कई ऐसे अधिकारी हैं जो कई सालों से यहां जमे हुए हैं,जाहिर है किसी न किसी लालच के चलते वे नियमों की अनदेखी कर इतने लंबे समय से यहां डेरा जमाए बैठे है। विभागीय सांठ-गांठ और सिफारिश की वजह से भ्रष्ट अधिकारी बच कर निकल जाएं तो यह खुल्लम खुल्ला कानून का उपहास है।

रियलिटी शो या अश्लीलता

टेलिविजन पर दिखाए जा रहे चर्चित सीरियल 'बिग बॅासÓ और 'राखी का इंसाफÓ को प्राइम टाइम पर न दिखाने की सूचना प्रसारण मंत्रालय के फैसले पर बांम्बे हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। न्यायालय अपने अहम फैसले में इन दोनों कार्यक्रमों को नियत समय पर ही दिखाने की बात कही है। जिस वजह से आईबी मिनिस्ट्री के मुहिम को तगड़ा झटका लगा है। मंत्रालय भले ही यह कहे कि उसने ऐसे कार्यक्रम रोकने के उपाय किए, लेकिन न्यायपालिका बीच में बाधा बन गई। अब सवाल यह है कि रियलिटी शो के नाम पर दिखाई जा रही नई किस्म की अश्लीलता को रोकने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय क्या पूरी तरह लाचार हो चुका है। पिछले दो-तीन वर्षों में मनोरंजक कार्यक्रमों के नाम पर टेलिविजन चैनल घर-घर में अश्लीलता फैलाने का काम कर रहे हैं। सवालिया निशान मंत्रालय के उस नियमों पर भी उठता है, जिसमें चैनलों को इस तरह की सीरियल दिखाने की छूट दी जा रही है। 'इमोशनल अत्याचारÓ जैसे धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं,जिसमें निजता नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। जिस तरह की गालियां आजकल महानगरों के पढ़े-लिखे युवा देते है वैसी ही गालियां इन रियलिटी शो में दी जाती है। 'इमोशनल अत्याचारÓ का कांसेप्ट इस कदर गलत है कि पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिकाओं के बीच जासूसी कर गैर-औरत या मर्द के बीच बने रिश्ते का खुलासा किया जाता है। जिसे मौजूदा युवा पीढ़ी बड़े शौक से देख रही है। उन्हें लगता है कि इसमें दिखाई गई ये सारी बातें पूर्व नियोजित नहीं है। ऐसे प्रोग्राम देखने से हमारे नाजुक रिश्तों पर दूरगामी प्रभाव पडऩा लाजिमी है। दरअसल इस तरह के मुनाफा प्रधान कार्यक्रम दिखाने के पीछे भी वही टीआरपी का फंडा है, जिसके पीछे न्यूज चैनलों से लेकर सभी इंटरटेनमेंट चैनल दौड़ लगा रहे है। पिछले कुछ सालों में फिल्म-धारावाहिक और न्यूज चैनलों से आम इंसान दूर होता जा रहा है। अमीर लोगों पर केेंद्रित चेहरे को देखकर एक बड़ी आबादी अवसाद से घिरता जा रहा है, जहां उसके देखने के लायक कुछ भी नहीं। एक बात खास गौर करने वाली है कि किसी भी सीरियल को चर्चित करने और उनका टीआरपी ग्राफ बढ़ाने में खबरिया चैनलों की भूमिका भी कम नहीं है। प्राइम टाइम और सुबह के कुछ घंटों को छोड़ दें तो चैनलों पर सारा दिन 'बिग बॅास के घर डॅाली की बदतमीजी की कहानी और सारा और अली के बीच रिश्ते की चर्चा की जाती है। इसमें कोई शक नहीं कि 'लिव इन रिलेशनशिपÓ की आधी-अधूरी तस्वीर को कलर्स चैनल पर 'बिग बॅास के जरिए युवाओं को वाकिफ कराया जा रहा है। ताकि कल इसे पूरी तरह अपनाने में किसी के बीच संकोच ना रहे। लेकिन मुनाफा कमाने की बेहिसाब प्रवृति ने चैनल मालिकों को अंधा बना दिया है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय भी पिछले कुछ सालों से मीडिया आजादी के नाम पर रेवडिय़ों की तरह धड़ल्ले से प्रसारण अधिकार दे रही है। जबकि प्रसारण नियमों में इस बात का साफ उल्लेख है कि ऐसे कोई कार्यक्रम ना दिखाएं जाएं,जिसमें अश्लीलता और फूहड़ शब्दों का इस्तेमाल हो रहा हो। आखिर मंत्रालय की ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसका फायदा न्यूज चैनलों से लेकर मनोरंजन चैनल वाले उठा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुनाफा कमाने का रोग सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भी लग गया है। देश के जिस तरह सांस्कृतिक संदूषण फैल रहा है, उसे रोकने में जनमाध्यम की अहम भूमिका है। क्योंकि समाज पर इसका काफी गहरा असर होता है। ऐसे में पत्रकारिता की प्रांसंगिकता भी बढ़ जाती है।

