rashtrya ujala

Friday, July 31, 2009

कश्मीर में बिगड़ते हालात

जम्मू-कश्मीर की घटनाओं को एकाकी रूप में नहीं देखा जा सकता। वहां नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के बीच जारी राजनीतिक जंग के अलावा भी बहुत से पहलू हैं। जम्मू-कश्मीर में शासन कभी आसान नहीं रहा। शोपियां मसले पर गत छह माह घाटी में काफी घमासान मचा है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हालात से निपटने के लिए काफी जूझना पड़ा है। पीडीपी प्रमुख विपक्षी पार्टी की भूमिका निभा रही है। सीमा पार के हालात बिल्कुल अलग हैं। मुजफ्फर बेग जैसे वरिष्ठ नेता द्वारा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पर सेक्स स्कैंडल में शामिल होने का आरोप लगाना उचित नहीं ठहराया जा सकता। उमर का परिवार है, छोटे बच्चे हैं और मेरी नजर में उन्होंने सही ढंग से काम किया है। सदन में माइक्रोफोन फेंकने वाली महबूबा मुफ्ती ने बाद में सदन में सीबीआई पत्र भी फाड़ डाला। नासमझी भरा टकराव जारी रहना दु:खद है। हम अमरनाथ यात्रा मुद्दे पर पीडीपी की भूमिका देख चुके हैं। साथ ही घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने के बेहूदा प्रस्तावों के बारे में भी सुन चुके हैं।

इस प्रकार के सभी घटनाक्रम दुर्भाग्यपूर्ण हैं। मुझे नहीं लगता कि नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और भाजपा इस स्थिति में महज मूकदर्शक रह सकते हैं। घाटी में पिछले छह माह काफी भारी रहे हैं। सोपोर, पुलवामा, श्रीनगर में हिंसा और हत्याएं, शोपियां में दुष्कर्म और उपद्रव तथा बारामुला में हिंसा की घटनाएं हुई हैं। उमर अब्दुल्ला ने हालात को काफी हद तक काबू में रखा और हिंसा को बेकाबू होने से रोके रखा। इसी प्रकार हम पाकिस्तान में घटनाक्रम की अनदेखी नहीं कर सकते, जहां तालिबान और उग्रवादी संगठन पाकिस्तानी सेना व खुफिया एजेंसियों में पैठ बना चुके हैं। इस कारण घाटी और देश के अन्य हिस्सों में आतंकी हमलों की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। हमारे सामने गंभीर समस्या है कि पाकिस्तान में सरकार के हाथ में नियंत्रण नहीं रह गया है। बात चाहे मुंबई पर आतंकी हमले की जांच की हो अथवा आईएसआई के आतंकी ढांचे और आत्मघाती हमलावरों की फौज की, हमारे पास अत्यधिक सावधानी से आगे बढ़ते रहने के अलावा सीमित विकल्प ही बचे हैं। साथ ही पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सहयोग लेने का प्रयास करना चाहिए।

वर्तमान हालात में संप्रग और मुख्य विपक्षी दल भाजपा को जम्मू-कश्मीर सरकार को समर्थन देना चाहिए। पिछले एक साल में घाटी में जो दबाव और तनाव रहा है उसे देखते हुए फारुक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के लिए साहस और दृढ़ संकल्प की जरूरत है। जम्मू-कश्मीर में हुए चुनाव में रिकार्ड मतदान और जनादेश को देखते हुए स्पष्ट हो जाता है कि हालात बदल चुके हैं। घाटी और पाक अधिकृत कश्मीर में उग्रवादी तत्व और उनके हमदर्द अलग-थलग पड़ गए हैं। इन उग्रवादी तत्वों के वोट हासिल करने के लिए पीडीपी के प्रयास कामयाब नहीं हुए, किंतु उसके राजनीतिक तेवर और क्रियाकलाप राष्ट्रीय हितों पर आक्रामक हमला बोल रहे हैं। हम पाकिस्तान में उथल-पुथल का कश्मीर पर दुष्प्रभाव पड़ते नहीं देख सकते। जो राजनेता उग्रवादी और विभाजनकारी राजनीति का समर्थन करता है वह राजनीतिक वनवास का अधिकारी है। पाकिस्तान में भयावह हालात से सभी भलीभांति परिचित हैं। इराक और अफगानिस्तान में अव्यवस्था पर भी हमारा ध्यान है। पाकिस्तान से बातचीत में हमें बेहद सावधानी बरतनी चाहिए। लोगों द्वारा बरता गया संयम हमेशा के लिए कायम नहीं रह सकता। हाल ही में पाकिस्तान ने मुंबई हमलों पर भड़काऊ बयान दिए हैं। पाकिस्तानी गृह मंत्री रहमान मलिक के आतंकी सरगना हाफिज सईद के बारे में दिए गए बयान से संकेत मिलता है कि मुंबई हमले के सूत्रधारों को सजा देने के संबंध में पाकिस्तान से अधिक अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए। भारत-पाक संयुक्त बयान पाकिस्तान के रुख पर मुहर लगाता है।

नि:संदेह वर्तमान संकेत उत्साहवर्धक नहीं कहे जा सकते। साझा बयान पर संप्रग और राजग तलवार भांजते नजर आ रहे हैं, लेकिन इसका सही आकलन मुंबई के सूत्रधारों को सजा दिलाने की पाक की वचनबद्धता पूरी होने से होगा। अमेरिका और उसके मित्र देश अफगानिस्तान और इराक में अपनी नीति की सफलता के लिए पाकिस्तान में समस्याओं के हल के लिए उतावले नजर आ रहे हैं। हम इराक और अफगानिस्तान में उलझे और वित्तीय संकट की मार झेल रहे वैश्विक समुदाय से कुछ अपेक्षा नहीं कर सकते। आर्थिक संकट के कारण वहां बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और असंतोष फैला है, जिसका प्रभाव राजनीतिक फैसलों पर भी पड़ रहा है। अतीत में जब भी पाकिस्तान को हथियार मुहैया कराए गए इनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ हुआ है। मीडिया में खबरें आ रही हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन ने अफगानिस्तान और संभवत: पाकिस्तान में तालिबान से बातचीत शुरू कर दी है। हम इसे क्या समझें?

संयुक्त बयान में कुछ गड़बड़ जरूर है। संसद में बहस से कुछ सामने तो आया, किंतु संदेह अब भी बने हुए हैं, क्योंकि पाकिस्तान द्वारा अभिव्यक्त किसी भी विचार की विश्वसनीयता नहीं है। आशा की जानी चाहिए कि अमेरिका की तरफ से पाकिस्तान को मिलने वाली आर्थिक और सैन्य सहायता से भारत के हित प्रभावित नहीं होंगे। अमेरिका से सहायता के बदले पाकिस्तान स्वात घाटी में तालिबान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करेगा और भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों की तरफ से आंखें मूंदे रहेगा। सच्चाई यह है कि वार्ता करने और एक-दूसरे को सूचनाओं का आदान-प्रदान करने भर से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्या इसको प्रगति कहा जा सकता है? मतदान करने वाली जनता ने काफी संयम और धैर्य का प्रदर्शन किया है, किंतु हर चीज की एक सीमा होती है। संयुक्त बयान का आकलन अगले कुछ माह में होने वाली प्रगति पर निर्भर करेगा।

लालफीताशाही में फंसी आयातित दाल

दालों की आसमान छूती कीमतों पर काबू पाने के लिए उनका आयात किया जा रहा है, लेकिन लालफीताशाही के कारण आयातित दाल बाजार में जाने के बजाय बंदरगाह के गोदाम में सड़ रही है। ऐसा ही एक मामला पश्चिम बंगाल के खिदिरपुर बंदरगाह में सामने आया है। यहां विदेशों से आयातित 1.08 टन दाल गोदाम में सिर्फ इसलिए पड़ी हुई है कि उसे बाजार में भेजने के लिए सेंट्रल फूड लैबोरेटरी [सीएफएल] की अनुमति नहीं मिली है।

खिदिरपुर पोर्ट टस्ट्र के उप चेयरमैन ए। मजूमदार ने बताया कि गत 22 जून से पोर्ट के गोदामों से दाल, चीनी समेत विदेशों से आने वाली अन्य खाद्य सामग्री बाहर नहीं निकाली जा सकी है। सीएफएल की अनुमति नहीं मिलने के कारण ऐसा हुआ है। दरअसल, आयातित खाद्य पदार्थ को पोर्ट से तब तक बाहर नहीं भेजा जा सकता, जब तक कि कस्टम विभाग और पोर्ट प्रशासन को सीएफएल से गुणवत्ता जांच रिपोर्ट नहीं मिल जाती।मजूमदार ने बताया कि पिछले 22 जून से सीएफएल में परीक्षण का काम बंद है जिसकी वजह से 1.08 लाख टन दाल और 24 हजार टन चीनी को पोर्ट से बाहर नहीं निकाला जा सका है। सूचना मिली है कि सीएफएल को स्वायतशासी संस्था बना दिया गया है। वहां काम करने वाले कर्मचारी और विशेषज्ञ इसका विरोध कर रहे हैं। अपना विरोध जताने के लिए उनलोगों ने काम बंद कर रखा है।कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के प्रबंधक प्रणब भंट्टाचार्य ने बताया कि विदेशों से आई दाल और चीनी समेत अन्य खाद्य पदार्थो को अब निकाला जा रहा है। कुछ दिक्कत शुरू हुई थी लेकिन अब सीएफएल के अधीन फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड आफ इंडिया नामक एक अलग संस्था का गठन किया गया है जिसके तहत फिलहाल तीन जांच लैब में काम शुरू हुआ है। उन्होंने कहा कि इस मामले में पोर्ट ट्रस्ट की ओर से किसी प्रकार की कोताही अथवा लापरवाही नहीं बरती गई है।

