rashtrya ujala

Saturday, November 27, 2010

तानाशाह या जनप्रतिनिधि

स्वयं को जनप्रतिनिधि कहलाने वाले राजनेताओं के दिमाग से देश भक्ति एवं जनसेवा की भावना शायद समाप्त हो चुकी है। सत्ताधारी नेता ज्यादातर समारोहों में केवल अपना चेहरा दिखाने पहुंचते हैं और फिर समारोह के में ही उठ कर चल देते हैं। ऐसा ही एक प्रकरण २६/११ की सभा में सामने आया। महराष्ट्र के मुख्यमंत्री को दूसरे कार्यक्रम में जाकर लोगों से वाहवाही लूटने की इतनी जल्दी थी कि उन्होंने राष्ट्रगान के दौरान पूरे समय मंच पर खड़ा रहना भी उचित नहीं समझा। राष्ट्रगान को पूरा होने में दो मिनट का समय लगता है। मुख्यमंत्री राष्ट्रगान के लिए इतना समय भी देने के लिए तैयार नहीं थे। आयोजकों ने उन्हें रोकने का प्रयास भी किया, इसके बाद भी उन्होंने रुकना उचित नहीं समझा और समारोह को छोड़कर चले गए। मुख्यमंत्री की बचकाना हरकत ने साफ कर दिया कि शहीदों की शहादत उनकी नजर में कोई कीमत नहीं है। मुख्यमंत्री शायद भूल गए कि जवानों के कारण ही देश की जनता एवं राजनेता सुरक्षित हैं

Monday, November 22, 2010

आखिर जुबां पर आ ही गई दिल की बात

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी आखिरकार टूट ही गई। दिल्ली में आयोजित एक समारोह में उन्होंने खुद को नादान विद्यार्थी कह कर सबको चौंका दिया। कहते हैं खामोशी किसी आने वाले तूफान का पैगाम होती हैं। लेकिन पीएम की खामोशी का टूटना और खुद को स्कूल का छात्र कहना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया को शोभा नहीं देता। वैसे मनमोहन सिंह की के इस कथन से ज्यादातर लोगों को आश्चर्य शायद इस वजह से भी नहीं होगा कि उन्होंने जो बातें कहीं वह कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी की परंपरा रही है। जहां प्रधानमंत्री से बड़ा आलाकमान होता है। डा.मनमोहन सिंह ने बखूबी स्वीकार किया कि वे जब से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर ,उन्हें कई तरह के इम्तिहानों से गुजरना पड़ता है। प्रधानमंत्री के इस विलाप को देखकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जमाने में उनकी कृपा से राष्ट्रपति बने ज्ञानी जैल सिंह की वह बात याद आती है जब उन्होंने कहा था 'अगर इंदिरा कहें तो मैं झाड़ू लगाने को तैयार हूंÓ इस बात से भले ही कांग्रेसी इंदिरा की अहमियत तलाश रहे हों,लेकिन खुद को भारत की सबसे पुरानी और लोकतांत्रिक पार्टी कहने कांग्रेस के अंदरूनी राजशाही प्रदर्शित होती है। एनडीए के शासन के बाद यूपीए की ओर से प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह कभी भी खुद मानसिक तौर पर एक मजबूत आत्मनिर्णय लेने में सक्षम प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित नहीं कर पाए हैं। कहीं न कहीं उनके अंदर यह बात आज भी है कि कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने उन्हें यह पद देकर उपकृत किया है। लगभग साढ़े सात साल का कार्यकाल पूरा कर चुके डा. मनमोहन सिंह की यह पीड़ा एक दिन की नहीं है। जब वामदलों के सहारे यूपीए प्रथम थी तो कई आर्थिक मसलों पर उन्हें सहयोगी पार्टियों के दबाव के आगे झुकना पड़ा था। वह चाहकर भी स्वतंत्र फैसले नहीं कर पाए। एक जाने-माने अर्थशास्त्री होने के नाते वह कई बार अपने अनुभवों से कई सारे प्रयोग करने चाहे, लेकिन उन्हें भरसक कामयाबी नहींमिली। यह कहना अतिश्योक्ति न होगा देश की एक बड़ी आबादी आज भी उनके आत्मविश्वास की कमी देख रही है। उनके संभाषणों और बयानों में इसकी झलक साफ देखी जा सकती है। दुनिया में एक मंजे हुए अर्थशास्त्री के तौर पर भले ही उनकी छवि असरदार हो ,लेकिन एक सशक्त प्रधानमंत्री के तौर पर भारत उन्हें अब तक नहीं देख पाया है। अपने दूसरे कार्यकाल में उनके सामने चुनौतियां कई रूपों में सामने आई, लेकिन हर मसलों पर उन्होने कभी खुलकर कोई बयान नहीं दिया। ए.राजा मामले में जब बात प्रधानमंत्री पर आई तो आखिरकार उन्होंने अपनी खामोशी भंग की, लेकिन खामोशी टूटी भी तो उसमें गरज कम, लाचारी ज्यादा दिखी। ऐसे सवाल इस बात का है कि क्या मनमोहन ंिसंह वाकई एक लाचार प्रधानमंत्री हैं, क्या उनके अधिकार क्षेत्र कांग्रेस आलाकमान से कमतर है। क्या गठबंधन धर्म निभाने की खातिर राजधर्म की अनदेखी की जाए? लोकतंत्र में जनता की शान और उनकी आवाज उनके जनप्रतिनिधि होते हैं। लिहाजा जनता यह चाहती है कि देश का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति आत्मविश्वास से भरपूर हो...क्योंकि कहीं न कहीं प्रधानमंत्री जैसे पद में देश की छवि निहित होती है।