मौत के पंजे में फंसे रहते हैं मजदूर

मौत बेशक अन्जान बनकर आती है,लेकिन मौत कभी भी अकेले नहींजाती। अपने पीछे वह कई जिन्दा लोगों को मौत की मानिंद जिंदगी दे जाती है जिसकी टीस मुद्दतों तक कायम रहती है। उस मौत का फलसफा भी अजीब होता है जब उसकी गिनती बेमौत कहलातीहै। सोमवार रात लक्ष्मीनगर इलाके में ऐसी ही बेमौत जिंदगी का मंजर दिखाई दिया, जिसने अपने पीछे सुहागिनों के सिंदूर से लेकर सैकड़ों बच्चों की मासूमियत भरी ंिजंदगी को गम के लावे में तब्दील कर दिया। हादसे के वक्त दिनभर काम करके थके मजदूर अगले सुबह की इंतजार कर रहे थे तभी एक ऐसा जलजला आया कि रात का शुरूआती पहर उनकी जिंदगी का आखिरी सफर बन गया। मारे गए दर्जनों बदकिस्मत इंसान तबाह हो गई कई जिंदगियां....बदले में मिली तो सिर्फ और सिर्फ घडय़ाली आंसुओं का सहारा। वैसे तो दिल्ली कई बार उजड़ी और बसाई गई है, लेकिन साठ सालों में बनी नई दिल्ली में मौत के सौदागरों के चलते उन बेशकीमती जिंदगी हमेशा-हमेशा के लिए रूखसत हो गईं जिनके उपर जिम्मेदारियों का एक बड़ा पहाड़ था। आठ साल का नौशाद ईद का बेसब्री से इंतजार कर रहा था कि उसके वालिद उसके लिए नए कपड़ों और खिलौने लाएंगे। नौशाद की नन्ही आंखों में ईद की खुशियां शायद हमेशा-हमेशा के लिए दफन हो गई। राजकुमार भी उन्हीं लोगों में से एक था जो बिहार के एक गांव से अपनी विवाह योग्य पुत्री के लिए पैसा कमाने आया था, ताकि वह अपनी बेटी को ससुराल विदा कर सके।
इन अनगिनत सपनों का कातिल कौन है? मौत की इमारत बनाने वाला बिल्डर अमृतलाल सिंह या दिल्ली नगर निगम या फिर दोनों। कानून की नजरों में अमृतलाल पहले से ही कई मामलों में गुनहगार रहा है बावजूद इसके उसे नियमों को ताक पर रखकर मकान बनाने की इजाजत उसे किसने दी। क्या एमसीडी जनसुविधाएं मुहैया कराने के नाम पर मौत बांट रही है सवाल यह भी पैदा होता है। दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लाखों लोग अपना घर बार छोड़कर रोजी-रोजगार कमाने के लिए आते है। जबकि काफी तादाद में विद्यार्थी भी पढऩे आते है किस तरह की जिंदगी और किन हालातों में वह रह रहे हैं इस बात का इल्म क्या दिल्ली सरकार को है। इस बात की गारंटी कौन लेगा कि लक्ष्मीनगर जैसा हादसा दोबारा नहीं होगा। जबकि ठीक इसके उलट दिल्ली-एनसीआर की कई कालोनियां सरकार की नजरों में अवैध हैं बावजूद इसके धन की लालचों में उनकी उंचाई और संख्या दिनों-दिन बढ़ रही है। बगैर किसी भूकंप के लक्ष्मीनगर में इमारत का ढहना हैरत में डालता है, फर्ज करें अगर दिल्ली-एनसीआर में भूकंप आ जाए ज्यादातर इमारतों को ताश के पत्तों की तरह बिखरने में देर नहीं लगेगा। तब चारों तरफ मौत के बीच जिंदगियां तलाशी जाएगी। क्या सरकार और प्रशासन किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रही है जो कभी भी दिल्ली-एनसीआर पर कहर बनकर टूटेगा। नोएडा, गुडग़ांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद में कंक्रीट के जंगलो का तेजी से विस्तार हो रहा है,लेकिन उनकी बुनियाद कितनी मजबूत है इसकी फिक्र है सरकार को। राजस्व कमाने के चलते आज हर दफ्तरों में नियम-कानून की बखिया उधेड़ी जा रही है और सरकार धृतराष्ट्र की तरह महाविनाश का इंतजार कर रही है। जिला प्राधिकरण आज की तारीख में भू-माफियाओं की गोद में खेल रहा है,जिसे पैसे की अफीम खिलाकर मौत के सौदागर अपना व्यापार बढ़ा रहे है। अब वक्त आ गया है कि दिल्ली-उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकार और अफसर अपनी निद्रा तोड़े और अमृतलाल जैसे गुनाहगारों को अमृत के बदले जहर का घोल पिलाए।

Tuesday, July 20, 2010

हमें भी भूखंड चाहिए

एनसीआर में बसने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति की होती है। अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश के विधायक गाजियाबाद विकास प्राधिकरण में लंबी लाइन लगी है। प्राधिकरण से भूखंड व भवन प्राप्त करने के लिए ऐसे विधायकों ने भी आवेदन किया है जो पूर्व में इस सुविधा का लाभ उठा चुके हैं। प्राधिकरण ने आवेदन करने वाले विधायकों का ब्यौरा एकत्र करने के लिए प्राधिकरण और आवास विकास परिषद के सभी रिकार्डों को खंगालना शुरू कर दिया है। अभी तक गाजियाबाद विकास प्राधिकरण चालीस विधायकों का आवदेन रद्द कर चुका है। इसके अलावा अन्य विधायको के आवेदनों को प्रदेश के आवास मंत्री को भेज दिया है। प्राधिकरण ने हाल ही में विधायकों की मांग को पूरा करने के लिए एक विशेष योजना प्रस्तुत की थी। जिसमें जिसमें 322 आवेदन प्राप्त हुए। प्राधिकरण के पास मात्र 254 भूखंड उपलब्ध है। इस योजना में आवेदन करने वाले विधायक पूर्व में भी किसी न किसी प्राधिकरण से भूखंड व भवन प्राप्त कर चुके हैं। इसके बाद भी विधायक मौका नहीं चूकना नहीं चाहते हैं। प्रदेश शासन आदेशानुसार विधायक को पूरे प्रदेश में एक भूखंड या भवन उपलब्ध कराया जाता है। प्रदेश के विधायक एनसीआर स्थित भूखंड खरीदने का मौका नहीं छोडऩा चाहते हैं,उसके लिए चाहते रास्ता कोई भी अपनाना पड़े। सत्ताधारी विधायक तो अलग-अलग प्राधिकरणों में अपने परिवार के सदस्यों के नाम से भूखंड हासिल करते हैं और अपने नाम का इस्तेमाल तो केवल विशेष योजना में किया जाता है। प्रदेश में ऐसा कोई पहली बार हुआ है। वर्ष-2004 में नोएडा प्राधिकरण द्वारा भूखंड योजना आम लोगों के लिए पेश की गई थी। जिसमें लगभग अस्सी हजार लोगों द्वारा आवेदन किया गया था। उक्त योजना में तत्कालीन सपा सरकार के मंत्री, विधायक, अधिकारियों व उनके परिजनों को आंवटन किया गया था। उक्त योजना के ड्रॉ के दौरान मैं स्वयं मौजूद था। ड्रॉ के दौरान लगभग सात हजार आवेदक मौजूद थे, मगर एक आवेदक ने भी उठकर भूखंड निकलने की खुशी का इजहार नहीं किया था। ड्रॉ के बाद से ही प्रदेश सरकार व नोएडा प्राधिकरण पर आरोप लगने लगे कि कंप्यूटर के माध्ययम से किए गए ड्रॉ में धांधली की गई। दूसरे ही दिन पूरी मीडिया ने प्रदेश सरकार व नोएडा की खामियों को उजागर कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप प्राधिकरण अध्यक्ष ने रविवार के दिन पत्रकार वार्ता में ड्रॉ को रद्द करने की घोषणा की। प्रदेश सरकार व प्राधिकरण को अपने ही मंत्रियों, विधायक, अधिकारियों व उनके परिवार के कारण बदनामी झेलनी पड़ी। उक्त योजना का ड्रॉ एक बार फिर कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी द्वारा किया गया। जिसमें सभी आंवटी बदल गए। उक्त योजना में सबसे अधिक लाभ नोएडा प्राधिकरण को हुआ क्योंकि कई सौ करोड़ रुपया बैंक में जमा रहा। जिसका करोड़ों रुपये का ब्याज प्राधिकरण को मिला। पूर्व सत्ताधारी सरकार की गलती का खामियाजा प्राधिकरणों को उठाना पड़ रहा है। अब प्राधिकरण को योजना की घोषणा के समय ही ड्रॉ की तिथि और तरीके का ब्यौरा अपने विज्ञापन में देना पड़ता है। यहां पर कहना भी गलत नहीं होगा कि सत्ता का लाभ उठाने में सांसद और विधायक कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। नोएडा और ग्रेटर नोएडा में इस समय बिल्डर फ्लैट निर्माण का बीड़ा उठाए हुए हैं। जिसमें कई बिल्डरों ने अपने प्रोजेक्ट में मौजूदा सांसदों का हिस्सा तय किया हुआ है। जिसके चलते उनके समक्ष आने वाली परेशानियों का निवारण हो जाता है। इसके अलावा एक सांसद ने तो प्राधिकरण से भूमि का आवंटन कराकर अपना ही प्रोजेक्ट शुरू कर दिया है। आज प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि एनसीआर में अपना घर हो मगर यह सौभाग्य केवल ऊंची पहुंच वालों को ही प्राप्त होता है।