Tuesday, July 28, 2009

अंतरंगता के वे अनमोल पल

भारत में जिन्हें प्रेम का प्रतीक माना जाता आया है वे शायद ही एकपत्नीक और विवाहित रहे हों: मसलन ताजमहल का निर्माण शाहजहां ने अपनी एक पसंदीदा पत्नी की याद में करवाया था, हालांकि उसकी दो और पत्नियां भी थीं; कृष्ण के अलौकिक प्रेम की धुरी उनके चाचा की पत्नी राधा थीं. भारत में अतीत में (और आज भी) प्रचलित विवाह और यौनाचार की विविध प्रणालियों के विपरीत वैवाहिक जीवन में बतौर अपराध परगमन अपेक्षाकृत एक नया प्रयोग है, जिसकी हदें अभी तय होनी हैं.
विवाह से इतर संभोग
आखिर, परगमन को कैसे समझ जाता है? क्या यह विवाह से इतर संभोग है? इस संबंध में चिंताएं अक्सर महिलाओं के यौनाचार की निगरानी के रूप में सामने आती हैं ताकि प्रजनन की उनकी शक्ति को इस तरह साधा जा सके कि होने वाली संतान वंश का ही जैविक अंश हो और फिर उसे बिना किसी हिचक के संपत्ति हस्तांतरित की जा सके. परगमन के खिलाफ कड़े कानून (जैसे पाकिस्तान का हदूद अध्यादेश है जो परगमन को अपराध ठहराते हुए यह मानता है कि बलात्कार की गवाही परगमन की स्वीकारोक्ति के बराबर होती है) इसे पुरुष संपत्ति का उल्लंघन मानते हैं और आर्थिक क्षतिपूर्ति या मृत्युदंड तक का प्रावधान करते हैं.
भावनाओं के साथ विश्वासघात
या फिर, परगमन प्रेम अथवा भावनाओं के साथ विश्वासघात है जिससे वैवाहिक संबंध खतरे में पड़ सकता है? मसलन, फिल्म मि. ऐंड मिसेज अय्यर में मीनाक्षी और राजा अपनी त्रासदियों, भावनाओं और कलात्मक संवेदनशीलता का साझ करते हैं और अंत में एक चुंबन भी-उसके पति के पुनः आगमन के साथ ही एक तरह का अपराधबोध दिखाई देता है कि उनमें प्रेम हो गया है. इसी तरह, हाल ही में आई फिल्म अनुरोनोन इस बात पर केंद्रित है कि क्या सेक्स के बिना भी विवाहेतर संबंध कलंककारी हो सकता है.
'भावात्मक बेवफाई' या 'अफेयर'
2007 के सर्वेक्षण में जब यह पूछा गया कि क्या 'भावात्मक बेवफाई' और 'अफेयर' एक ही चीज हैं, तो 51 फीसदी प्रतिभागियों का जवाब हां में था। इस तरह का जवाब इस तरह के दोहरे भाव की ओर भी संकेत करता है कि वफादारी क्या वैवाहिक संबंध के प्रति है या संपत्ति अथवा बच्चे के प्रति. क्या 2008 के सर्वेक्षण में शामिल 41 फीसदी पुरुष और 8 फीसदी महिलाएं जिन्होंने स्वीकार किया है कि वे परगमन में लिप्त हैं, इसे संभोग के मायने में लेते हैं या सेक्स की व्यापक परिभाषा के अंतर्गत मानते हैं?
यों सदियों से पुरुषों (विशेष रूप से कुलीन पुरुषों) के लिए बहु-विवाह और यौनाचार के लिए एक से अधिक साथी उपलब्ध रहे हैं. दरअसल हम महाकाव्यों के सिर्फ नायकत्व वाले चरित्रों अथवा मौर्य या मुगल सम्राटों (इंदू सुदर्शन की मेहरुन्निसा के बारे में हाल ही में आई किताब में उसे सम्राट जहांगीर की 20वीं पत्नी बताया गया है) के बारे में ही सोचते हैं. विवाह को अक्सर गठबंधन को मजबूत बनाने का माध्यम और नए इलाकों को अपने साम्राज्य में मिलाने का जरिया माना जाता था. 19वीं सदी में बंगाली कुलीन पुरुष पेशेवर पतियों के रूप में सेवाएं देते थे, कई बार तो वे अपनी उच्च जाति से मिली हैसियत और अविवाहित महिलाओं को अपवित्र मानने के भय की आड़ में एक ही समय में सैकड़ों महिलाओं को सेवा देते थे. विवाह से इतर पुरुष की अनेक रखैलें हुआ करती थीं. उच्च जाति के पुरुष निचली जाति की महिलाओं के साथ संबंध बनाते थे और इसके लिए अक्सर वे आनुष्ठानिक मंजूरी भी प्राप्त कर लिया करते थे. ऐसे परिदृश्य में महिलाएं यौन संबंध के मद्देनजर अपनी इच्छा का इजहार नहीं कर सकती थीं.
बहुपति प्रथा
दक्षिण एशियाई विवाह प्रणालियों में कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें महिलाओं के एक से अधिक व्यक्तियों के साथ सेक्स की परंपरा थी. न्याइनबा बहुपति प्रथा इसका एक उदाहरण है जिसमें एक ही घर पर रहने वाले सगे भाई एक ही महिला से (या दो बहनों से) विवाह करते थे. नायर महिलाओं का 'संबंधम विवाह' नृ-शास्त्रियों का एक और पंसदीदा विषय है, जिसमें महिला ऐसे ढेर सारे अतिथि पतियों का चुनाव कर सकती है जो अंतरंग संबंध स्थापित करने के बाद अपने घर लौट जाते हैं. दोनों ही मामलों में जैविक पितृत्व को लेकर कोई ज्यादा चिंता नहीं होती और ऐसे स्पष्ट नियम हैं जिनसे संतान का वंश निर्धारण होता है और समुदाय के भीतर उसे मान्यता मिलती है. न ही परगमन का विचार समान लिंग धारियों के बीच यौन या अन्य तरह की अंतरंगता के महत्व को स्पष्ट करता है.

समलैंगिक संबंधों के बीच परगमन
आंकड़ों की कमी के बावजूद भारत में समलैंगिक प्रेम से संबंधित लंबी साहित्य परंपराओं से ऐसा लगता है कि बहुलिंगी यौन संबंध (और प्रजनन) के अनिवार्य ढांचे ने अन्य प्रभावी या शारीरिक संबंधों को परदे में छिपाए रखा था. क्या समान-लिंग वाले इन संबंधों को परगमन माना जाता था क्योंकि उनसे संतान की 'वैधता' को किसी तरह का खतरा नहीं था? क्या अब विवाहित व्यक्तियों के समलैंगिक संबंधों के मद्देनजर परगमन की नई परिभाषा की जरूरत है जिसकी वजह से वैवाहिक पवित्रता का अतिक्रमण हो रहा है?
हिंदू विवाह अधिनियम
सन्‌ 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम ने एक पत्नीत्व को मूलतः आधुनिकता के अलग तरह के मानक के रूप में स्थापित किया, जिसकी कल्पना उपनिवेशी दौर के बाद के नए विषय के रूप में की गई है. इतिहासकारों की राय है कि सोचने के नए तरीके संभवतः थोड़ा पहले, 19वीं सदी के आखिर और 20वीं सदी के शुरू के आख्यानों में मिलते हैं जिनमें विवाह को एक राष्ट्र के भीतर संगति और साहचर्य के रूप में देखा गया.
मुस्लिम बहुपत्नी प्रथा
अधिनियम बेशक ऐसे कायदों को उन तरीकों के रूप में जाहिर करता है जिनके जरिए वैवाहिक संबंधों में बराबरी की कल्पना की जाती है, लेकिन गैर हिंदू महिलाएं इस कानूनी हैसियत से अलग रह गईं. मुस्लिम बहुपत्नी प्रथा इसके बाद भी वैध बनी रही, जिसमें पहली पत्नियों को हल्का सा संरक्षण प्राप्त होता है और बाद में होने वाले विवाहों में उनकी राय भी सुनी जाती है ( जैसे बांग्लादेश में कानून है). अभी हाल तक ईसाई विवाह कानून के तहत तलाक लेने की इच्छुक महिलाओं को परगमन के साथ ही उपेक्षा या क्रूरता जैसे अतिरिक्त कारण भी साबित करने पड़ते थे
एक पत्नीत्व से जुड़े सांस्कृतिक कायदे कानूनी मानकों की तुलना में ज्यादा उदार हैं. 8 फीसदी महिलाओं और 43 फीसदी पुरुषों ने माना कि वे परगमन को उचित समझते हैं, 8 फीसदी महिलाओं और 41 फीसदी पुरुषों ने स्वीकार किया कि वे परगमन में लिप्त रहे (इनमें से 27 फीसदी और 19 फीसदी क्रमशः ने साथी की अदला-बदली की बात भी मानी). तीन फीसदी विवाहित पुरुषों ने 'किसी रक्त संबंधी के साथ यौन संबंध' की बात मानी, 16 फीसदी विवाहित पुरुषों ने समलैंगिक संबंधों की बात स्वीकारी तो 18 फीसदी विवाहित पुरुषों ने हिजड़ों के साथ यौन संबंध और 21 फीसदी विवाहित पुरुषों ने वेश्याओं के पास जाने की बात मानी (इनमें से 54 फीसदी ने इसके लिए हर बार या कभी कभी पैसे भी दिए). इनसे संबंधित विवाहित महिलाओं के आंकड़े क्रमशः 1 फीसदी, 6 फीसदी, 6 फीसदी और 2 फीसदी ( 51 फीसदी) हैं. हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि क्या संबंधियों से यौन संबंध, समलैंगिक संबंध या पैसे देकर स्थापित किए गए यौन संबंध वैवाहिक जीवन के दौरान स्थापित होने की वजह से परगमन की श्रेणी में आते हैं.
यौन अभिव्यक्ति का तरीका
वैसे, सर्वेक्षण के ये आंकड़े परगमन के बढ़ते रुझन की ओर इशारा नहीं कर रहे हैं. संभव है उनसे संकेत मिलता हो कि सिर्फ वैवाहिक अंतरंगता यौन अभिव्यक्ति का एकमात्र तरीका न तो पहले थी और न अब है. मुझे सर्वेक्षण के आंकड़े तकरीबन उसी समय मिले थे जब मैंने आनंद बाजार पत्रिका में जीवन शैली से संबंधित एक लेख पढ़ा था जिसमें उस तिकड़ी के बारे में जानकारी दी गई थी जिन्होंने विवाह की एक इकाई के रूप में रहना मंजूर किया थाः दो बहनों ने एक ही पुरुष के साथ विवाह करना मंजूर किया (जिनमें से एक ने कानूनी तरीके से विवाह किया) क्योंकि वह यौनाचार, बच्चे पैदा करने और घरेलू व्यवस्थाओं के लिए सुविधाजनक था.
यौन स्वच्छंदता
इसके कुछ दिन बाद इसी अखबार ने एड्स से प्रभावित एक महिला को उसके ससुरालवालों द्वारा घर से बाहर निकाल दिए जाने से संबंधित खबर छापी. पर इस महिला ने एड्स से प्रभावित पति की देखरेख करने का फैसला किया, हालांकि एड्स का मूल उसके पति में था. इस महिला को यौन रूप से स्वच्छंद और प्रदूषित करार दिया गया. इस तरह की रोजमर्रा कहानियों के जरिए हमारा ध्यान सामाजिक जीवन में छायी बहुपत्नीक प्रवृत्तियों और यौन विविधताओं की ओर जाता है. और हां, जैसा कि एड्स से संबंधित खबरें दर्शा रही हैं, यौन रूप से संवंर्धित संबंध महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं और संभवतः उन्हें ही आर्थिक बोझ् और यौन विविधता के सामाजिक दंश झेलने पड़ते हैं भले ही यह उनकी पसंद हो या न हो.
विवाह बना महिलाओं के लिए आर्थिक सुरक्षा
पिछले कुछ वर्षों के दौरान कोलकाता में पारिवारिक अदालतों और घरेलू हिंसा से संबंधित मेरा शोध मेरी इस धारणा की ही पुष्टि करता है कि उपनिवेशी दौर के बाद के राज्य में विवाह मूल रूप से आर्थिक इकाई का गठन है. अधिकांश मामलों का संबंध सर्वेक्षण में प्रदर्शित किए गए विषयों के अपेक्षाकृत निचले सामाजिक-आर्थिक वर्ग से संबंधित है और विवाह से मिलने वाली आर्थिक सुरक्षा ही आम तौर पर किसी महिला के जीवन-यापन का एकमात्र साधन है.
पत्‍नी चाहती है प्रेम की शर्त
आर्थिक चिंताओं में शहरी आवासीय जगह को सुलभ कराने की क्षमता, विस्तारित परिवार में संसाधनों व अधिकारों की साझेदारी, पत्नी के परिवार की वित्तीय जिम्मेदारियां और पत्नी की सीमित आय शामिल हैं. वैवाहिक निष्ठा इस बंधन की शर्त हैः पत्नियों पर विवाह-पूर्व संबंधों या फिर मौजूदा संबंधों के आधार पर आरोप लगाए जाने के साथ ही (जैसे फ्लेविया एगेंस ने इंडिया टुडे 2007 के सर्वे से संबंधित आलेख में लिखा है) उन पर संयुक्त परिवार में उचित व्यवहार नहीं करने, घरेलू रूप से नाकाबिल होने या फिर उनके आय के अज्ञात स्त्रोत होने के आरोप आम हैं. पत्नियां अक्सर आरोप लगाती हैं कि पति यौन या भावात्मक संबंधों में (परिवार के सदस्यों या पड़ोसियों के साथ) लिप्त हैं लेकिन वे वैवाहिक जीवन में जगह देने के साथ उसे सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रेम की शर्त रखती हैं.
भटके कदम:20वीं सदी में वैवाहिक कायदों ने भले ही विवाहित जोडे़ को इस कदर आदर्श बना दिया कि वे यौन संबंध, प्यार और अंतरंगता के मामले में एक-दूसरे के एकमात्र सहचर हैं, लेकिन न तो विवाह और न ही यौन व्यवहार एक पत्नीत्व के अनुरूप रहे हैं.
वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि अलग-अलग रंगों के खाद्य पदार्थ आपके शरीर के अलग-अलग हिस्सों को फायदा पहुँचाते हैं! आइए देखें कौन-सा रंग शरीर के किस अंग का मित्र है :
सफे:आलू, लहसुन, सफेद मशरूम आदि आपके फेफड़ों के लिए फायदेमंद होते हैं।
नारंगी :प्लीहा की सलामती के लिए नारंगी रंग की चीजें खाना फायदेमंद होता है। संतरों में विटामिन-सी तो होता ही है, कुछ मात्रा में विटामिन-ए भी होता है, जो प्लीहा के लिए अच्छा होता है।

हरा :हरे फल-सब्जियों में लूटीन व इंडोल नामक फायटोकेमिकल्स होते हैं, जो लीवर की रक्षा करते हैं। अतः हरे रंग की चीजें खूब खाएँ।

जामुनी :यदि आप अपने मस्तिष्क की सलामती चाहते हैं तो जामुनी फल-सब्जियों को अपने आहार में शामिल करें। इनमें अंगूर, प्याज, जामुनी रंग की पत्तागोभी, बैंगन आदि शामिल हैं।
काला :यूँ काला रंग लोगों को कम ही पसंद होता है, खास तौर पर खाने-पीने के मामले में, लेकिन यकीन मानिए, काले रंग का आहार आपके गुर्दों के लिए बहुत लाभकारी होता है। अतः मुनक्का, काली चौला फली, काले जैतून आदि खाया करें।