Saturday, November 20, 2010

व्यापार कर विभाग की विजिलेंस भी कटघरे में

भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के जिन उम्मीदों के साथ विजिलेंस का गठन किया गया था, शायद यह आशाएं धूमिल पड़ती जा रही हैं। इस आशंका की पुष्टि नोएडा में हुई एक घटना से हुई है। 13 अक्टूबर को जिस सेल टैक्स अधिकारी यादवेन्द्र सिंह को विजिलेंस की टीम ने रंगेहाथ तीन लाख रुपये रिश्वत लेते पकड़ा था, उसी भ्रष्ट अफसर को बचाने में व्यापार कर विभाग एड़ी-चोटी एक किए हुए हैं, उनके इस मुहिम में विजिलेंस विभाग भी पीछे नहीं है। पहले गिरफ्तारी कर ईमानदारी का तमगा लिया और बाद में आरोपी को सजा दिलाने के नाम पर हो रही देरी इस बात का सबूत है कि इस मामले में विजिलेंस की नीयत भी साफ नहीं है। इसे लेकर सेल टैक्स अधिकारी यादवेन्द्र सिंह द्वारा सताए गए व्यापारियों में गहरा आक्रोश है। उन्हें पहले उम्मीद थी कि विजिलेंस विभाग के हत्थे चढऩे के बाद आरोपी की अब तक की कारस्तानियों का काला चिट्ठा खुलेगा। लेकिन इस मामले में हो रही देरी से यह साफ संकेत है कि इस मामले की लीपापोती करने की शुरुआत हो चुकी है। हैरत की बात यह है कि गिरफ्तारी के बाद आरोपी अधिकारी थाने में सरकारी दामाद की तरह रह रहे हैं। हिरासत के बावजूद उनकी सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं की जा रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि गिरफ्तारी के दो महीने के बाद भी यादवेंद्र सिंह के खिलाफ न्यायालय में विजिलेंस टीम द्वारा चार्जशीट दाखिल नहीं करना उनके खिलाफ कमजोर केस बनाने की शुरुआती योजना है। क्योंकि कानून के मुताबिक दो माह के भीतर हर हाल में आरोप पत्र जमा करना होता है। ऐसा न होने पर आरोपी के खिलाफ कानूनी पक्ष कमजोर हो जाता है। इस मामले में देरी की वजह क्या है इस बारे में सेल टैक्स विभाग से जुड़े अधिवक्ताओं का कहना है कि यादवेन्द्र सिंह की पहुंच कई आला प्रशासनिक अधिकारियों तक है। इतना ही नहींकई केेंद्रीय मंत्रियों से भी उनके ताल्लुकात बेहतर हैं। यही वजह है कि इस मामले को रफा-दफा करने में सारा सिस्टम लगा हुआ है। गौरतलब है कि भारतीय सेना की एसएससी से रिटायर होने के बाद यादवेंद्र सिंह नोएडा सेल टैक्स में अधिकारी बने। इस पद पर वह पिछले आठ सालों से कार्यरत थे। फेहरिस्त यहीं खत्म नही होती। इस विभाग में अब भी कई ऐसे अधिकारी हैं जो कई सालों से यहां जमे हुए हैं,जाहिर है किसी न किसी लालच के चलते वे नियमों की अनदेखी कर इतने लंबे समय से यहां डेरा जमाए बैठे है। विभागीय सांठ-गांठ और सिफारिश की वजह से भ्रष्ट अधिकारी बच कर निकल जाएं तो यह खुल्लम खुल्ला कानून का उपहास है।