Thursday, July 15, 2010

मानव अधिकार की तलाश में ग्रामीण समाज

निर्मेश त्यागी
विधताओं
में एकता को सदियों से अक्षुण्ण बनाए रखने वाला विश्व में एकमात्र भारतीय समाज है। भारतीय समाज विश्व के अन्य समाजों से इस अर्थ में विलक्षण है कि इसमें विभिन्न धर्मो, संस्कृतियों और भाषाओं का अद्भुुत सामंजस्य है। फिर भी अनेक विविधताओं में जीने वाले लोग किसी न किसी तरह एक सूत्र में बंधे हुए है सभी भारतीय है। भारतीयता की यह व्यापक अवधारणा चलती रहे और समाज के ताने-बाने को सुदृढ़ करती रहे, इसके लिए आवश्यक है कि हम उन व्यापक मानवीय सरोकारों के प्रति सचेत रहे जो सबके लिए समान रूप से प्रासंगिक है। इस दृष्टि से मानव-अधिकारों पर विचार-विमर्श और चिंतन की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज सम्पूर्ण विश्व ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को आदर्श राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था के रूप में न केवल अंगीकार किया है अपितु उसे अपने जीवन में आत्मसात किया गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल आधार है कि वह सभी के लिए समानता का अवसर, जीवन स्तर सुधारने के लिए अपनी तरफ से पहल करें।
इक्कीसवी सदी में कदम रखने के साथ आज भारत आर्थिक सामाजिक वैज्ञानिक और शैक्षणिक दृष्टि से अग्रणी देशों में गिना जाने लगा है। स्वतंत्रता मिलने के बाद पिछले छह दशकों में समाज का खाका बदला है। सामाजिक-राजनैतिक समीकरण बदले है और मध्य वर्ग का उदय हुआ है इसके साथ सूचना क्रान्ति ने जीवन की गति तीव्र की है और साथ ही कई समस्याओं को भी जन्म दिया है। वर्तमान में मानव जाति के सामने सबसे बड़ी समस्या सम्मानपूर्वक जीवन-यापन की है और इन्हें सम्मानपूर्वक जीवन की राह दिखाने का नाम ही मानवाधिकार है। भारत में मानवाधिकार कोई नई अवधारणा नही है। भारतीय संस्कृति में मानव अधिकारों की अवधारणा का बीज पहले से ही विद्यमान है। हमारे देश के सभी प्रमुख धर्मग्रन्थों में अधिकार और कर्तव्य की अवधारणा का संकेत बीज मंत्र के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। दूसरे शब्दों में हमारी संस्कृति मानव अधिकारों को केंद्र में रखकर ही पुष्पित एवं पल्लवित हुई।
वर्तमान परिदृश्य में मानवाधिकारों का संरक्षण आज विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। सम्पूर्ण मानव जाति शोषण, भ्रष्टाचार, उत्पीडऩ एवं आतंकवाद से पीडि़त है। भारतीय संविधान में ऐसे समाज की परिकल्पना की गई है जो सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रतिष्ठा और अवसर की समानता पर आधारित हों। परन्तु जब हम भारतीय समाज के संदर्भ में मानवाधिकारों की चर्चा करते है तो हमारे मस्तिष्क में यहां की सामाजिक व्यवस्था से सम्बद्ध लिंग तथा जातिगत भेदभाव, छुआछुत, अस्पृश्यता की भावना साकार हो उठती है। मानवाधिकार और उनकी रक्षा एक सार्वभौमिक तथ्य है मानवाधिकार के संरक्षण व उनके प्रति आदर चिंता आज समय की आवश्यकता है। भारत की मानव अधिकार संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति जागरूकता इसी बात से स्पष्ट है कि 26 जून 1945 को 50 देशों ने जिनमें भारत भी सम्मिलित था, संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के चार्टर पर हस्ताक्षर किए और एक नए युग का शुभारभ्भ हुआ। यहां यह महत्वपूर्ण है, कि इस चार्टर में सात स्थानों पर मानव अधिकारों का उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही इनके सुझावों को ध्यान में रखकर ही भारत सरकार द्वारा 27 सितम्बर 1993 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई। मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को आयोग गंभीरता से लेता है इसका कारण यह है कि आयोग का लक्ष्य दोषी व्यक्ति को दंडित करना ही नहीं बल्कि पीडि़त व्यक्ति को तत्काल सहायता पहुंचाना भी होता है। स्वतंत्र भारत के छह दशकों में मानवाधिकारों की स्थिति विशेषत: ग्रामीण क्षेत्रों में नितांत शोचनीय रही है। ग्रामीण समाज में बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी, नारी उत्पीडऩ, वेश्यावृत्ति, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता तथा साहूकारों से ऋण लेकर व्यतीत होने वाले जीवन इत्यादि रूपों में नित्य मानवाधिकारो का हनन होता रहा है।
मानवाधिकार हनन के प्रमुख कपितय कारण निम्न है -
शिक्षा: मानवाधिकारों के प्रति किसी भी व्यक्ति का उदासीनता का सबसे प्रमुख कारण शिक्षा का अभाव है। जनगणना 2001 के अनुसार भारत की साक्षरता 64.84 प्रतिशत ही है। सरकार के लाख प्रयास करने के बाद भी देश में विशेषकर ग्रामीण भारत में शिक्षा के स्तर में कोई सुधार नही हुआ । सरकार द्वारा नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान किया हुआ है, इसके साथ स्कूलों में दोपहर का भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है। इसके बावजूद बच्चों को विद्यालय तक ला पाना एक कठिन कार्य बना हुआ है। सन् 2007 तक 6-11 वर्ष के स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 39 लाख 76 हजार है।
गरीबी एवं बेरोजगारी: भारत गांवों का देश है अत: ग्रामीणों के उत्थान किए बिना कोई भी अधिकार व योजना पूर्ण नहीं मानी जा सकती। आज भारत विश्व में मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है लेकिन फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में बदहाली बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे यहां 26 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे है। सन् 1994 में बेरोजगारों की संख्या 3 करोड़ 77 लाख हो गई थी इनमें 62 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 38 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों से थे। देश की आजादी प्राप्ति के इतने वर्षो बाद भी करीब 24 करोड़ लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजारने के लिए मजबूर है।
स्वास्थ्य (एड्स): स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता विशेष रूप से गरीबों व पीडि़त वर्गों को उनके मानव अधिकारों से वंचित रखती है। आज स्वास्थ्य के क्षेत्र में एड्स एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार हमारे देश में इस रोग से संक्रमित या प्रभावित लोगों की संख्या विश्व के अन्य देशों की तुलना में दूसरे नम्बर पर है। इस दिशा में इस रोग से लडऩे व पीडितो की चिकित्सा एवं राहत का बीडा उठाना होगा।
बच्चों के अधिकार : मानव अधिकारों के अभ्युदय के इस दौर में बच्चों का आगमन इस क्षेत्र में विलम्ब से हुआ है। बच्चों के अधिकार को लेकर पहले अभिसमय पर 1989 में जाकर हस्ताक्षर हुए है। इस प्रकार बच्चों के अधिकारों की दिशा में इतना विलम्ब विश्व स्तर पर संवेदन के स्तर में कमी को उजागर करता है। मानव समाज के इस कमजोर सदस्य के प्रति हमारी उदासीनता दु:खद व चिन्तनीय है।
न्याय पंचायतें : भारत में प्राचीन काल से ही ग्राम पंचायतें या जाति पंचायतें या पेशे पर आधारित व्यक्तियों की पंचायतें स्थानीय स्तर पर न्याय पंचायतों का कार्य भी करती रही है। स्वतंत्रता के पश्चात अपनाए गए संविधान के बाद देश में विधि का शासन प्रवर्तित है तथा कोई भी व्यक्ति कानून के ऊपर नही है। किन्तु आज भी भारतीय ग्रामों में स्थानीय पंचायतें अपनी परम्परागत मान्यताओं, रूढिय़ों, सामाजिक मूल्यों के अनुसार निर्णय करती हैं। यहां व्यक्ति के मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन होता रहता है।
ऐसी स्थिति में जब हम सभी दिन-प्रतिदिन प्रगति के मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहे हो, अपने ही राष्ट्र में अपने ही लोगों के अधिकारों का हनन करना मानवीयता के बिलकुल ही खिलाफ है। भारत तो गांवों का देश है, राष्ट्रकी अधिकांश जनता ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, उनके अधिकारों से परिचित कराना और आवश्यकता पडऩे पर उन्हे न्याय दिलाना समय की मांग है।