लाल:यदि आप दिल की रक्षा करना चाहते हैं तो लाल रंग की चीजें खाइए। लाल (तथा गुलाबी) रंग के फल-सब्जी में फायटोकेमिकल्स पाए जाते हैं। तरबूज, अमरूद, टमाटर आदि इस श्रेणी में आते हैं। स्ट्रॉबेरी, रसबेरी तथा बीटरूट में एंथोसायनिन पाए जाते हैं। यह फायटोकेमिकल्स का ही एक समूह है, जो उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करता है और डायबिटीज से जुड़ी समस्याओं से बचाव करता है।

चने के शक्तिशाली गुण

हरे चने
चने का नाश्ता : नाश्ते के लिए एक मुठ्ठी काले देशी चने पानी में डालकर रख दें। सुबह इन्हें कच्चे या उबालकर या तवे पर थोड़ा भुनकर मसाला मिलाकर, खूब चबा-चबाकर खाएँ। चने के साथ किशमिश खा सकते हैं, कोई मौसमी फल खा सकते हैं। केला खाएँ तो केले को पानी से धोकर छिलकासहित गोलाकार टुकड़े काट लें और छिलका सहित चबा-चबाकर खाएँ। नाश्ते में अन्य कोई चीज न लें।
भोजन में चना : रोटी के आटे में चोकर मिला हुआ हो और सब्जी या दाल में चने की चुनी यानी चने का छिलका मिला हुआ हो तो यह आहार बहुत सुपाच्य और पौष्टिक हो जाता है। चोकर और चने में सब प्रकार के पोषक तत्व होते हैं। चना गैस नहीं करता, शरीर में विषाक्त वायु हो तो अपान वायु के रूप में बाहर निकाल देता है। इससे पेट साफ और हलका रहेगा, पाचन शक्ति प्रबल बनी रहेगी, खाया-पिया अंग लगेगा, जिससे शरीर चुस्त-दुरुस्त और शक्तिशाली बना रहेगा। मोटापा, कमजोरी, गैस, मधुमेह, हृदय रोग, बवासीर, भगन्दर आदि रोग नहीं होंगे।

काबुली चना


* चने के आटे का उबटन शरीर पर लगाकर स्नान करने से खुजली रोग नष्ट होता है और त्वचा उजली होती है। यदि पूरा परिवार चने का नियम पूर्वक सेवन करे तो घोड़े की तरह शक्तिशाली, फुर्तीला, सुन्दर और परिश्रमी बना रह सकता है।
गेहूँ- चना-जौ : गेहूँ, चना और जौ तीनों समान वजन में जैसे तीनों 2-2 किलो लेकर मिला लें और मोटा पिसवा कर, छाने बिना, छिलका चोकरसहित आटे की रोटी खाना शुरू कर दें। इसे बेजड़ या मिक्सी रोटी कहते हैं। चने को गरीब का भोजन भी कहा जाता है, लेकिन इसकी ताकत को हम अनदेखा कर देते हैं। चना सस्ता भी है और सरल सुलभ भी, इसलिए हमें पथ्य यानी सेवन करने योग्य आहार के रूप में चने का सेवन करके स्वास्थ्य लाभ अवश्य प्राप्त करना चाहिए।

Monday, July 27, 2009

बसता है वन्य जीवों का मोहक संसार

निर्मेश त्यागी
देहरादून
प्रकृति को करीब से जानना हो तो सोनानदी वन्य जीव विहार से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है। उत्तराखंड में कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तरी छोर पर स्थित इस अभ्यारण्य का जैव विविधता के मामले में कोई सानी नहीं है। इसका सघन वन क्षेत्र और वन्य जीवों का मोहक संसार प्रकृति प्रेमियों को अपनी ओर खींचता है।एशियाई हाथियों के संरक्षण में तो अभ्यारण्य की अहम भूमिका है। पक्षी विविधता के मामले में भी यह धनी है। परिंदों की करीब छह सौ प्रजातियां व उपजातियां यहां चिह्नित की गई हैं।

कालागढ़ टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आने वाले सोनानदी अभ्यारण्य की जैव विविधता प्रकृति की अमूल्य धरोहर है। जिम कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तरी छोर पर पौड़ी जनपद की कोटद्वार तहसील में 301.76 वर्ग किमी में फैला सोनानदी अभ्यारण्य वर्ष 1987 में अस्तित्व में आया। एशियाई हाथियों के झुंड बरसात में इसी क्षेत्र में रहना पसंद करते हैं। राजाजी नेशनल पार्क के हाथी भी यहां पहुंचते हैं। एशियाई हाथी के संरक्षण में अभ्यारण्य की भूमिका कम नहीं है। वर्षाकाल और सर्दियों में तो यहां हाथियों की भरमार रहती है। इसके अलावा टाइगर समेत वे सभी वन्य जीव यहां मिलते हैं, जो कार्बेट और राजाजी में पाए जाते हैं।सघन वनों से आच्छादित इस अभ्यारण्य की सोनानदी, पलैन व मंदाल मुख्य नदियां हैं। इनके किनारों पर प्यास बुझाते और अठखेलियां करते वन्य जीव आसानी से देखे जा सकते हैं। पक्षी विविधता के मामले में तो इसका कोई सानी नहीं है। तुनू व हल्दूपड़ाव क्षेत्र तो प्रवासी पक्षियों की प्रमुख सैरगाह हैं। देहरादून से करीब दो सौ किमी दूर सोनानदी अभ्यारण्य जाने के लिए कोटद्वार से 52 किमी दूर वतनवासा में प्रवेशद्वार है। इसके अलावा रामनगर से भी अभ्यारण्य पहुंचा जा सकता है। हल्दूपड़ाव, सेंधीखाल, रथुवाढाब, कांडा, मुंडियापानी, लोहाचौड़ में पर्यटकों के लिए विश्रामगृह हैं। अभ्यारण्य 15 जून से 15 नवंबर तक पर्यटकों के लिए खुला रहता है।

करीब से होता है वन्य जीवन का दीदार

सोनानदी अभ्यारण्य का हल्दूपड़ाव जोन पर्यटन की दृष्टि से बेहद उपयुक्त है। इस जोन में डे-विजिट की सुविधा के लिए करीब 50 किमी सड़क है। आवास के लिए हल्दूपड़ाव वन विश्रामगृह है। इस जोन में बहने वाली पलैन नदी के लंबे-चौड़े चौड़ में तो वन्य जीव आसानी से देखे जा सकते हैं। मंदाल्टी चौड़ में भी वन्य जीवों का जमघट रहता है। यही नहीं, कांडीखाल से रामगंगा और सोनानदी का खूबसूरत नजारा देखते ही बनता है।सोनानदी अभ्यारण्य में पर्यटकों को सुविधाएं मुहैया कराने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। रेस्ट हाउसों में डॉरमैट्री निर्माण के प्रस्ताव उच्चाधिकारियों को भेज जाएंगे। साथ ही अभ्यारण्य में जाने वाले वन मार्गाें को भी दुरूस्त किया जाएगा। ईको टूरिज्म को बढ़ावा दिया जाएगा, ताकि स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिल सके। इसके अलावा जगह-जगह हट आदि के लिए भी लोगों को प्रोत्साहित किया जाएगा।

किले में कैद बीस हजार की आबादी

निर्मेश त्यागी
देहरादून
। यह तस्वीर है देहरादून और टिहरी जिलों के सीमात गावों की। अंदाजा लगाया जा सकता है कि 21वीं सदी में क्षेत्र के लोग कहा हैं। ये गाव राज्य और केंद्र सरकारों की उन कल्याणकारी योजनाओं को भी आईना दिखाते हैं, जिनमें आम जन को सुविधाएं मुहैया कराने का सपना दिखाया जाता है।आज भले ही प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में गावों को विकास की पहली सीढ़ी सड़क से जोड़ने की बात कही जा रही हो, मगर टिहरी व देहरादून जिलों की सीमात रंगड़गाव, कोटी, सेरा, कुंड, पसनी, लडवाकोट, हल्द्वाड़ी ग्रामसभाओं की करीब 20 हजार की आबादी अछूती है। जंगल और सौंग नदी समेत कई बरसाती नालों से घिरी इन ग्रामसभाओं के दर्जनों गाव बरसात में राज्य के अन्य हिस्सों से कट जाते हैं।

इन गावों तक पहुंचने को पहले देहरादून से 11 किमी दूर मालदेवता से सौंग नदी के किनारे-किनारे पैदल रास्ता था, जिसे स्थानीय ग्रामीण श्रमदान से किसी तरह ठीक कर सड़क के तौर पर इस्तेमाल में लाते हैं। इससे उन्हें जोखिमभरे 14 किमी मार्ग पर जीपों से आवाजाही की सुविधा मिलने लगी, लेकिन बरसात में इस सुविधा को सौंग नदी अपने आगोश में ले लेती है।इस मर्तबा भी 18 जुलाई को भारी वर्षा के बाद सौंग नदी की बाढ़ ने इन ग्रामसभाओं के 35-40 गावों को जोड़ने वाला मार्ग ध्वस्त कर डाला और करीब यह मार्ग सात किमी तक बह गया। जो थोड़ा-बहुत रास्ता बचा है, वहा से गुजरना खासा जोखिमभरा है।रंगड़गाव पहुंचे इस संवाददाता को ग्रामीणों ने आपबीती सुनाते हुए बताया कि वर्षाकाल तो उनके लिए कालापानी के समान है। सौंग के ऊफान पर रहने से कहीं पैदल भी नहीं जा सकते। इसे देखते हुए ग्रामीण जून में ही चार माह राशन स्टाक कर लेते हैं। बीमारी या जरूरी होने पर बाहर जाने को कई-कई किमी की दूरी पैदल नापनी पड़ती है।रंगड़गाव के प्रधान भरत सिंह के अनुसार पंचायत प्रतिनिधि और ग्रामीण लंबे समय से एक अदद सड़क की माग कर रहे हैं, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हो रही। बीते लोस चुनाव में ग्रामीणों ने चुनाव बहिष्कार की चेतावनी तक दी। तब मौके पर पहुंचे मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कार्यवाही का भरोसा दिलाया, पर चुनाव बाद बात आई-गई हो गई।उन्होंने कहा कि सड़क बन जाए तो क्षेत्र की तरक्की के द्वार खुद ही खुल जाएंगे। मातबर सिंह, खेम सिंह आदि ग्रामीणों की भी यही राय थी। उन्होंने कहा कि अब क्षेत्रीय विधायक खजानदास सरकार में मंत्री हैं, लिहाजा उनके समक्ष समस्या रखी जाएगी।

Friday, July 24, 2009

ड्राइवर चलती कार में सो सकेंगे

फिल्मों में नायक को आपने कार में ब्रश करते, कपड़े बदलते देखा होगा लेकिन क्या आपने वास्तविक जीवन में ऐसी कार के बारे में कल्पना की है जिसका ड्राइवर तेज रफ्तार वाली गाड़ी में खा भी सके, पढ़े भी, टीवी भी देख सके और सो भी जाए। नहीं न लेकिन यह सच हो सकता है। जी हाँ ऐसी संभावना है कि आप कुछ दिनों में ऐसी कार को अपने सामने हकीकत में देखेंगे। और अगर आपको कार चलाना पसंद नहीं या आप ड्राइवर नहीं रखना चाहते तो भी यह आपके लिए खुशखबरी है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने एक लेजर से चलने वाली कार बनाने में सफलता पाई है। इसमें सेंसर और ताररहित तकनीक के जरिए कारों को लॉक कर दिया जाएगा। वैज्ञानिकों ने एक बार में दस कारों के काफिले को चलाने की क्षमता का भी दावा किया है। वैज्ञानिकों ने बताया कि सेंसर के माध्यम से सभी कारें एक दूसरे से जुड़ी रहेंगी। सिर्फ सबसे आगे की कार के पेशेवर ड्राइवर को ब्रेक और स्टीयरिंग को संभालना पड़ेगा बाकी सभी कारें अपने आप सेंसर के माध्यम से चलेंगी। यह बिल्कुल किसी बस या रेलगाड़ी में बैठने जैसा होगा कि आप बैठे हैं और यात्रा चल रही है। इस तकनीक में सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि इस काफिले से जब भी आपको निकलना होगा आप निकल सकते हैं और अपनी मंजिल पर आराम से पहुँच सकते हैं। वोल्वो कार के सुरक्षा अध्ययनकर्ता जोनास एक्मार्क ने डेली मेल को बताया सबसे आगे की कार का पेशेवर ड्राइवर अपने पीछे चल रहीं कारों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार होगा लेकिन काफिले में शामिल हो रही कार को थोड़ा सा जोखिम मोल लेना होगा जैसे कोई चलती बस में दौड़कर चढ़ लेता है।
वोल्वो विशेषज्ञों को अपेक्षा है कि कारों के काफिले में सभी कारों के बीच में करीब तीन फुट की दूरी होगी। किसी नई कार को इस काफिले में शामिल होने के लिए पीछे से आकर अपनी कार को अपने आगे वाली कार की स्टीयरिंग और ब्रेक पैटर्न से जोड़ना होगा। वैज्ञानिकों ने बताया कि जब किसी कार के ड्राइवर को काफिले को छोड़ना होगा तो यह नई तकनीक उसकी कार को जरूरत की स्लिप रोड में ले जाएगी। अगर कोई कार अपने से धीरे चल रही कार से आगे भी जाना चाहेगी तो वह ऐसा कर सकेगी। गौरतलब है कि वोल्वो के अलावा ब्रिटेन की रिकार्डो यूके समेत छह अन्य कंपनियाँ इस परियोजना पर काम कर रहीं हैं। वैज्ञानिकों को अपेक्षा है कि इस परियोजना का परीक्षण स्वीडन के गुटनबर्ग में 2010 के अंत तक कर लिया जाएगा और इसका नमूना 2011 में आ सकता है। इस तकनीक का यूरोप देशों में 2018 तक आने की संभावना है।