रियलिटी शो या अश्लीलता

टेलिविजन पर दिखाए जा रहे चर्चित सीरियल 'बिग बॅासÓ और 'राखी का इंसाफÓ को प्राइम टाइम पर न दिखाने की सूचना प्रसारण मंत्रालय के फैसले पर बांम्बे हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। न्यायालय अपने अहम फैसले में इन दोनों कार्यक्रमों को नियत समय पर ही दिखाने की बात कही है। जिस वजह से आईबी मिनिस्ट्री के मुहिम को तगड़ा झटका लगा है। मंत्रालय भले ही यह कहे कि उसने ऐसे कार्यक्रम रोकने के उपाय किए, लेकिन न्यायपालिका बीच में बाधा बन गई। अब सवाल यह है कि रियलिटी शो के नाम पर दिखाई जा रही नई किस्म की अश्लीलता को रोकने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय क्या पूरी तरह लाचार हो चुका है। पिछले दो-तीन वर्षों में मनोरंजक कार्यक्रमों के नाम पर टेलिविजन चैनल घर-घर में अश्लीलता फैलाने का काम कर रहे हैं। सवालिया निशान मंत्रालय के उस नियमों पर भी उठता है, जिसमें चैनलों को इस तरह की सीरियल दिखाने की छूट दी जा रही है। 'इमोशनल अत्याचारÓ जैसे धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं,जिसमें निजता नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। जिस तरह की गालियां आजकल महानगरों के पढ़े-लिखे युवा देते है वैसी ही गालियां इन रियलिटी शो में दी जाती है। 'इमोशनल अत्याचारÓ का कांसेप्ट इस कदर गलत है कि पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिकाओं के बीच जासूसी कर गैर-औरत या मर्द के बीच बने रिश्ते का खुलासा किया जाता है। जिसे मौजूदा युवा पीढ़ी बड़े शौक से देख रही है। उन्हें लगता है कि इसमें दिखाई गई ये सारी बातें पूर्व नियोजित नहीं है। ऐसे प्रोग्राम देखने से हमारे नाजुक रिश्तों पर दूरगामी प्रभाव पडऩा लाजिमी है। दरअसल इस तरह के मुनाफा प्रधान कार्यक्रम दिखाने के पीछे भी वही टीआरपी का फंडा है, जिसके पीछे न्यूज चैनलों से लेकर सभी इंटरटेनमेंट चैनल दौड़ लगा रहे है। पिछले कुछ सालों में फिल्म-धारावाहिक और न्यूज चैनलों से आम इंसान दूर होता जा रहा है। अमीर लोगों पर केेंद्रित चेहरे को देखकर एक बड़ी आबादी अवसाद से घिरता जा रहा है, जहां उसके देखने के लायक कुछ भी नहीं। एक बात खास गौर करने वाली है कि किसी भी सीरियल को चर्चित करने और उनका टीआरपी ग्राफ बढ़ाने में खबरिया चैनलों की भूमिका भी कम नहीं है। प्राइम टाइम और सुबह के कुछ घंटों को छोड़ दें तो चैनलों पर सारा दिन 'बिग बॅास के घर डॅाली की बदतमीजी की कहानी और सारा और अली के बीच रिश्ते की चर्चा की जाती है। इसमें कोई शक नहीं कि 'लिव इन रिलेशनशिपÓ की आधी-अधूरी तस्वीर को कलर्स चैनल पर 'बिग बॅास के जरिए युवाओं को वाकिफ कराया जा रहा है। ताकि कल इसे पूरी तरह अपनाने में किसी के बीच संकोच ना रहे। लेकिन मुनाफा कमाने की बेहिसाब प्रवृति ने चैनल मालिकों को अंधा बना दिया है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय भी पिछले कुछ सालों से मीडिया आजादी के नाम पर रेवडिय़ों की तरह धड़ल्ले से प्रसारण अधिकार दे रही है। जबकि प्रसारण नियमों में इस बात का साफ उल्लेख है कि ऐसे कोई कार्यक्रम ना दिखाएं जाएं,जिसमें अश्लीलता और फूहड़ शब्दों का इस्तेमाल हो रहा हो। आखिर मंत्रालय की ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसका फायदा न्यूज चैनलों से लेकर मनोरंजन चैनल वाले उठा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुनाफा कमाने का रोग सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भी लग गया है। देश के जिस तरह सांस्कृतिक संदूषण फैल रहा है, उसे रोकने में जनमाध्यम की अहम भूमिका है। क्योंकि समाज पर इसका काफी गहरा असर होता है। ऐसे में पत्रकारिता की प्रांसंगिकता भी बढ़ जाती है।