हाशिये पर है जनसंख्या कम करने का फलसफा

मारे देश में हर खास दिन को किसी दिवस के रूप में मनाया जाता है। जनसंख्या दिवस उन्हीं दिवसों में से एक है। जो हर साल सन् १९८७ से ११ जुलाई को मनाया जा रहा है। दरअसल ११ जुलाई १९८७ में ही विश्व की जनसंख्या पांच बिलियन हुई थी, पर हकीकत में इस दिवस में ऐसा कुछ नहीं है कि इसे मनाया जाए। क्योंकि न तो हम ११ जुलाई को जनसंख्या कम करने के लिए कोई प्रण लेते हैं और न ही इस बाबत किसी तरह का सकारात्मक कदम उठाते हैं। केवल ११ जुलाई सन् १९८७ में विश्व की जनसंख्या को ५ बिलियन के आंकड़ें तक पहुंचने के उपलक्ष्य में, इस दिन को च्किसी खास दिवसज् के रुप मनाया जाना कहीं से भी तार्किक नहीं लगता है।
पारंपरिक रुप से इस बार भी जनसंख्या के दशकीय वृद्धि का वास्तविक आकलन करने के लिए जनगणना (२०११) के काम की शुरुआत हो चुकी है। इसका शुभारंभ १० अप्रैल २०१० को कांग्रेस प्रेसीडेंट श्रीमती सोनिया गाँधी की निजी जानकारी को सरकारी खातों में दर्ज करके किया गया।
ज्ञातव्य है कि आजादी के बाद से यह सातवां जनगणना है और देश में होनेवाला १५वां। उल्लेखनीय है कि भारत में सबसे पहले सन् १८७२ में जनगणना हुई थी। जनगणना के द्वारा इंसान की संख्या जानने के अलावा देश के हर व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक स्थिति की भी गणना की जाती है।
भारत में आबादी इस तेजी से बढ़ रही है कि हर साल हम जनसंख्या की दृष्टि से आस्ट्रेलिया जैसे देश का निर्माण कर लेते हैं और दस सालों में ब्राजील का। भारत के अनेक राज्यों की जनसंख्या विश्व के अनेक देशों से भी अधिक है। मसलन, उत्तरप्रदेश की जनसंख्या ब्राजील के लगभग बराबर है। बिहार की जनसंख्या जर्मनी से भी अधिक है। पश्चिम बंगाल इस मामले में वियतनाम के बराबर है। अन्य राज्यों की जनसंख्या भी विश्व के अन्यान्य देशों से या तो अधिक है या फिर बराबर है। भारत में विश्व की १७ प्रतिशत आबादी निवास करती है। जबकि उनके रहने के लिए विश्व की तीन प्रतिशत जमीन ही है और इस संबंध में प्राकृतिक संसाधनों की अपनी सीमा है। लिहाजा अगर हम अपनी जनसंख्या वृद्धि को रोकने में असफल रहते हैं तो वर्ष २०२६ तक मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग ३७१ मिलियन अधिक लोग करेंगे। उस वक्त हमारी स्थिति क्या होगी। इसकी महज कल्पना भी दु:स्वप्न के समान है। सच कहा जाए तो इस बदहाल स्थिति के मूल में गरीबी, अशिक्षा और गर्भ निरोधक का कम इस्तेमाल करना है। अब भी भारत के सिर्फ दो राज्यों हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल में गर्भ निरोधक के इस्तेमाल का प्रतिशत थोड़ा बेहतर है और वह ७० फीसद के आंकड़े को पार करता है। बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में आज भी ५० प्रतिशत लड़कियों की शादी १८ वर्ष से कम उम्र में हो जाती है। पूरे देश में प्रत्येक साल ३५ लाख लड़कियाँ किशोरावस्था में ही मां बन जाती हैं।
स्वास्थ मंत्रालय के अनुसार भारत की महिलाओं में उत्पादकता दर २.६८ पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि बिहार व उत्तरप्रदेश को छोड़ करके भारत के अन्य राज्यों की महिलाएं बच्चे पैदा करने की उम्र में कम-से-कम तीन बच्चे पैदा कर सकती हैं। वहीं बिहार व उत्तरप्रदेश में यह दर चार है। ताजा पड़ताल से जाहिर है कि २०१५ तक च्हम दो हमारे दोज् की संकल्पना को पूरा करने में भारत के मात्र १४ राज्य ही सफल हो सकते हैं। भारत में एक मात्र राज्य आंध्रप्रदेश ही है जिसने जनसंख्या को रोकने में उल्लेखनीय काम किया है और वह अपने काम में काफी हद तक सफल भी रहा है। जिस गति से हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है, यदि वह बरकरार रहती है तो हमारा देश २०३० तक चीन से भी आगे चला जाएगा, जो पूर्व में अनुमानित आकलन से पांच साल पहले है।
निर्मेश त्यागी
आज भारत की आबादी १.१५ बिलियन है जो २०३० में बढ़कर १.५३ बिलियन हो जाएगी। जबकि आजादी के समय भारत की आबादी मात्र ३५० मिलियन थी। जो अब तिगुनी से भी अधिक चुकी है। उल्लेखनीय है कि अगर वर्तमान दर से जनसंख्या में बढ़ोतरी होती रही तो २०५० तक हमारे देश की आबादी २ अरब से भी अधिक हो जाएगी। देश के अंदर विगत दो दशकों में जनसंख्या की वृद्धि दर सबसे अधिक नागालैंड में रही है। १९८१-९१ के बीच इस राज्य में ५६.०८ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई थी, जो १९९१-२००१ में बढ़कर ६४.४१ फीसद हो गई थी। बीमार राज्य उत्तरप्रदेश में यह वृद्धि दर १९८१-९१ में २५.५५ प्रतिशत रही, वहीं १९९१-२००१ में २५.८० प्रतिशत। इस विषय का सबसे दुखद पहलू यह है कि जनसंख्या से मुसलसल उत्पन्न हो रहे अनगिनत समस्याओं के बावजूद भी हमारे देश में इस पर लगाम लगाने के लिए वांछित कोशिश नहीं की जा रही है।