Wednesday, July 22, 2009

चांद पर पहुँचने के 40 साल

चालीस साल पहले चंद्रमा पर उतरनेवाले दो अंतरिक्ष यात्रियों ने मंगल पर अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने के प्रयास तेज़ करने को कहा है.ओपोलो अभियान में हिस्सा लेने वाले अंतरिक्ष यात्री एडविन बज़ एलड्रिन और माइकल कॉलिंस ने कहा कि मंगल को लेकर अब अभियान चलाने की ज़रूरत है.
इस मौक़े पर चंद्रमा पर सबसे पहले उतरने वाले अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा कि शुरूआत में चांद को लेकर अमरीका और पूर्व सोवियत संघ में प्रतिस्पर्धा थी लेकिन अब दोनों देश एकदूसरे को सहयोग देने लगे हैं.
उल्लेखनीय है कि ठीक 40 साल पहले 20 जुलाई, 1969 को मानव ने चंद्रमा की सतह पर पहला क़दम रखा था.
लेकिन 1972 के बाद चांद अभियान को समाप्त कर दिया गया. नासा 2010 में शटल यानों को सेवा से हटा रहा है.
कुछ दिनों पहले अमरीका ने एक बार फिर चांद पर अभियान भेजने पर सहमति जताई थी लेकिन आर्थिक मंदी को देखते हुए लगता है कि ये एक बार फिर टल सकता है.ग़ौरतलब है कि अपोलो-11 में बैठकर तीन अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और मिशेल कॉलिंस इस अभियान पर निकले थे.आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन चांद पर उतरे जबकि कॉलिंस यान में रहे थे.अंतरिक्ष में तीनों ने अपनी-अपनी नज़र से चांद और धरती को देखा. अभियान से वापसी के बाद उन्होंने जो कहा, वह अब इतिहास का हिस्सा है.

लाखों ने देखा सूर्यग्रहण


भारत में बुधवार की सुबह कई इलाकों में पूर्ण या फिर आंशिक सूर्य ग्रहण देखा गया. भारतीय समयानुसार सूर्यग्रहण लगभग छह बज कर 25 मिनट पर शुरू हुआ. आकलन बताते हैं कि इतना लंबा सूर्यग्रहण दोबारा 123 साल बाद होगा.भारत में जहाँ बादलों और बारिश के कारण कई प्रमुख स्थानों पर सूर्यग्रहण को साफ़ नहीं देखा जा सका वहीं चीन और जापान के कुछ इलाकों से इसे साफ़ और पूरा देख पाने की ख़बरें आई हैं.भारत में आगरा, इलाहाबाद, कुरुक्षेत्र, वाराणसी, पूर्णिया, गुवाहाटी आदि शहरों से लोगों के सूर्यग्रहण को देखे जाने की ख़बरें मिली हैं.

तारेगना में बादल

भारत में इसे देखने के लिए सबसे बेहतर जगह बताई गई थी पटना के पास का तरेगना गाँव जहाँ यह ग्रहण तीन मिनट 48 सेकेंड के लिए नज़र आना था पर तारेगना में मौजूद लोगो ने बताया कि तारेगना में पूरब दिशा में घने बादल छाए रहे.पूर्ण सूर्यग्रहण के वक़्त लोगों ने चारों ओर अंधेरा होने पर माना कि पूर्ण सूर्यग्रहण हो गया है पर ऐसा होते हुए देखा नहीं जा सका.बिहार के कई इलाकों से इस सूर्यग्रहण को साफ़ साफ़ देखा जाना था पर पटना सहित कई इलाकों में या तो बारिश होती रही या फिर घने बादल छाए रहे. हालांकि असम राज्य और बनारस सहित कुछ शहरों में इसे देखा जा सका.तारेगना में मौजूद हज़ारों लोगों के चेहरों पर मायूसी छाई रही और हज़ारों लोगों का जुटा मेला सूर्य ग्रहण नहीं देख सका.एक स्थानीय अस्पताल की छत पर बनाए गए ऑब्ज़र्वेशन सेंटर पर 400-500 की तादाद में पत्रकार और वैज्ञानिक मौजूद रहे. 50 से ज़्यादा विदेशी वैज्ञानिक और पत्रकार भी पहुंचे पर बादलों ने उनके प्रयासों पर पानी फेर दिया है.बनारस, इलाहाबाद, कुरुक्षेत्र में हज़ारों की तादाद में लोग घाटों पर इकट्ठा होकर ग्रहण देख रहे हैं. बताया जा रहा है कि ग्रहण समाप्त होते ही हज़ारों की तादाद में लोग गंगा स्नान करेंगे।सूर्यग्रहण जहाँ वैज्ञानिकों, अंतरिक्ष अध्ययन केंद्रों, खगोलशास्त्रियों, शिक्षण संस्थानों और विद्यार्थियों के लिए अध्ययन और कौतुहल, आकर्षण का विषय है वहीं पारंपरिक मान्यताओं और पूजा पद्धतियों के चश्मे से भी समाज का एक बड़ा हिस्सा इसे देख रहा है.जहाँ एक ओर लोग सूर्यग्रहण को देखने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों और विधियों का सहारा ले रहे हैं वहीं एक बड़ी तादाद पूजा, स्नान, दान आदि में भी लगी है.सूर्यग्रहण को देखते हुए देश-विदेश के सौ से अधिक अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का जमावड़ा पटना और तारेगना में लगा. इन वैज्ञानिकों के दल में नासा के अंतरिक्ष वैज्ञानिक भी शामिल हैं.ये वैज्ञानिक इस बात से उत्साहित थे कि तारेगना सूर्यग्रहण के 'सेंट्रल लाइन' पर स्थित है ऐसे में यहाँ से ग्रहण को साफ़ और अधिक समय तक देखने-परखने में आसानी होगी.बिहार सरकार का साइंस एंड टेक्नॉलॉजी विभाग पटना में वैज्ञानिकों को हर संभंव सहयोग देने में जुटे थे.पर सुबह ग्रहण की शुरुआत अच्छी नहीं रही है और पूरब की ओर टकटकी बांधे देख रहीं हज़ारों जोड़ी आंखों के आगे बादलों का घना पर्दा छाया रहा। उत्साह में तारेगना की ओर बढ़े हज़ारों लोगों के लिए यह सूर्यग्रहण निराशाजनक ही रहा क्योंकि बादलों की मौजूदगी में इसे स्पष्ट नहीं देखा जा सका.

राजधानी पटना में बारिश के कारण लोग सूर्यग्रहण को नहीं देख सके.

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पटना से लेकर तारेगाना के ऑब्ज़्रवेशन सेंटर तक टेलीस्कोप और अन्य खगोलीय उपकरण लगाए गए हैं

21वीं सदी के इस अंतिम पूर्ण सूर्यग्रहण के बाद अब वर्ष 2114 में ऐसा मौक़ा आएगा. इसका मतलब ये हुआ कि पृथ्वी पर जीवित लोगों में शायद ही कोई इतना दीर्घ जीवी होगा जिन्हे दोबारा ऐसा पूर्ण सूर्यग्रहण देखने का मौक़ा मिल सकेगा.अंतरिक्ष अनुसंधान के अमरीकी संगठन नासा ने ग्रहण से पहले ही लोगों को सलाह दी थी कि ग्रहण देखने का सबसे सस्ता और सुरक्षित तरीका इसे सीधे देखने की बज़ाए इसका प्रतिबिंब देखना है. सीधे देखने के लिए स्पेशल फिल्टर का इस्तेमाल करना ज़रूरी है ताकि सूरज की हानिकारक किरणों के प्रभाव से बचा जा सके.जयपुर में सुर्यग्रहण को लेकर मिले-जुले भाव हैं. मंदिरों में भीड़ है, लोग पूजा और दान-पुन्य में लगे हुए हैं. ग्रहण को देखते हुए स्कूलों को आठ बजे के बाद खोलने के निर्देश हैं.उन्होंने यह भी बताया कि मान्यताओं के मद्देनज़र जिन लोगों के बच्चों का आज जन्म होना था उनमें से बहुत से लोगों ने रात ही में ऑपरेशन के ज़रिए बच्चे का जन्म करवा लिया है.मध्यप्रदेश और पंजाब से भी कई स्कूलों के समय में तब्दीली की ख़बरें हैं. दिल्ली में आंशिक रूप से ही सूर्यग्रहण का असर देखा गया. आसमान कुछ लालिमा लिए देखा गया. सूर्यग्रहण के मद्देनज़र कई छायाकारों और वैज्ञानिकों ने राजधानी के बजाए ग्रहण पथ में पड़नेवाले शहरों को अपने अध्ययन का केंद्र बनाया.

Saturday, July 18, 2009

डायनासोर का सबसे प्राचीन बिल


डायनासोर का दुनिया का सबसे प्राचीन बिल ऑस्ट्रेलिया में मिला है। अभी तक दुनिया में कुल मिला कर ऐसे तीन विभिन्न बिल पाए गए हैं। इसमें से सबसे बड़ा बिल दो मीटर लंबा है और तीनों एक ही प्रकार के हैं जिनमें एक छोटी प्रजाति का डायनासोर आसानी से समा सकता है।
ये दस करोड़ साठ लाख साल पुराना बिल उत्तरी अमेरिका से बाहर पाया जाने वाला पहला बिल है। इसके बारे में कहा जाता है कि अपने निर्माण के समय ये दक्षिणी ध्रुव से काफी करीब रहा होगा। इससे इस धारणा की पुष्टि होती है कि कठिन और ठंडे मौसम से बचने के लिए ये अपने आप को इन्ही बिलों में भूमिगत कर लेते थे। डायनासोर के एक मात्र बिल की खोज 2005 में अमेरिका के मोन्टाना में हुई थी।
आश्चर्जनक : मोन्टाना की खोज के बारे में दो साल बाद कहा गया कि ये नौ करोड़ पचास लाख साल पुराना है। इसमें डायनासोर की एक नई छोटी प्रजाति के एक व्यस्क और दो शिशु डायनासोर की हड्डियों के अवशेष मिले हैं। मोन्टाना के इस पुराने बिल से भी प्राचीन बिल की खोज मोन्टाना में बिल की खोज करने वाले शोधकर्ताओं में से एक एंथनी मार्टिन ने की है। अमेरिकी राज्य जॉर्जिया के अटलांटा में एमोरी विश्वविद्यालय के एंथनी मार्टिन ने कहा कि मई 2006 में हमने कुछ ग्रेजुएशन के छात्रों को डायनासोर के रास्तों की तलाश के लिए लिया। हम लोगों ने डायनासोर के कुछ रास्ते भी ढ़ूँढ़े, लेकिन इसी दौरान हमें कुछ अजीबो-गरीब ढाँचे मिले। मार्टिन उस स्थान पर दोबारा जुलाई 2007 में आए और फिर इस साल मई में आए। ये स्थान मेलबोर्न में विक्टोरिया से 240 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और इसे नॉलेज क्रीक के नाम से जाना जाता है। वह उसे देख कर हैरत में पड़ गए। मार्टिन बताते हैं कि हम डायनासोर के रास्ते की जाँच कर रहे थे। हमने जिस प्रकार का ढाँचा मोन्टाना में देखा था उसे यहाँ देख कर आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने कहा कि यह अजीब ढाँचा डायनासोर का बिल निकला।