मौत के पंजे में फंसे रहते हैं मजदूर

मौत बेशक अन्जान बनकर आती है,लेकिन मौत कभी भी अकेले नहींजाती। अपने पीछे वह कई जिन्दा लोगों को मौत की मानिंद जिंदगी दे जाती है जिसकी टीस मुद्दतों तक कायम रहती है। उस मौत का फलसफा भी अजीब होता है जब उसकी गिनती बेमौत कहलातीहै। सोमवार रात लक्ष्मीनगर इलाके में ऐसी ही बेमौत जिंदगी का मंजर दिखाई दिया, जिसने अपने पीछे सुहागिनों के सिंदूर से लेकर सैकड़ों बच्चों की मासूमियत भरी ंिजंदगी को गम के लावे में तब्दील कर दिया। हादसे के वक्त दिनभर काम करके थके मजदूर अगले सुबह की इंतजार कर रहे थे तभी एक ऐसा जलजला आया कि रात का शुरूआती पहर उनकी जिंदगी का आखिरी सफर बन गया। मारे गए दर्जनों बदकिस्मत इंसान तबाह हो गई कई जिंदगियां....बदले में मिली तो सिर्फ और सिर्फ घडय़ाली आंसुओं का सहारा। वैसे तो दिल्ली कई बार उजड़ी और बसाई गई है, लेकिन साठ सालों में बनी नई दिल्ली में मौत के सौदागरों के चलते उन बेशकीमती जिंदगी हमेशा-हमेशा के लिए रूखसत हो गईं जिनके उपर जिम्मेदारियों का एक बड़ा पहाड़ था। आठ साल का नौशाद ईद का बेसब्री से इंतजार कर रहा था कि उसके वालिद उसके लिए नए कपड़ों और खिलौने लाएंगे। नौशाद की नन्ही आंखों में ईद की खुशियां शायद हमेशा-हमेशा के लिए दफन हो गई। राजकुमार भी उन्हीं लोगों में से एक था जो बिहार के एक गांव से अपनी विवाह योग्य पुत्री के लिए पैसा कमाने आया था, ताकि वह अपनी बेटी को ससुराल विदा कर सके।
इन अनगिनत सपनों का कातिल कौन है? मौत की इमारत बनाने वाला बिल्डर अमृतलाल सिंह या दिल्ली नगर निगम या फिर दोनों। कानून की नजरों में अमृतलाल पहले से ही कई मामलों में गुनहगार रहा है बावजूद इसके उसे नियमों को ताक पर रखकर मकान बनाने की इजाजत उसे किसने दी। क्या एमसीडी जनसुविधाएं मुहैया कराने के नाम पर मौत बांट रही है सवाल यह भी पैदा होता है। दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लाखों लोग अपना घर बार छोड़कर रोजी-रोजगार कमाने के लिए आते है। जबकि काफी तादाद में विद्यार्थी भी पढऩे आते है किस तरह की जिंदगी और किन हालातों में वह रह रहे हैं इस बात का इल्म क्या दिल्ली सरकार को है। इस बात की गारंटी कौन लेगा कि लक्ष्मीनगर जैसा हादसा दोबारा नहीं होगा। जबकि ठीक इसके उलट दिल्ली-एनसीआर की कई कालोनियां सरकार की नजरों में अवैध हैं बावजूद इसके धन की लालचों में उनकी उंचाई और संख्या दिनों-दिन बढ़ रही है। बगैर किसी भूकंप के लक्ष्मीनगर में इमारत का ढहना हैरत में डालता है, फर्ज करें अगर दिल्ली-एनसीआर में भूकंप आ जाए ज्यादातर इमारतों को ताश के पत्तों की तरह बिखरने में देर नहीं लगेगा। तब चारों तरफ मौत के बीच जिंदगियां तलाशी जाएगी। क्या सरकार और प्रशासन किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रही है जो कभी भी दिल्ली-एनसीआर पर कहर बनकर टूटेगा। नोएडा, गुडग़ांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद में कंक्रीट के जंगलो का तेजी से विस्तार हो रहा है,लेकिन उनकी बुनियाद कितनी मजबूत है इसकी फिक्र है सरकार को। राजस्व कमाने के चलते आज हर दफ्तरों में नियम-कानून की बखिया उधेड़ी जा रही है और सरकार धृतराष्ट्र की तरह महाविनाश का इंतजार कर रही है। जिला प्राधिकरण आज की तारीख में भू-माफियाओं की गोद में खेल रहा है,जिसे पैसे की अफीम खिलाकर मौत के सौदागर अपना व्यापार बढ़ा रहे है। अब वक्त आ गया है कि दिल्ली-उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकार और अफसर अपनी निद्रा तोड़े और अमृतलाल जैसे गुनाहगारों को अमृत के बदले जहर का घोल पिलाए।