Wednesday, March 10, 2010

बदन से सरकते कपड़े---

बदन से सरकते कपड़े , जी हाँ आजके वर्तमान परिवेश में आपको आसानी से दिख जायेगा । अब ये आपको हर गली नुक्कड़ , बाजार हो या शोपिग माल छोटे कपड़ो मे लड़कियां आपको आसानी से दिख जायेंगी । कल तक छोटे कपड़े रैंप पर कैटवाक करती मॉडल्स अपने डिजाइनर्स के कलेक्शन को पेश करने के लिए पहनती थीं, लेकिन आजकल ऐसे कपड़े आम शहरी लड़कियाँ भी पहन रही हैं। जो दिखता है, वही बिकता है' की तर्ज पर अब लड़कियाँ भी 'बिंदास बाला' की छवि में खुद को ढालती जा रही हैं और बेझिझक अपने मांसल सौंदर्य का प्रदर्शन कर लोगों की वाहवाही बटोर रही हैं। और हर जगह कहती फिरती है कि ये हमारा हक है । ठिक है हक और भी तो है , तो क्या इस हक की जरुरत ज्यादा है इनकों । ऐसे कपड़ो में घुमती फिरती है और कहती है कि "Am I Looking hot and sexy ?" और अगर आप ने हाँ कह दिया तो क्या हौसले और भी बुलंद ।
अभी कुछ दिनों पहले की बात है मै टी वी देख रहा था , की अचानक मेरी नजर इड़िया टीवी पर पड़ी और देखा किसी अदालत नामक सीरियल पर पड़ी , जहाँ एक एपिसोड में एक कटघरे में स्वामी बाबा रामदेव थे औत दूसरे कटघरे में बोलीवुड की आइटम गर्ल समंभावना सेठ और कश्मिरा शाह थी । मुद्दा चल रहा था भारतीय संस्कृति को लेकर , तो बाबा जी कह रहे थे कि ये जो आप कम कपड़ो मर डांस करती है ये अच्छा नहीं होता । इसपर समंभावना सेठ ने कहा कि बाबा अभी शर्त लगाईये , यही नाचूँ और हर मर्द खड़े होकर ताली बजाने पर मजबूर ना हो जायें तो कहिएगा । इस पर बाबा जी चुप हो गये । अब आप ही बताईये अगर वहाँ मर्द होंगे तो ऐसे नित्य पर तालियाँ तो बजेंगी ही । छोटे कपड़े पहनकर अपने बदन की सुंदरता का प्रदर्शन करना युवा लड़कियों के लिए अब एक फैशन बन गया है। जिसका बदन जितना अधिक दिखेगा उसे लोग उतना ही सुंदर व सेक्सी कहेंगे। अब लड़कियों के लिए 'सेक्सी' संबोधन एक अपशब्द नहीं बल्कि सुंदरता का पैमाना बन गया है। एक समय था जब हम और आप या कोई भी सेक्सी शब्द कहने में शर्म महशुस करता था , परन्तु एक समय आज है कि ऐसे शब्दो का प्रयोग करना मतलब इज्जत देना । फैशन शो, फिल्मी अभिनेत्रियों के कपड़े आदि सभी युवा लड़कियों को ग्लैमर के रंग में ढाल रहे हैं। कल तकमल्लिका शेरावत व राखी सावंत के छोटे कपड़े दर्शकों को आँखे मूँदने पर मजबूर करते थे परंतु आज सबसे ज्यादा माँग इन्हीं बिंदास अदाकाराओं की है। शर्म की बात है ना , जो हमारे संस्कृति को धूमिल करने मे लगा है उसकी माँग मार्केट मे सबसे ज्यादा है । कल तक हम बस फिल्मो में इन्हे देख पाते थे परन्तु अब इनकी परछाई हर जगह आसानी से दिख जाती है ।
ऐसे छोटे कपड़ो की माँग भी नित्य ही बढ़ती जा रही है , । अब आप बाजार या कपड़े की दूकानं पर जायेगे तो सबसे पहले स्कर्ट या इस प्रकार के ही छोटे कपड़े दिखेंगे । मुंबई की मायानगरी से निकलकर ग्लैमरस कपड़ों का फैशन बड़े-बड़े महानगरों तक पहुँचता जा रहा है, जहाँ शोरूम में सजने के बाद सर्वाधिक बिक्री उन्हीं कपड़ों की होती है जिनकी लंबाई कम व लुक ट्रेंडी होता है। यही नहीं महानगरों के नामी स्कूलों, कॉलेजों, एयर होस्टेस एकेडमी आदि का ड्रेस कोड ही मिनी स्कर्ट-टॉप व फ्रॉक बन गए हैं। कल तक घर-गृहस्थी संभालने वाली लड़कियाँ भी अब फैशन शो व सौंदर्य प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं और नए फैशनेबल वस्त्रों के अनुरूप अपने बदन को ढाल रही हैं। अब जब माँ अपनी बेटी को सलवार-कमीज पहनने को कहती है तो बेटी शान से कहती है कि 'माँ, अब तुम भी बदल जाओ। आज तो स्कर्ट व कैप्री का दौर है। सलवार-कमीज तो गाँव की लड़कियाँ पहनती हैं।' बुद्धि से बच्चे भले ही बड़े न हों, पर पहनावे से आजकल की किशोरियाँ अपनी उम्र से बहुत अधिक बड़ी हो गई हैं। यह सब बदलते दौर की 'फैशन' का प्रभाव है जिसने भारतीय संस्कृति की छाप को मिटाकर सिर से आँचल व पैरों से पायल को लुप्त कर दिया है ,आजकल का फैशन ही शार्ट स्कर्ट, शार्ट फ्रॉक्स आदि हैं।
जो फैशन बाजार में दिखता है, वही बिकता है। इसी तर्ज पर आज छोटे कपड़े युवतियों की पहली पसंद बन गए हैं। । भला जिस भावी पीढ़ी का नेतृत्व रिया सेन, किम शर्मा व राखी सावंत जैसी अभिनेत्रियाँ करें उस पीढ़ी की युवतियाँ पूरे शरीर को ढँकने वाले लंबे कपड़े कैसे पहन सकती हैं?