Thursday, July 16, 2009

उपवास के पकवान

कुरकुरी अरबी



सामग्री : 5 से 6 उबली और कटी हुई अरबी, आधा चम्‍मच मि‍र्च पावडर, आधा चम्‍मच अमचूर, 2 या 3 हरी मि‍र्च, स्‍वाद अनुसार नमक, 3 चम्‍मच तेल, 1 चम्‍मच जीरा।
वि‍धि ‍: तेल गरम करें और उसमें जीरा, हरी मि‍र्च और लाल मि‍र्च डालकर भूनें। अब इसमें अरबी डालें और फ्राय करें। आधा पक जाने पर इसमें नमक और अमचूर डालें और कुरकुरा होने तक पकने दें।


स्पंजी दही बड़े


सामग्री :मोरधन-साबूदाना 200 ग्राम, मूँगफली दाना 100 ग्राम, सेंधा नमक-दही- शक्कर- अदरक (अंदाज से), जीरा चुटकीभर, हरा धनिया 50 ग्राम, घी तलने के लिए।
विधि : मोरधन-साबूदाना को दो घंटे भिगोकर मिक्सर में पीसें। दाने भी सेंककर पीसें। सबको मिलाकर नमक डालें और गाढ़ा मिश्रण तैयार करें। कड़ाही में घी गर्म करें व मिश्रण से बड़े बनाकर तलें और गुनगुने पानी में डालती जाएँ। थोड़ी देर में पानी से बड़े निकालकर हाथ से दबाएँ। दही-अदरक (पीसा) शक्कर-नमक को घोलें और उसमें बड़े डालकर जीरा-धनिया बुरककर स्पंजी दही बड़े सर्व करें।
फरियाली कोफ्ते


सामग्री : 1 चम्‍मच कद्दूकस अदरक, 1 चम्‍मच बारीक कटी हरी मि‍र्च, 1 चम्‍मच जीरा, 6 कच्‍चे केले, स्‍वाद अनुसार नमक, 250 ग्राम दही, आधा चम्‍मच लाल मि‍र्च पावडर, 3 से 4 लौंग, 50 मि‍ली पानी, 2 चम्‍मच तेल, हरा धनि‍या।
वि‍धि‍ : केलों को उबालकर पका लें और मसलकर रख लें। इसमें आधी हरी मि‍र्च, आधा जीरा, आधा अदरक और नमक मि‍ला दें। अब इसके बॉल्‍स बनाकर तल लें। तेल में लौंग और जीरे का तड़का लगाएँ। फि‍र उसमें दही, बाकी बची हरी मि‍र्च, लाल मि‍र्च, अदरक और नमक डाल दें। थोड़ा-सा पानी डालकर उसे उबालें। अब इसमें तले हुए बॉल्‍स डाल दें। हरा धनि‍या से सजाकर गरम-गरम परोसें।
जीरा आलू


सामग्री :3 आलू, 2 हरी मि‍र्च, 1 चम्‍मच हरा धनि‍या, आधे नींबू का रस, 1 चम्‍मच जीरा, स्‍वाद अनुसार नमक, 2 चम्‍मच तेल।
वि‍धि ‍: आलू को उबालकर काट लें। हरी मि‍र्च को बारीक काट लें। तेल गरम करें और उसमें जीरा डालें।
अब इसमें आलू और मि‍र्च डाल दें। 5 मि‍नट तक हि‍लाएँ और नींबू का रस, थोड़ा हरा धनि‍या व नमक डालें। बाकी बचे धनिए से सजाकर गरम परोसें।
सूखी चटनी


सामग्री :2 कप कद्दूकस कि‍या नारि‍यल, 10 लाल मि‍र्च, 1 चम्‍मच जीरा, स्‍वाद अनुसार नमक, 50 ग्राम मूँगफली।
वि‍धि ‍: सर्वप्रथम मूँगफली दाने सेंककर छिलके अगल कर लें। अब दाने, लाल मि‍र्च और जीरा एक साथ पीसकर पावडर बना लें। इसमें नारि‍यल और नमक मि‍ला लें। इसे उपवास में चटनी की तरह उपयोग करें।
फरियाली चीज बॉल


सामग्री : आधा कप मक्खन, डेढ़ कप सिंगाड़े का आटा, 225 ग्राम पनीर, 1 चम्‍मच नमक, 1 चुटकी लाल मि‍र्च, आधा चम्‍मच जीरा पावडर और हरी मि‍र्च, तेल।
वि‍धि ‍: एक बाउल में मक्खन और सिंगाड़े का आटा मि‍ला लें। इसमें पनीर, नमक, लाल मि‍र्च, जीरा और हरी मि‍र्च का पेस्‍ट मि‍लाकर गूँध लें। अब इसके छोटे-छोटे बॉल्‍स बनाएँ। एक कड़ाही में तेल गरम करके बॉल्स को हल्‍का ब्राउन होने तक तल लें। फरियाली चटनी के साथ गरम-गरम परोसें।
मखाने की खीर
Drayfruts Mkhana


सामग्री : 1 लीटर मलाई वाला दूध, 2 चम्‍मच घी, 50 ग्राम मखाने, 1 कप शक्‍कर, 4 छोटी इलायची, 10-12 बादाम की कतरन।
वि‍धि ‍: घी को गरम करें और मखाने को उसमें धीमी आँच पर भूनें। ठंडा करने के बाद मखाने को कतर लें।
एक बड़े बर्तन में दूध लेकर उसमें मखाने डालें और धीमी आँच पर उबालें। बीच-बीच में हि‍लाते रहें। मखाने के पकने और मि‍श्रण के गाढ़ा होने तक उबालते रहें। अब इसमें शक्‍कर और इलायची डाल दें। 10 से 15 मि‍नट तक हि‍लाएँ। बादाम की क‍तरन डालकर परोसें।
सिंघाड़ा केक


सामग्री :1 कप शक्‍कर, 1 कप सेब कद्दूकस कि‍या हुआ, 2 कप सिंघाड़ा का आटा, आधा कप बेकिंग सोड़ा, आधा चम्‍मच नमक, आधा चम्‍मच इलायची पावडर, पाव चम्‍मच जायफल, पाव चम्‍मच लौग का पावडर, 1 कप अखरोट, 1 कप कि‍शमि‍श।
वि‍धि ‍:एक बाउल में मलाई और शक्‍कर को अच्छी तरह मि‍ला लें। सिंघाड़े में बेकिंग सोड़ा, इलायची, जायफल और चुटकी भर नमक मि‍लाएँ। सेब के पेस्‍ट में आटे का मि‍श्रण और मलाई डालें और अच्‍छी तरह मि‍ला लें। मि‍श्रण में अखरोट और कि‍शमि‍श भी डाल दें। इस मि‍श्रण को बेकिंग शीट पर थोड़ा तेल लगाकर फैलाएँ और 165 डि‍ग्री सेल्‍सि‍यस पर ओवन में बेक करें। ठंडा करके परोसें।
साबूदाना-मूंगफली के लड्डू
fast recipes


सामग्री : आधा कप भूनी हुई मूँगफली, आधा कप साबूदाना, आधा कप गुड़, आधा कप सूखा नारि‍यल कद्दूकस कि‍या हुआ, थोड़ी सी इलायची।
वि‍धि ‍: साबूदाने को 1 घंटे भि‍गोकर रखें और पानी नि‍काल दें। एक पेन में गुड़ लेकर पानी में मि‍लाएँ और गाढ़ी चाशनी बना लें। अब इसमें पि‍सी हुई मूँगफली, साबूदाना, इलायची पावडर और नारि‍यल का बूरा डाल दें और अच्‍छी तरह मि‍ला लें। कुछ देर तक ठंडा होने दें। अब हाथ में थोड़ा-सा घी लगाकर इस मि‍श्रण के लड्डू बनाएँ।
ति‍ल की सूखी चटनी
सामग्री : 200 ग्राम मूँगफली, 250 कप ति‍ल, चौथाई कप लाल मि‍र्च पावडर, 3 चम्‍मच जीरा पावडर, नमक स्‍वाद अनुसार।
वि‍धि ‍: मूँगफली को भूनकर छि‍लके नि‍काल लें। ति‍ल को भी भून लें और दोनों को पीस लें। अब इसमें लाल मि‍र्च, नमक और जीरा पावडर मि‍ला लें और सूखी चटनी की तरह उपयोग करें।

सहेजें जल, पाएँ शिव कृपा

Shravan Month 2009
पुराणों में पानी के महत्व और उसके संरक्षण के बारे में स्पष्ट व्याख्या की गई है। शिव पर जल चढ़ाने का महत्व भी समुद्र मंथन की कथा से जु़ड़ा है। अग्नि के समान विष पीने के बाद शिव का कंठ एकदम नीला पड़ गया था। विष की ऊष्णता को शांत करके शिव को शीतलता प्रदान करने के लिए समस्त देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिव पूजा में जल का विशेष महत्व है।
शिव पुराण में तो यहाँ तक कहा गया है कि भगवान शिव ही स्वयं जल हैं-
संजीवनं समस्तस्य जगतः सलिलात्मकम्‌।भव इत्युच्यते रूपं भवस्य परमात्मनः

अर्थात्‌ जो जल समस्त जगत के प्राणियों में जीवन का संचार करता है वह जल स्वयं उस परमात्मा शिव का रूप है। इसीलिए जल का महत्व समझकर उसकी पूजा करना चाहिए, न कि उसका अपव्यय।







Saturday, July 11, 2009

देवी बनने की तमन्ना

भारत में आज भी मूर्तिपूजा का कोई जोड़ नहीं है। धर्म में मूर्तिपूजा का विधान है, राजनीति में भी मूर्तिपूजा होती है। भारत के राजनीतिक जीवन में नायकों की पूजा होना एक कड़वी मगर दुर्भाग्यपूर्ण सच्चई है। यह चेतावनी आज से छह दशक पहले आधुनिक भारतीय संविधान के पितृपुरुष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने दी थी।लेकिन उनकी ही विरासत संभालने वाले लोगों ने जता दिया कि आंबेडकरवादियों की सोच एक मूर्ति तक सिमटकर रह गई है। पिछले महीने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और ‘दलित की बेटी’ मायावती ने खुद अपनी और अपने गुरु कांसीराम की 15 मूर्तियों का अनावरण किया। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें आरोप लगाया गया कि पूरे राज्य में स्मारक और मूर्तियां स्थापित करने में सरकारी खजाने से 2000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा खर्च किए जा रहे हैं। कोर्ट ने उप्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए जवाब देने को कहा है।

मायावती ने कोर्ट में इसकी सुनवाई होने से पहले ही एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि ये मूर्तियां ‘टूरिस्ट अट्रेक्शन’ होंगी और इनके जरिए पर्यटकों से जो भी पैसा आएगा, उसका इस्तेमाल आंबेडकर और कांसीराम ग्रामों के विकास के लिए किया जाएगा।यानी कभी अपनी समृद्ध वास्तुशिल्पीय विरासत के लिए जगविख्यात रहा नवाबों का शहर अब दलित नायकों की मूर्तियों और बलुआ पत्थर से बनी तकरीबन 60 हाथियों की मूर्तियों के लिए याद किया जाएगा, जो अगले कुछ सालों में लखनऊ में स्थापित होने जा रही हैं।maya विडंबना यह है कि सिर्फ आंबेडकर ने ही राजनीति में मूर्तिपूजा पर सवाल नहीं उठाए, बल्कि बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांसीराम भी इसकी आलोचना करते रहे। नब्बे के शुरुआती दौर में कांसीराम के साथ एक साक्षात्कार के दौरान मैंने उनसे पूछा कि वे महाराष्ट्र के आंबेडकरवादियों से बुनियादी तौर पर किस बात से असहमत हैं। इस पर उनका जवाब था, ‘वे बाबासाहेब की मूर्तियां तो खूब बनवाते हैं, लेकिन सत्ता में आने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करते। उप्र में हमारा लक्ष्य सत्ता की कुंजी हासिल करना है, मूर्तियां बनाने में वक्त बर्बाद करना नहीं।’आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि मायावती मूर्तियां स्थापित करने को लेकर इतनी उद्यत हैं, जिसमें पर्यावरण के मानकों को नजरअंदाज तो किया ही जा रहा है, बल्कि करोड़ों रुपए का सार्वजनिक धन भी इस पर खर्च किया जा रहा है? निश्चित तौर पर मायावती न तो पहली और न ही आखिरी राजनेता हैं जिन्होंने व्यक्तिवादी राजनीति की उपासना को बढ़ावा दिया है।द्रविड़ आंदोलन मूर्ति पूजा के विरोध में था, लेकिन यह भी अपने अनुयायियों को कटआउट्स और चाटुकारिता के निर्लज्ज प्रदर्शन की संस्कृति विकसित करने से नहीं रोक पाया। नेहरू नायकों की पूजा से नफरत करते थे, लेकिन यह बात भी उनके उत्तराधिकारियों को तकरीबन तमाम सरकारी संस्थानों या परियोजनाओं का नामकरण नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य के नाम पर करने से नहीं रोक पाई।मायावती अपने भाषणों में दलित-पिछड़े वर्ग के सशक्तीकरण के आदर्श के तौर पर भले ही फुले-शाहू-आंबेडकर का जिक्र कर लें, लेकिन सच यही है कि गुजरे जमाने के आदर्श उनके वर्तमान और भविष्य के लक्ष्यों के लिए ज्यादा मायने नहीं रखते। मायावती की छवि एक नए वंश की साम्राज्ञी की तरह है जो कुलीनों द्वारा थोपी गई मान्यताओं और मानदंडों के बोझ से मुक्त है।कांसीराम आंबेडकर के लेखन से बेहद प्रभावित थे और सामूहिक बहुजन समाज की पहचान को आगे ले जाने के प्रति अपनी जिम्मेदारी को शिद्दत से महसूस करते थे। इसके उलट मायावती घोर व्यक्तिवादी हैं, जो राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ने के लिए विचारधारा को एक अवरोध मानती हंै। कांसीराम कभी विशाल जनसमूह के आगे या चाटुकारिता के सार्वजनिक प्रदर्शन को लेकर सहज नहीं रहे, जबकि मायावती को अपने जन्मदिन को शाही अंदाज में मनाने में दिलचस्पी है और वे खुलेआम चाटुकारिता की संस्कृति को बढ़ावा देती हैं।