Monday, March 8, 2010

अजब का आरक्षण

13 साल े एक जंग लड़ी जा रही है आबादी के आधे हिस्से द्वारा। महिला आरक्षण विधेयक के साथ ही एक किरण जन्म ले रही हैं कि आधी आबादी अपना हक पाने में सफल रहेगी। लेकिन एक बात जो अब तक समझ में नहीं आई कि इसका 13 सालों तक विरोध क्यों होता रहा? क्यों नहीं लागू हो सका ये अब तक? क्या महिला आरक्षण इतना भयावह है कि देश के कई नेता इसके लागू होने पर असुरक्षित हो जाएँगे? क्या महिलाएँ फिर इनके बस में नहीं रहेंगी?
या फिर हम इस तरह सोचें कि क्या इसके लागू होने भर से महिलाओं को सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी? क्या सचमुच महिला आरक्षण बिल उन्हें इतना सशक्त कर देगा कि फिर कोई प्रतिभा दमन और हक मारने की गलत इबारत नहीं लिख सकेगा। सच थोड़ा सा अलग है। असल में इस बिल के बाद एक दूसरी जंग शुरू होगी।
कब हो सकेगा लागू? ;यह बिल संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण राज्यसभा और लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना जरूरी है। इसके बाद, आधी विधानसभाओं (15) से दो-तिहाई बहुमत से पास होने के बाद यह कानून का रूप धारण कर सकेगा।
अगर हो गया लागू ;इस विधेयक के बाद हर 10 साल में चुनावी सीटों पर रोटेशन होगा।। इस पक्ष पर अभी पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया गया है। इसका एक पक्ष यह है कि कोई भी सदस्य अब अपने निर्वाचन क्षेत्र को अपनी प्रॉपर्टी नहीं समझ सकता। क्योंकि नियमानुसार यह अब बदलता रहेगा। ऐसे में बरसों से एक ही सुरक्षित सीट पर चुनाव लड़ने का और कम मेहनत में जमी जमाई मलाई खाने का नेताओं का मजा किरकिरा हो जाएगा।
किन्तु जो नेता अपने निर्वाचन क्षेत्र को लेकर सचमुच गंभीर होते हैं उनकी दिलचस्पी अब अपने क्षेत्र से घटेगी। क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र स्थायी न रहने से उन्हें बस तात्कालिक फायदे वाले मुद्दे ही नजर आएँगे। लंबे समय से अटके विकास कार्य या लंबे समय के लिए आरंभ होने वाली योजनाएँ हाथ में लेने से वे कतराएँगे।
किसके लिए है और कौन लाभान्वित ;यहाँ थोड़ा सा संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वंचितों के लिए लागू यह विधेयक स्थापित नेताओं के घरों की महिलाओं को ही कृतार्थ करें? या फिर आरक्षण के नाम पर टिकट वितरण हो और ताबड़तोड़ पाने की लालसा में महिला शोषण का नया रास्ता खुल जाए? ऐसा नहीं है कि हम महिला आरक्षण बिल के विरुद्ध हैं लेकिन उसके हर पहलू को समझना भी जरूरी है। इसका लाभ हर उस महिला तक पहुँचे जो सदियों से इसकी अधिकारिणी है, यह जिम्मेदारी कौन लेगा?
विरोध के लिए विरोध :राजनीति की बिसात पर जिन्हें बस विरोध ही करना है, वे अपनी समझ के दरवाजे कभी नहीं खोलेंगे। आखिर क्यों महिला दिवस के शताब्दी वर्ष में भी महिलाओं को अपने लिए इस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है? इस बिल से नेता इतने अधिक आतंकित है कि उपराष्ट्रपति के हाथों से बिल की प्रतियाँ फाड़ देने पर मजबूर हो गए? शर्म आती है इन्हें अपना प्रतिनिधि कहते हुए। एक स्वस्थ और अनिवार्य बहस के लिए आज भी महिलाएँ इन्हीं की मुखापेक्षी हैं। ये कैसे नेता हैं, महिलाओं की प्रतिभा से डरते हैं या अपनी ही असलियत के सामने आ जाने से?
आरक्षण के साथ संरक्षण भी :ये बात विरोध कर रहे नेता भी भली भाँति जानते हैं कि महिलाओं को अगर एक स्वस्थ, सुरक्षित और सहज वातावरण भर मिल जाए तो वे कभी इन पर निर्भर नहीं है। लेकिन चुँकि खुला संतुलित और संयमित माहौल देना उनके बस का नहीं है इसलिए आरक्षण की जरूरत आन पड़ी। अगर पहले ही महिलाओं को उनके सहज नैसर्गिक अधिकार मिल गए होते तो जरूरत किसे थी आरक्षण की?
महिलाएँ सक्षम हैं स्वयं को साबित करने के लिए मगर बात सिर्फ मौके की है जो कुछ लोग देना नहीं चाहते। अगर आज भी पुरुष थोड़ा सा उदार हो जाए तो सदियों का अत्याचार भी भुला देने को तैयार है औरतें। मगर असल मुश्किल तो यही है। पिछड़ने के डर से ये नेता बिल को पछाड़ने में लगे हैं।
आरक्षण से लगाम ;यह सच है कि महिलाएँ अब बदल रही है। इतनी तेजी से कि पुरुष चौंक सा गया है। आरक्षण की छड़ी मिलने से उसकी मुखरता और प्रखरता बढ़ेंगी इसमें कोई शक नहीं। उसके सपने भी बदलेंगे और सपनों को पूरा करने का तरीका भी। एक लगाम उन बेलगामों पर भी कसेंगी जिनके लिए आज भी महिला इस्तेमाल की 'चीज' है।
उम्मीदें जिन्दा हैं :यह सदियों का स्वीकारा हुआ सच है कि महिलाओं को जो कुछ भी मिला है वह सहजता से नहीं मिला है। संघर्ष की एक लंबी दास्ताँ उसे लिखनी ही पड़ी है। आरक्षण भला कैसे आसानी से मिल जाएगा? लेकिन यह सच भी उतना ही चमकदार है कि लड़ाई हमेशा उसने जीती है, क्योंकि हारना उसे नहीं आत। उम्मीद कीजिए कि सौ साल के सफर में हम अढ़ाई कोस से आगे निकल आए। उम्मीदें अभी जिन्दा हैं।

Wednesday, February 24, 2010

नंदगांव के मतवाले पर बरसाना में प्यार भरी लाठियां

बरसाना वर्षों से चली आ रही रंगों में रंगी रंगीली और रंगीले अंदाज में नंदगांव के मतवाले हुरियारे। पहले खूब हंसी-ठिठोली फिर गा कर रिझाया-फाग खेलन बरसाने आएं हैं नटवर नंद किशोर..। इसके साथ ही फाग की मस्ती और अटूट पे्रम से भरीं लाठियां हाथ में लेकर रंगीली गली में हुरियारों को झूरने उतरीं बरसाने की हुरियारिनें।
सतरंगी रंगों में सराबोर रंगीली गली में सिर पर बरसतीं लाठियों की तडतड और राधे-राधे की गूंज के बीच आसमान से होली पर बरसते पुष्पों के नजारे ने जैसे द्वापर युग को सजीव कर दिया। इस अनोखे नजारे का दर्शन करने के लिए देश-विदेश से बडी तादाद में श्रद्धालुओं ने आकर अपने को धन्य किया।
बरसाना में मंगलवार शाम को खूब अबीर-गुलाल और रंग बरसा। परंपरा अनुसार नंदगांव के हुरियारे समूह के रूप में बरसाने की पीली पोखर पर पहुंचे। यहां उन्होंने अपने सिर पर ढाल और मजबूत साफा-पगडी बांध कर अपनी पूरी तैयारी कर ली और चल पडे लाडली जू मंदिर। मंदिर पर बरसाने के समाज की ओर से इनका स्वागत किया गया। मंदिर परिसर में बरसाने और नंदगांव के लोगों के बीच होली गीतों के साथ समाज गायन हुआ।
एक घंटे तक चले इस गायन के बाद नंदगांव के हुरियारे ढोल नगाडे बजाते नाचते-गाते दिखाई दिए। इसके बाद मंदिर में शुरू हुआ रंगों की होली का सिलसिला। रंगीली गली से चौक तक करीब एक से डेढ घंटे तक चले इस विश्वप्रसिद्ध लठामार होली के दौरान लाठियों की ताबडतोड वार के बावजूद हुरियारे भी कहां मैदान में डटे रहे। सिर पर ढाल रख प्रहारों के बीच खूब नाचते और ठिठोली कर रहे थे। इस अद्भुत नयनाभिराम दर्शन को लालायित श्रद्धालु श्री राधे-राधे के जयकारे लगाते उत्साह और जोश से होली की मस्ती में मदमस्त दिखाई दे रहे थे। सभी ने एक दूसरे पर खूब रंग डाला। इसकी एक-एक बूंद और छींटे पाने के लिए श्रद्धालुओं में चहुंओर होड मची रही। होली कारंग और गुलाल इस तरह उडा कि ब्रह्मगिरि पर्वत होली के रंगों में सराबोर हो गया। यह खास होली उस समय और यादगार बन गई जब रंगीली गली में लठामार होली खेल रहे हुरियारों और हुरियारिनों पर आसमान से पुष्पों की बरसा होने लगी। यह बरसात दिल्ली से आए एक श्रद्धालु ने हेलीकाप्टर से कराई थी। उस क्षण ने माहौल में और चार चांद लगा दिए।

Sunday, February 14, 2010

मौसम में दिल का धड़कना आधुनिकता का नाम वेलेंटाइन डे का नाम

निर्मेश त्यागी
ऐसे में दिल का धड़कना लाजिमी है,क्योंकि वेलेंटाइन डे है आज। युगों-युगों से बसंत का मंद समीर,खिले हुए फूल,गुनगुनाती धूप और मन में उठती मीठी सी तरंग। ऐसे माहौल में दिल का धड़कना तो लाजिमी ही है। यह अलग बात है कि खुशगवार मौसम की वजह से मन में आने वाले मुहब्बत से भरे इस सुरीले अहसास को आधुनिकता ने वेलेंटाइन डे का नाम दे दिया गया है। कुछ ऐसा ही बताते हैं मानव शरीर पर मौसम के बदलावों का अध्ययन करने वाले आयुर्वेदाचार्य। आयुर्वेदाचार्यों के मुताबिक दरअसल प्यार का दिन यानि वेलेंटाइन डे दिल का मामला नहीं बल्कि मौसम का मामला है।
आयुर्वेदाचार्य बताते हैं कि बसंत ऋतु में चलने वाली मंद समीर रोम छिद्रों के माध्यम से सीधे शरीर के भीतर प्रवेश कर जाती है। इससे शरीर के भीतर स्फूर्ति का अहसास होता है। आयुर्वेदाचार्यों का कहना हैै कि बसंत का मौसम ऐसा प्रभाव डालता है कि मानव प्रेम भावनाओं के वशीभूत होकर कार्य करने लगता है। शरीर की अग्रि भी इस दौरान काफी प्रबल हो जाती हैै। अग्रि के प्रबल होने के बाद मनुष्य भी पशु-पक्षियों की तरह विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होता है। पाचन बढिय़ा हो जाता हैै। भूख ज्यादा लगती हैै।
प्रमुख आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ.अजय चौधरी बसंत ऋतु के शरीर पर पडऩे वाले प्रभाव के बारे में बताते हैं,कि पूरे मौसम में शरीर में धातुओं का पोषण की प्रक्रिया जारी रहती है। इसकी वजह से इनसान मानसिक तौर पर प्रेम के लिए काफी हद तक तैयार हो जाता है। डॉ.चौधरी के मुताबिक यही मुख्य वजह है,जिससे वेलेंटाइन डे बसंत में ही पड़ता हैै। युवाओं के अलावा इस ऋतु का प्रभाव बुजुर्गों पर भी पड़ता है। बुजुर्गों की कमर और पीठ दर्द से संबंधित शिकायतें काफी कम हो जाती है। गुस्सा करने वालों लोग थोड़े शांत पड़ जाते हैं और बात बात में झल्लाने वालों की झल्लाहट कम हो जाती हैै। बसंत के खुशगार मौसम का असर पशुओं व पक्षियों पर भी पड़ता है। पशु चिकित्सक डॉ.एच.के.शर्मा के अनुसार मौसम में आए बदलाव के कारण जानवरों की उग्रता भी कम होगी और वे बजाय मारने,काटने,भैंकने के प्यार प्रदर्शित करते हैं।

Friday, February 12, 2010

वेलेन्टाइन डे बनाम प्यार में धोखा.......... ( सावधान लड़कियां )

इन दिनों बाजार जाकर काफी शुकून मिल रहा हैं , ऐसा लगता है मानों कि किसी बगीचे में आ गये हों , चारों ओर गुलाबी खुशबू फैली है । तरह तरह के स्टाइल में सजे गुलाब के फूलों को देख प्रसन्नता होती है , वैसे तो आम दिनों में इन गुलाबों की कीमत पांच रूपये के आस पास होती है पर इस खास मौके पर ये ३० रूपये से लेकर १००० रूपये तक के हैं । इसलिए देखकर ही अच्छा लग रहा है.............. खरीदना क्या ? जब कभी भी मन होता चाय के बहाने बाजार की तरफ रूख कर लेते हैं । कारण तो आप भी पता ही है भाई , हम बेरोजगार जो ठहरे । महंगाई ने पहले ही दाल रोटी को हमसे दूर कर दिया है ऐसे में भला गुलशन में गुलाब कैसे गुलजार हो सकता है । इस समय तो अपना गुलशन गुलजार जी के गाने से( इब्ने बतूता) ही महक रहा है ।
बाजार में जाने पर पता चल रहा है कि लैला मजनू आफर भी चल रहा है जिसमें काफी हट, पिज्जा हट सबसे आगे हैं । पर मेरे लिए यह सब कहां ? अपनी तो वही पुरानी राम कहानी जो बनाओगे वही खाने को मिलेगा । वैसे भी काफी और चाय के दाम ने मिठास पहले ही गायब कर दी है । पर आप सभी जोड़ें में जाकर इसका भरपूर आनंद ले सकते हैं ।
वैसे भी अगर बाजार किसी त्यौहार को महत्तव न दे....... तो वह फीका ही नजर आता है । वेलेन्टाइन डे को बाजार ने सर आंखों पर लिया है , इसलिए इसका खुमार टीन ऐजर्स पर चढ़कर बोल रहा है । मीडिया की माने तो ड्रग्स और गर्भनिरोधक दवाओं की बिक्री में भी इजाफा हुआ है । कंडोम भी आम दिनों की तुलना में ४० फीसदी अधिक बिक रहा है । वैसे इस तरह से एक फायदा तो जरूर रहेगा जो कि शारीरिक संबध को साफ सुथरा बनाया जा सकेगा । वे लड़किया जरूर सावधान रहें जो इस तरह के विचार की नहीं है। कामोत्तेजक दवाओं को पानी , काफी या किसी और तरल में मिलाकर आपको पिलाया जा सकता है । वैसे प्रेम विश्वास का रिश्ता पर सावधानी आपके हाथ हैं । वर्ना धोखा भी हो सकता है ।