संभवत: जाति आधारित उत्तर भारतीय राजनीति में एक महिला और दलित के तौर पर तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाना मायावती के टिके रहने का मंत्र है। छोटे बाल, सपाट लुक, रूखी भाषा एक सख्त मिजाज दबंग राजनेता की छवि में फिट बैठते हैं। वे अपनी ही मूर्तियां बनवाकर लार्जर-दैन-लाइफ छवि गढ़ना चाहती हैं, जिसके आगे उनके विरोधी बिलकुल बौने नजर आएं।मायावती की उछाल भरती महत्वाकांक्षा यही है कि उन्हें दूसरे राजनेताओं की तरह नहीं, बल्कि मौजूदा दौर की दलित नायिका के तौर पर देखा जाए। यदि मायावती के अन्य समकालीन आइकॉन की तरह मैडम तुसॉद के संग्रहालय में उनका मोम का पुतला नहीं लगाया जा सकता, तो वे खुद अपनी मूर्तियां क्यों नहीं बनवा सकतीं?दुर्भाग्य से मायावती जैसी शख्सियतों के अपनी ही सफलता का शिकार बन जाने का खतरा है। भले ही उनके वफादार अनुयायी अपने नेता की इतिहास में स्थायी जगह बनाने के प्रयास का विरोध न करंे, लेकिन ऐसा समय भी आएगा जब बसपा के वफादार कार्यकर्ता अपनी खास पहचान के लिए मूर्ति की राजनीति से ज्यादा और भी कुछ चाहेंगे। अब चुनावी सफलता संकीर्ण जातिगत पहचानों के बनिस्बत मजबूत सामाजिक गठजोड़ विकसित करने पर ज्यादा निर्भर होती जा रही है।र्तियों और स्मारकों से भले ही मायावती की छवि उनके अनुयायियों की निगाह में देवी की तरह बन जाए, लेकिन इससे अन्य सामाजिक समूहों के बीच अलगाव की भावना ही बढ़ेगी। इसमें वे ब्राrाण भी शामिल हैं, जिन्होंने वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती का समर्थन किया था।उत्तर प्रदेश का 2007 का जनादेश यादव राज का अंत करने के लिए था, जिसने भ्रष्टाचार और आपराधिक संस्कृति को बढ़ावा दिया। लेकिन बेहतर प्रशासन पर ध्यान देने के बजाय अब मायावती को भी उन्हीं आपराधिक तत्वों के साथ पींगे बढ़ाते देखा जा रहा है, जिन्हें उन्होंने खत्म करने की कसम खाई थी।लोकसभा चुनाव के नतीजे उनके लिए चेतावनी के समान होने चाहिए थे, लेकिन लगता है कि इन नतीजों ने मायावती को अपना कद बढ़ाने के प्रयासों में और बेपरवाह बना दिया है। यदि दलित राजनीतिक सशक्तीकरण के एक सहज प्रतीक के बाद मायावती से दलितों का मोहभंग हो जाता है, तो यह दुखद होगा।फिर आंबेडकर के हवाले से कहें तो भारत में ‘भक्ति’ या नायकों की पूजा अथवा समर्पण, जो भी कहा जाए, राजनीति में जितनी बड़ी भूमिका निभाता है, वैसा दुनिया मंे कहीं और नहीं देखा जाता। धर्म में ‘भक्ति’ आत्मा की मुक्ति की राह हो सकती है, लेकिन राजनीति में ‘भक्ति’ या नायकों की पूजा निश्चित तौर पर अधोपतन और संभावित तानाशाही की राह की ओर ले जाती है।

Friday, July 10, 2009

हजारों प्रभावित परिवारों की सुध...?

'मेरे भाई दुबई में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करते थे। अच्छी पगार थी। वो घर भर का सहारा थे, उनके भेजे पैसे से गृहस्थी की गाड़ी खिंच रही था। बहन की शादी की तैयारियाँ की जा रही थीं। अब सारे अरमानों पर पानी फिर गया है।'

गोरखपुर के रहने वाले सैय्यद शमसुद्दीन हैदर के बड़े भाई की नौकरी चली गई है। यह परिवार भारत के उन लाखों परिवारों जैसा ही है जो विदेश जाकर कमाने वाले लोगों के जरिए यहाँ अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं। आर्थिक मंदी की चपेट में आई विश्व अर्थव्यवस्था के कारण अर्थजगत के बड़े-बड़े प्रतिष्ठान अपने बुरे दौर से गुजर रहे हैं। अमेरिका, यूरोप और अरब देशों में कितने ही लोगों को छटनी करके बाहर कर दिया गया है। कई लोग कम तन्ख्वाहों पर काम करने को मजबूर हैं।
भारत से भी काम के लिए लोगों के बाहर जाने का प्रवाह धीमा हुआ है। वापस आने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। भारत में केरल, पंजाब, गुजरात, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे कई राज्यों से बाहर जाकर काम करने वालों की तादाद लाखों में है। इनमें से कई मंदी के दौर में अपनी नौकरी खो चुके हैं। इसका सीधा असर उन लाखों परिवारों पर पड़ रहा है जिनकी जीविका देश से बाहर जाकर काम करने वाले और वहाँ से पैसा भेजने वालों पर आधारित है। शमसुद्दीन हैदर बताते हैं, 'घर में सभी मानसिक और आर्थिक रूप से परेशान हैं। माँ दिल की मरीज हैं। पिताजी को दो बार पैरालेसिस का अटैक पड़ चुका है। मैं खुद भी मंदी के चलते बेरोजगार हो चुका हूँ। दुबई में बड़े भाई ने बहन की शादी के लिए जो पूँजी जमा की थी, वो सब वहाँ रहते हुए नया काम खोजने में खर्च हो रही है। अगर ऐसा ही चला तो उन्हें भी वापस लौटना पड़ेगा क्योंकि बचत के पैसे से कितने दिन गुजारा चलेगा।'
बदलती स्थितियाँ : विश्व बैंक के ताजा आँकड़ों के मुताबिक बाहर से भारत में पैसे की यह आमद देश के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग चार प्रतिशत का योगदान देती है।


ऐसे में लगता तो यही है कि लोग लौटे हैं तो इसका असर पैसे की आमद पर भी पड़ा होगा। हजारों प्रभावित परिवारों की तरह बाहर से आने वाले पैसे का आँकड़ा भी चरमराया होगा। पर भारत सरकार में आप्रवासी मामलों के मंत्री वायलार रवि बताते हैं कि इस पैसे की आमद इस बार पिछले 10 बरसों के रिकॉर्ड स्तर पर है।
उन्होंने बताया, 'पिछले वर्ष तक विदेश में रह रहे भारतीयों के जरिए भारत आ रही पूँजी का आँकड़ा लगभग 30 अरब अमेरिकी डॉलर के आसपास था पर इस बार इसमें रिकॉर्ड बढ़त हुई है और इस पैसे की आमद बढ़कर 43.5 अरब अमेरिकी डॉलर हो गई है।' पर ऐसा क्यों हो रहा है कि जब कामगार बड़ी तादाद में लौट रहे हैं, पैसे की भी आमद बढ़ी है। इस स्थिति को समझाते हुए जानीमानी अर्थशास्त्री जयति घोष बताती हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग वापस आ रहे हैं तो अपने साथ मेहनत से जोड़ी-जमा की गई अपनी पूँजी भी लेकर आ रहे हैं। वो कहती हैं, 'पूँजी की आमद में उछाल स्वाभाविक है क्योंकि जो बेरोजगार हुए हैं वे अपनी बचत के साथ लौट रहे हैं। पर ऐसा अभी के लिए ही है। अगले एक-दो वर्ष में इस पूँजी में गिरावट भी होगी क्योंकि बाहर से पैसा कमाकर भेजने वालों की तादाद कम हो रही है।' यानी विदेश से आ रही पूँजी की रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी भले ही देखने-सुनने में एक अच्छी आमद लगती हो पर ताजा परिस्थितियों में इसमें दर्ज हुई बढ़ोत्तरी कोई बेहतर होती स्थिति का संकेत नहीं है।

कामगारों की स्थिति : और पूँजी की बढ़ोत्तरी के आँकड़ों की चमक में भारत से बाहर जाकर काम कर रहे कामगारों, मजदूरों के संकट को भी झुठलाया नहीं जा सकता है। भारत से बाहर जाकर काम करने वाले अधिकतर लोग जो मंदी के कारण प्रभावित हुए हैं वे कंस्ट्रक्शन, मैन्यूफैक्चरिंग, आईटी जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले लोग हैं।
हालाँकि जयति घोष बताती हैं, 'एक बड़ा हिस्सा सर्विस सेक्टर का भी है पर इसमें ज्यादातर महिलाएँ हैं। सर्विस सेक्टर पर असर शायद सबसे कम है इसलिए विदेश में काम कर रही भारतीय महिलाओं की स्थिति अभी भी सुधरी हुई ही है।' आप्रवासी मामलों के मंत्री वायलार रवि मानते हैं कि मजदूरों, श्रमिकों और कुछ अन्य प्रवासियों को लौटना पड़ा है पर जोर देकर बताते हैं कि हालात चिंताजनक और गंभीर मान लिए जाएँ, ऐसा कतई नहीं है। यहाँ तक कहा कि भारतीय सबसे ज्यादा अमेरिका और दुबई में ही बेरोजगार हुए हैं। पर बाकी जगहों और अरब देशों के बाकी हिस्सों में स्थिति स्थिर है। जयति घोष एक और चिंता की ओर इशारा करती हैं। वो बताती हैं कि भारत से बाहर काम कर रहे श्रमिकों के लिए कानून और नीतियों के रूप में कोई राहत न तो अच्छे वक्त में थी और न अब बुरे वक्त में है। हालाँकि यही सवाल जब वायलार रवि से पूछा तो उन्होंने बताया कि सरकार इस बारे में गंभीर है। इसी माह के अंत में वो बहरीन की यात्रा पर होंगे और वहाँ सरकार के साथ एक श्रमिक सुरक्षा संधि पर हस्ताक्षर भी करेंगे। इन सब के दौरान भारत में संभलते दिख रहे बाजार और पूँजी की बढ़ती आमद के बीच सैय्यद आरजू हैदर के माँ-बाप को बेटे की नौकरी की बहाली, बेटी की शादी के खर्च और अपनी जीविका की जरूरत जैसी चिंताओं का समाधान कब मिलेगा, इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। और फिर यह कोई एक ही परिवार की तो बात नहीं है...ऐसे लाखों हैं। आर्थिक मंदी और संकट के हालात से जूझते हुए।

मंदी ने छीने लाखों के रोजगार

भारतीय वाणिज्य मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले साल अगस्त से अक्टूबर महीने के बीच निर्यात आधारित कंपनियों में 65 हजार से ज्यादा लोगों की नौकरियाँ गईं। ये सर्वेक्षण मात्र 121 कंपनियों में हुई छटनी का है, अगर पूरे निर्यात क्षेत्र की बात करें तो बताया जाता है कि कम से कम 50 लाख लोगों को आर्थिक मंदी के चलते अपनी नौकरी ँवानी पड़ी है। ये आँकड़ा उन लोगों का बताया जाता है जो इस क्षेत्र से सीधे जुडें हैं, लेकिन परोक्ष रुप से जुड़े लोगों की संख्या जो आर्थिक मंदी से प्रभावित हुए हैं और अपने रोजगार खो बैठे हैं, इस आँकडें में जो़ड़ दी जाए तो ये संख्या कहीं ज्यादा है। निर्यात क्षेत्र में रोजगार जाने या कम होने की बात की जाए तो कपड़ा, चमड़ा, आभूषण, हथकरघा और सूचना प्रद्योगिकी जैसे उद्योग सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं।
कपड़ा उद्योग: भारत में निर्यात क्षेत्र में सबसे बड़ा उद्योग कपड़ा उद्योग है। भारतीय निर्यात संगठन के संयोजक सुभाष मित्तल का कहना है कि हालात अभी सुधरे नहीं हैं, बल्कि और बिगड़ने का डर है।
अंकुर वत्स का कहना है, 'कहा जा रहा है कि कपड़ा उद्योग में 50 लाख लोगों की नौकरियाँ गई हैं। लेकिन कम से कम लगभग 10 लाख नौकरियाँ इस क्षेत्र में गई ही हैं। इसकी वजह है अंतरराष्ट्रीय बाजार में माँग कम हुई है और जो माँग है भी वो सस्ती दरों पर है। मतलब है कि लागत ज्यादा है और माँग है नहीं नतीजा, उद्योगों को अपनी लागत नीचे लाने के लिए कदम उठाने पड़ रहे हैं।' इस उद्योग में बड़ी तादाद में लोगों ने रोजगार खोए हैं और जिन लोगों ने रोजगार खोए हैं, उसमें सबसे बड़ी संख्या आम मजदूर की है। ऐसा क्यूँ है कि आर्थिक मंदी की मार भी सबसे पहले उस पर पड़ी जिसमें ये मार झेलने की सबसे कम क्षमता है।अंकुर कहते हैं, 'कोई भी उद्योग पिरामिड की तरह काम करता है, और जब उद्योग के पास काम नहीं होता तो सबसे पहले मजदूर की ही नौकरी जाती है, क्योंकि मजदूरों की जो भी तादाद हो आपको मैनेजर, क्वालिटी मैनेजर जैसे लोग तो रखने ही होते हैं, तो पहली मार मजदूरों पर ही पड़ती है।'
निर्यात क्षेत्र: निर्यात क्षेत्र से जुड़े जहाँ लाखों ऐसे लोग हैं जिनपर आर्थिक मंदी की मार पड़ी है, वहीं ऐसे लोग भी हैं जो सीधे तौर पर तो इस क्षेत्र से जुडे उद्योगों में काम नहीं करते हैं पर उनकी जीविका इस क्षेत्र से आती है।
निर्यात क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण उद्योग है आभूषण उद्योग। राजीव शर्मा जो आभूषण तैयार करने वाली एक पूरी फैक्ट्री चलाते हैं कहते हैं कि किस तरह से एक छोटी सी मोतीयों की माला बनाने में या फिर कोई शो पीस बनाने में कितने लोग शामिल होते हैं। राजीव शर्मा बताते हैं कि कुछ लोग तो सीधे उनके कारखाने में आकर काम करते हैं, लेकिन आभूषण उद्योग में काफी काम ऐसा होता है जो गाँवों में वो परिवार करते हैं जिनका ये पुश्तैनी काम है। आर्थिक मंदी के चलते आभूषणों की माँग में भारी गिरावट आई है और परिणाम स्वरुप जहाँ लोगों के रोजगार गए जो सीधे कारखाने में काम करते हैं वहीं ऐसे हजारों परिवारों की जीविका छिन गई है जो पुश्तैनी काम के तौर पर आर्डर पर काम करते हैं। निर्यात क्षेत्र पर आर्थिक मंदी और उसके प्रभाव के चलते इस क्षेत्र में रोजगार जाने की बात हो और सूचना प्रद्योगिकी की बात ना तो बात अधूरी रह जाएगी।
सूचना प्रद्यओगिकी: आईटी बूम ने भारत के लाखों नौजवानो को हजारों सपने दिए, लाखों नौजवानों के सपने पूरे भी हुए। जब तक आर्थिक मंदी की मार शुरु नहीं हुई थी। इस क्षेत्र में नौ प्रतिशत प्रति तिमाही रोजगार बढ़ रहे थे जो अब घट कर 2.3 प्रतिशत रह गया है। मोहित पति ने जब सॉफ्टवेयर इंजिनयरिंग की पढ़ाई शुरु की थी तो सपने कुछ और ही थे और सपने लगभग हकिकत में बदल ही गए थे पर फिर आर्थिक मंदी की ऐसी नजर लगी की बस सब कुछ मिनट में काफूर हो गया। वो कहते हैं, 'मै जब अपने अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रहा था तो मुझे एचसीएल में प्लेसमेंट मिल गई थी पर जब मेरी पढ़ाई पूरी हुई तो आर्थिक मंदी का दौर शुरु हो गया और हमारी ज्वाईनिंग की तारिख टलती गई। एक साल हो चुका है, अब मैं एमबीए की तैयारी कर रहा हूँ, शायद इसका बाद कोई अच्छी नौकरी मिल जाए।' कुल मिलाकर हालात सूचना प्रद्योगिकी क्षेत्र के भी अभी अच्छे नहीं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में हालात अच्छे नहीं हैं। जब तक हालात ना सुधरें तब तक क्या किया जाए। निर्यात क्षेत्र के लोगों ने सरकार को कुछ सुझाव दिए हैं। सरकार ने आश्वासन दिए हैं। पर इस क्षेत्र से जु़ड़े एक व्यक्ति ने कहा कि निर्यात का क्षेत्र भारत के सकल घरेलू उत्पाद का मामूली हिस्सा है। सरकार की प्राथमिकताओं में उसका नंबर काफी नीचे है।

Sunday, July 5, 2009

जीवनशैली में परिवर्तन जरूरी

दिल का रखें ख्याल

आरामदायक व सुविधापूर्ण दफ्तर में आराम से कुर्सी पर बैठकर काम करने वाले कॉर्पोरेट जगत के कर्मचारियों को दिल की बीमारियों का ज्यादा खतरा होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन लोगों की शारीरिक सक्रियता न के बराबर होती है तथा वे कई घंटों तक जटिल दिमागी कामों में उलझे रहते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को अपने दिल का खास खयाल रखना चाहिए और तुरंत अपनी जीवनशैली में परिवर्तन करना चाहिए। आइए जानते हैं क्या करें अपने दिल की सुरक्षा के लिए :
साबुत अन्न से बने उत्पाद खाएँ जैसे ओट्स, इनमें बीटाग्लूकेन व विलयशील फाइबर होते हैं। हरी पत्तेदार सब्जियाँ व ताजे फल खाएँ। उच्च कोलेस्ट्रॉलयुक्त भोजन एवं ट्रांस फैटी फूड से परहेज करें।
हमेशा उन्हीं तेलों का प्रयोग करें जिनमें शून्य ट्रांस फैट होता है जैसे चावल के चोकर का बना तेल।
अगर आप सिगरेट पीते हैं तो छोड़ दें। अपने रक्तचाप को नियंत्रण में रखें और हर रोज 30 मिनट तक पैदल चलें, साथ में कुछ कसरत भी करें। सबसे महत्वपूर्ण है अपनी रक्तशर्करा को काबू में रखना, विशेषकर तब, जब आप मधुमेह से ग्रस्त हैं या मोटे हैं या वजन आदर्श भार से अधिक है तो वजन कम करने की कवायद शुरू कर दें। दिमागी गतिविधियों में उलझे लोग बहुत तनाव में रहते हैं। इस वजह से उनका रक्तचाप और हृदयगति खतरनाक स्तर तक बढ़ जाते हैं।

जो लोग दिमागी या भावनात्मक रूप से तनाव में रहते हैं और हमेशा तनावभरे माहौल में काम करते हैं उनके साथ इस बात की अधिक संभावना होती है कि वे सिगरेट पीना शुरू कर दें, ज्यादा खाने लगें और उनके व्यायाम करने की संभावना भी कमतर होती जाती है। इन सब कारणों से दिल के रोग पनपने लगते हैं।
केवल यही नहीं, मानसिक तनाव से दिल में रक्त का प्रवाह बाधित हो जाता है तथा हृदय धमनियों की बीमारी से ग्रस्त लोगों पर मौत का जोखिम बढ़ जाता है। ड्यूक विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार मुश्किल कामों को करने से हुआ तनाव जिसमें कि बेहद दिमागी काम करना पड़ता है, जैसे कि गणित की समस्या हल करना, इन सबसे हृदय धमनियों पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि दिल की मांसपेशियों तक पहुँचने वाले रक्तप्रवाह में बहुत कमी हो जाती है और परिणाम हृदयगति रुक जाने के रूप में होता है। अत: कार्पोरेजगसावधाजाएअपननाजुदिलेकतुरंअपनजीवनशैलमेपरिवर्तकरनविचाशुरदें

शरीर और खाद्य पदार्थ की संरचना

मस्तिष्क या अखरोट

1. अखरोट की रचना सिर की तरह होती है तथा उसके अंदर भरा हुआ गूदा मस्तिष्क की तरह होता है। यही गूदा पर्याप्त मात्रा में नियमित सेवन करने से सिर संबंधी समस्याओं पर कंट्रोल होता है तथा मस्तिष्क की कार्य क्षमता एवं क्रिया प्रणाली में पॉजीटिव प्रभाव नजर आने लगता है।
2. पिस्ता आँख की भाँति दिखाई देता है। पिस्ते के अंदर का खाया जाने वाला हरे रंग का हिस्सा आँख की तरह प्रतीत होता है, इसलिए यह नेत्रों के लिए लाभदायक होता है। नेत्र लाभ के लिए कुछ मात्रा में पिस्ते का सेवन हमें करना चाहिए या यूँ कहें कि नेत्र रोगों के इलाज में पिस्ता आपकी सहायता कर सकता है।
3. जिन्होंने किडनी को देखा है या जो उसके आकार से परिचित हैं, वे यह कह सकते हैं कि काजू, सोयाबीन तथा किडनी बीन जैसे कुछ मेवे तथा फली वाले अनाज वगैरह किडनी को स्वस्थ बनाए रखने में सहायक हो सकते हैं।
अंगूर

4. किशमिश या अंगूर की रचना पित्ताशय (गाल ब्लैडर) से बहुत कुछ 'मैच' करती है, इसीलिए पित्ताशय को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए किशमिश या अंगूर का सेवन लाभदायक हो सकता है।
5. बादाम का आकार जहाँ एक ओर नेत्रों की तरह होता है, वहीं दूसरी ओर उसकी समानता मस्तिष्क से भी की जा सकती है। बादाम का नियमित सेवन नेत्र तथा मस्तिष्क दोनों ही के लिए प्रभावी होता है।
6. अनार के दानों का रंग रक्त के समान होने से अनारदानों का रस रक्त शोधक (खून की सफाई करने वाला) एवं रक्तर्द्धक (खून बढ़ाने वाला) होता है।
सेवफल

7. सेवफल का आकार और रंग भी बहुत कुछ हृदय के समान होता है, इसलिए सेवफल का नियमित सेवन हृदय के लिए विशेष लाभदायक होता है।
8. नारंगी की फाँकें किडनी और आँत से मेल खाती हैं, इसीलिए इसका नियमित सेवन किडनी तथा आँत के लिए फायदेमंद है।
9. गिलकी या घिया और तोरई आँत के एक भाग की तरह दिखाई देती है, इसलिए आँत की क्रिया प्रणाली को व्यवस्थित करने में इसका जवाब नहीं।
10। लम्बी-पतली ककड़ी तो मानो आँत ही हो। इसका सेवन कब्ज दूर करता है और आँत क्रिया प्रणाली को नियमित करता है। ऐसे अनेक प्राकृतिक संकेत या संदेश वनस्पति के पदार्थों में छिपे हुए हैं, जिनको समझकर स्वास्थ्य लाभ उठाया जा सकता है।

Friday, July 3, 2009

क्या बदल रहा है भारत में आवासीय बाजार?