Sunday, January 31, 2010

...जहां सात फेरों को तरसते हैं पुरुष

अभी तक तो बेटी के पिता को ही अपनी लड़की के विवाह की फिक्र सताती थी मगर शिवपुरी जिले में ऐसे एक दो नहीं, बल्कि पूरे दो दर्जन से अधिक गांव हैं, जहां कुंवारे युवकों की पूरी फौज मौजूद है और इन गांवों को कुंआरों के गांव के नाम से पुकारा जाने लगा है। दरअसल इन गांवों में फ्लोराइड युक्त पानी होने के कारण लोग अस्थि विकार का शिकार हो जाते हैं। इसी वजह से आसपास के गांवों के लोग इन गांवों में अपनी बेटी ब्याहने से कतराते हैं। इन गांवों के लोग अपनी लड़कियों की शादी छोटी उम्र में करके उन्हें तो इस बीमारी से बचा लेते हैं, लेकिन सेहरा बांधने की हसरत में उनके लड़कों की उम्र ढल रही है। सूत्रों का कहना है कि फ्लोराइड युक्त पानी वाले गांवों की संख्या और भी तेजी से बढ़ रही है। फ्लोरोसिस से पीडि़त गांवों में लोग अपनी बेटियां ब्याहने से कतराते हैं और पिछले लंबे समय से यहां यह स्थिति देखी जा रही है। अब तो हालत यह है कि लोग इन गांवों को कुंआरों के गांव के नाम से भी पुकारने लगे हैं।शिवपुरी जिले के नरवर और करैरा विकासखंड अंतर्गत मौजूद इन गांवों के पानी में फ्लोरोसिस का जहर घुला हुआ है। ग्राम हथेड़ा, मिहावरा, गोकुंदा, टोडा आदि में फ्लोराइड के आधिक्य ने पानी को विषैला कर डाला है। इस विषैले पानी के सेवन से लोग अस्थि विकृति के शिकार हो रहे है।
इस बीमारी की चपेट में आने वाले लोगों में जवानी में ही बुढ़ापे की झलक साफ देखने को मिलती है। दांतों की कतारें बदरंग हो जाती है और कम उम्र में ही दांत गिरने लगते हैं। इन गांवों में अपाहिजों की तादाद भी तुलनात्मक तौर पर चौंकाने वाली है।बकौल डा। डी के सिरोठिया, फ्लोरोसिस एक दफा अपना प्रभाव जमा ले तो फिर उससे निजात मिलना असंभव सा कार्य है। इसके लिए तो यही कहा जाएगा कि फ्लोरोसिस से बचाव ही इसका इलाज है। उन्होंने बताया कि फ्लोराइड की मात्रा फूलपुर, हतेड़ा आदि क्षेत्रों में तो 5 पीपीएम तक है जबकि एक से 1.5 पीपीएम तक फ्लोराइड की मात्रा पानी में मानव उपयोगार्थ स्वीकार्य है। नरवर के टुकी क्षेत्र के गोपाल यादव का कहना है कि वह दो जवान बेटियों का बाप है परंतु हतेडा, गोकुंदा आदि ग्रामों में लड़के होते हुए भी वह अपनी बेटियों की शादी इन गांवों में नहीं करेगा। उसका कहना है कि वहां उनकी बेटी की ही नहीं, उसकी भावी संतानों की भी जिंदगी खराब हो जाएगी।फ्लारोसिस की दहशत ने लड़की वालों को इस कदर अपनी जकड़ में ले रखा है कि यहां के पूरे पूरे गांव शहनाई की आवाज को तरस गए हैं। ग्राम फूलपुर के कोमलसिंह, मंशाराम, राजाराम सिंह आदि के घर जवान बेटे मौजूद हैं, जिनकी शादी की उम्र निकलती जा रही है, इनकी शादी की सभी संभावनाएं फीकी है। राजाराम निराश भाव से कहता है कि अब तो उसने रिश्तों की बाट देखना भी बंद कर दिया है।
फूलपुर टोडा हथेडा, महावरा, जरावनी, गोकुंदा आदि में महिला पुरुष अनुपात बेहद असंतुलित है। यहां की बेटियों की शादी तो कम उम्र में आसानी से हो जाती है, लेकिन युवकों का दुल्हन नहीं मिल पाती।
ग्रामीण हरज्ञान पाल का कहना है कि फ्लोरोसिस यहां दशकों से है, किन्तु जब से प्रचार माध्यमों ने प्रचारित किया है तभी से गांवों में कुंआरों की संख्या लगातार बढ़ने लगी हैं। फ्लोरोसिस नामक बीमारी के फैलाव का मुख्य और एक मात्र कारण इन गांवों में पानी के स्त्रोतों का फ्लोराइड प्रभावित होना है। फ्लोराइड ने लोगों के अस्थि तंत्र, तांत्रिका तंत्र और अन्य अंगों को प्रभावित कर डाला है।
स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने इस त्रासदी से निपटने के लिए स्थान-स्थान पर डी फ्लोरीडेशन संयत्र स्थापित करने के अलावा नल-जल योजनाओं के जरिए दीगर स्थानों से पानी लाए जाने का प्रयास किया है। क्षेत्र के 30 से अधिक हैंडपंप फ्लोराइड की स्वीकार्य मात्र से अधिकता वाले जल की उपलब्धता के कारण बंद कर लाल रंग से चिंहित कर दिए गए हैं।रतिराम यादव कहता है कि सब कुछ किया जा रहा है परंतु गांव के बारे में जो धारणा बन चुकी है उसे बदल पाना संभव नहीं है। सरकार हमारी शादी का प्रबंध करने के लिए भी कुछ करे तो बात बने।
साभार mediaclubofindia

Saturday, January 30, 2010

पहला प्यार
ममत्व की तुतलाती मातृभाषा में..
कुछ ही वर्ष रही वह जीवन में
दूसरा प्यार
बहन की कोमल छाया में

एक सेनेटोरियम की उदासी तक

फिर नासमझी की भाषा में
एक लौ को पकड़ने की कोशिश में
जला बैठा था अपनी अंगुलियां

एक परदे के दूसरी तरफ़
खिली धूप में खिलता गुलाब
बेचैन शब्द
जिन्हें होंठों पर लाना भी गुनाह था

धीरे-धीरे जाना
प्यार की और भी भाषाएं हैं दुनिया में
देशी-विदेशी

और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
सब जगह एक ही है
लेकिन जल्दी ही जाना
कि वर्जनाओं की भाषा भी एक ही है

एक-से घरों में रहते हैं
तरह-तरह के लोग
जिनसे बनते हैं
दूरियों के भूगोल..

अगला प्यार
भूली-बिसरी यादों की
ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
केवल कुछ अधमिटे अक्षर
कुछ अस्फुट ध्वनियां भर बचती हैं
जिन्हें किसी तरह जोड़कर
हम बनाते हैं