हजारों-लाखों भारतीयों का सपना होता है बड़े मेट्रो शहरों में जा कर बसने का। इन्हीं में से एक 36 वर्षीय शैलेन्द्रसिंह भारत की राजधानी दिल्ली में 18 साल से रह रहे हैं और एक जानी-मानी आईटी कंपनी के बड़े अफसर हैं।

दिल्ली में एक घर खरीदने का सपना शैलेन्द्र ने भी देखा था। वे बताते हैं "दिल्ली में घर ढूँढ़ते हुए डेढ़ साल से ऊपर हो गया हमें। शुरुआत में जिन बिल्डरों या सोसाइटी द्वारा नए घरों की घोषणा होती थी, देखने जाते थे, पर हमेशा यही लगा कि वे सभी हमारी पहुँच से बाहर हैं। शैलेन्द्रसिंह की एक घर की तलाश अभी भी जारी है, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि पिछले एक दशक से भारतीय आवास क्षेत्र में जमीन-आसमान का परिवर्तन आया है। करीब डेढ़ साल पहले तो पूरे भारत में चाहे वह मुंबई, दिल्ली और चेन्नई जैसे मेट्रो हों, या फिर लखनऊ, भोपाल और जयपुर जैसे तमाम 'बी' श्रेणी के शहर ही क्यों न हों, सभी में घरों के दाम आसमान छू रहे थे। ...तो आखिर कैसे पहुँचे दाम इन ऊँचाइयों पर। भारत में घरों के जाने माने निर्माता समूह पार्श्वनाथ बिल्डर्स के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बीपी ढाका बताते हैं "विकसित देशों की जो कार्यप्रणाली थी, उसे भारत में भी लोगों ने कॉपी करने की कोशिश की। दूसरी चीज ध्यान रखने की यह है कि भारत में कोई सोशल सिक्यूरिटी स्कीम नहीं है, इसीलिए लोगों के बुढ़ापे का सहारा किराया होता था और एक दूसरा मकान होता था अपने एक मकान के अलावा। इसलिए ये चीजें साथ-साथ चलकर एक नॉर्मल मार्केट से एक अब्नोर्मल मार्केट की तरफ चली गईं। इसमें हर शख्स ने अपना भविष्य ढूँढने की कोशिश की।"जमीन और घरों की आसमान छूती कीमतों के बीच ही दुनिया भर को आर्थिक मंदी की मार झेलना पड़ी और भारत भी इससे अछूता न रह सका।
मंदी की मार : इस वैश्विक मंदी के चलते लगभग हर क्षेत्र को कुछ न कुछ नुकसान हुआ। आवासीय क्षेत्र भी इसी चपेट में आ गया। कहा जाने लगा कि भारत में 20 फीसदी से भी ज्यादा रफ्तार से बढ़ रहा आवासीय क्षेत्र थम गया है और अब उन लोगों के सपने सच हो सकेंगे, जो इन बढ़ी हुई कीमतों के बीच हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे।

देश भर में बड़े-बड़े बिल्डरों ने कम कीमतों पर नई परियोजनाएँ शुरू करने का ऐलान भी कर दिया। कब और कैसे आया ये दौर, इस बारे में बपी ढाका बताते हैं "वर्ष 2007 में जो लोग इस बाजार को बारीकी से देख रहे थे, उन्हें ये सुधार दिखने लगा था। यह तय हो गया था की दाम अब इससे ऊपर नहीं जा सकते और अगर आप बैंक में भी पैसा जमा कराएँगे तो आठ साल में वह भी दोगुना हो जाएगा, जबकि जो फ्लैट्स आपने 80 लाख का लिया होगा, वह एक करोड़ 60 लाख का कभी नहीं होगा।"
वे बताते हैं "जब अमेरिकी रियल इस्टेट बाजार में ये मंदी आई तो भारतीय मीडिया ने उसे काफी तूल दिया, जो एक तरह से सही भी था और फिर वही ट्रेंड भारत में भी पहुँच ही गया।" ...पर क्या वाकई में जमीन और घरों की कीमतों में आई कथित गिरावट से इन्हें खरीदने की मंशा रखने वाले आम लोगों को फायदा हुआ? क्या आम लोगों द्वारा वही घर कम कीमतों पर खरीदे जा सकते हैं, जो कुछ समय पहले तक उनकी पहुँच से बिलकुल ही बाहर थे। कम से कम शैलेन्द्रसिंह जैसे खरीदार तो इस बात से बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं हमने पूरा बाजार छान लिया, पर ऐसा कहीं लगा ही नहीं कि दाम असल में कम हुए हैं।
एक-आधी जगह दाम स्थिर जरूर हुए थे, पर कमी का तो कई सवाल ही नहीं था। धीरे-धीरे इनमें भी इजाफा ही हो रहा था और जो कम कीमत पर घर मिलने वाली बात थी, वह ऐसे घरों के लिए है, जो बहुत छोटे थे और जिनके निर्माण में इस्तेमाल हुई सामग्री भी ठीक नहीं थी। इन छोटे घरों से एक आम आदमी की जरूरतें कहाँ पूरी होती हैं। शैलेन्द्र की बात सुनकर मन में सवाल उठा कि क्या अभी भी आवासीय क्षेत्र में जमीन और घरों के दाम उन्हीं बुलंदियों पर हैं, जैसा कुछ लोग महसूस कर रहे हैं, या फिर कम कीमतों पर घोषित हो रही नई परियोजनाएँ लोगों का ध्यान आकर्षित कर रही हैं। इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए मैं पहुँचा दिल्ली से लगे नोएडा में। यहाँ जिधर भी नजर दौड़ाई, ऊँची-ऊँची इमारतें दिखाई दीं। इनमें से कुछ तो तैयार हो चुकी हैं और कुछ निर्माणाधीन हैं, जिनमें रात-दिन काम चलता रहता हैं। रविवार या शनिवार के दिन यहाँ पर तमाम परिवार सैम्पल फ्लैटों का जायजा लेते देखे जा सकते हैं और इनमें अभी भी घर बुक करने का वही उत्साह जान पड़ता है, जो पहले था। इन्हीं इमारतों में से एक में काम कर रहे इंजीनियर अनिल कुमार बताते हैं "लोगों ने ऐसे ही अफवाह फैला दी थी की दाम कम हो गए। मार्केट तो यहाँ पर हमेशा ही बढ़िया रहा है। हमारी साइट पर तो जो भी प्रस्ताव सामने आए, वे बिक गए। भीड़ की भीड़ आती है यहाँ छुट्टी वाले दिन इन घरों को जायजा लेने और दाम पता करने के लिए।"
कितना पड़ा असर : लेकिन एक तरफ जहाँ रियल इस्टेट बाजार में अभी भी नए घर खरीदने वालों की भरमार है तो दूसरी तरफ इस बात में भी कोई शक नहीं कि देश के लगभग सभी बड़े बिल्डरों ने बाजार में आई गिरावट को महसूस भी किया है। कहीं न कहीं घरों की माँग और जरूरत के अनुपात में गणित ठीक न बैठने की वजह से उच्च श्रेणी और महँगे घरों की बहुतायत होने लगी और थोड़े कम बजट और सस्ते घरों को खरीदने वालों की तादाद बढ़ गई।
शायद इसी बात को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने कुछ महीनों पहले ये घोषणा भी की कि 20 लाख रुपए के अन्दर घर खरीदने वालों को ऋण कम ब्याज दरों पर दिया जाएगा। आवासीय क्षेत्र में आई मंदी के मद्देनजर ही वित्तमंत्री के साथ बजट पूर्व की एक अहम बैठक से बाहर आकर शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी ने कहा कि घर खरीदने के लिए पाँच लाख से कम ऋण लेने वालों को मात्र साढ़े छह प्रतिशत तक की ब्याज दर वाला ऋण दिया जाना चाहिए। उन्होंने थोड़ी ज्यादा पूँजी ऋण लेकर घर खरीदने की मंशा रखने वालों को भी उम्मीद की किरण दिखाई। रेड्डी ने कहा 20 लाख बहुत कम होते हैं एक फ्लैट खरीदने के लिए। इस सीमा को बढ़ाकर 30 लाख तक किया जाना चाहिए और इन लोगों से साढ़े सात प्रतिशत की दर पर ब्याज लेना चाहिए। तो क्या भारत में अब वो दौर आ चुका है जब कम कीमतों पर सस्ते घर एक आम आदमी की पहुँच में होंगे? फिलहाल तो यही लगता है कि सरकार और पूरा आवासीय क्षेत्र इसी कोशिश में लगा है की यह संभव हो सके। वह बात और है कि आर्थिक मंदी की मार के चलते खुद घर मुहैय्या करने वालों की यह पहल उनके अपने हित में है, जबकि सरकार के लिए यह जरूरी है कि इस क्षेत्र को दोबारा रफ्तार दी जाए, पर अगर आप एक सस्ता घर खरीदने का इरादा रखते हैं तो शायद आपके सपनों के आशियाने की नींव कहीं जल्द ही पड़ने वाली होगी।

क्या प्राचीन काल में मनुष्य उड़ सकते थे?

पक्षियों को आसमान में स्वछंद उड़ते देख सदियों से मनुष्य के मन में भी आसमान छूने की तमन्ना रही है। 1903 में राइट बन्धुओं ने किटी हॉक बनाकर इस सपने को सच कर दिखाया पर सवाल यह है कि क्या इससे पहले भी मनुष्य ने आसमान में उड़ने की कोई सफल कोशिश की है?
1780 में दो फ्रेंच नागरिकों ने पेरिस में हवा से हलके गुब्बारे में हवा में कुछ दूर तक उड़ान भरी थी, पर अब कुछ इतिहासकारो का मानना है कि कई सभ्यताओं ने इसके कहीं पहले उड़ने की तकनीक विकसित कर ली थी। वर्षों की खोज के बाद मिले पुरातात्विक सबूत भी इस ओर इशारा करते हैं प्राचीन युग में भी बेबीलोन, मिस्र तथा चीनी सभ्यता में उड़नखटोलों या उड़ने वाले यांत्रिक उपकरणों की कहानियाँ प्रचलित हैं।
भारतीय हिंदू धार्मिक ग्रंथ में ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनमें ऋषि-मुनि, मनीषियों तथा देवपुरुष सशरीर अथवा किसी यांत्रिक उपकरण के माध्यम से उड़कर अपनी यात्रा पूरी करते थे। रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीता माता को हर ले गया था तथा सीता माता की खोज में हनुमान द्वारा उड़कर सागर पार करना, राम-रावण युद्ध में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख है। ऐसी मान्यता है कि युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी पुष्पक विमान से हवाई मार्ग से ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया थासबसे महत्वपूर्ण है चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्’ जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमा’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए। ‘गोध’ ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। ‘परोक्’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। ‘प्रल’ एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था। ‘जलद रू’ एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भाँति दिखता था।
1898 में मिस्र के सक्कारा में एक मकबरे से 6 इंच लम्बा लकड़ी का बना ग्लाइडर जैसा दिखने वाला एक मॉडल मिला जो संभवत: 200 ई.पू. में बना था। कई सालों बाद मिस्र के एक वैमानिक विशेषज्ञ डॉ. खलीली मसीहा ने इसका अध्ययन कर बताया कि इसकी बनावट पूरी तरह आजकल के विमानों की तरह है। यहाँ तक कि इसकी टेल भी उतने ही कोण पर बनी है जिस पर वर्तमान ग्लाइडर बहुत कम ऊर्जा में ही उड़ सकता है। हालाँकि अभी तक मिस्र के किसी भी मकबरे या पिरामिड से किसी विमान के कोई अवशेष या ढाँचा नहीं मिला है, पर एबीडोस के मंदिर पर उत्कीर्ण चित्रों में आजकल के विमानो से मिलती-जुलती आकृतियाँ उकेरी हुई मिली हैं। इसके खोजकर्ता डॉ. रूथ होवर का कहना है कि ‘पूरे मंदिर में ऐसी कई आकृतियाँ देखने को मिलती हैं जिसमें विमानों तथा हवा में उड़ने वाले उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। इनमें से कुछ तो आधुनिक हेलिकॉप्टर तथा जेट से मिलते-जुलते है’। इसी तरह सदियों तक पेरू के धुंधभरे पहाड़ों में छिपी इंका सभ्यता की नाज़्का रेखाएँ तथा आकृतियाँ आज भी अंतरिक्ष से देखी जा सकती हैं। लेटिन अमेरिकी भूमि के समतल और रेतीले पठार पर बनी मीलों लंबी यह रेखाएँ ज्यामिति का एक अनुपम उदाहरण हैं। यहाँ बनी जीव-जंतुओं की 18 विशाल आकृतियाँ भी इतनी कुशलता से बनाई गई हैं कि लगता है मानो किसी विशाल से ब्रश के जरिये अंतरिक्ष से उकेरी गई हों। आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहाँ भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियाँ बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैंइन सभी उल्लेखों में मनुष्य द्वारा आकाश में उड़ने की बात इतनी बार बताई गई है, जिससे विश्वास होता है कि कई प्राचीन सभ्यताएँ कोई ऐसी तकनीक का आविष्कार कर चुकी थीं जिनकी सहायता से वे आसानी से उड़ सकती थीं। पुराणों, अभिलेखों, भित्तिचित्रों, प्राचीन वस्तुओं तथा प्राचीन लेखों को इतिहास जानने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण व प्रामाणिक जरिया माना जाता है, तो क्या यह संभव नहीं कि प्राचीनकाल में किसी सभ्यता के पास उड़ने की तकनीक रही हो जो कालांतर में कहीं लुप्त हो गई हो

आर्थिक सुधारों के नए दौर का संकेत

देश की आर्थिक व्यवस्था का सालाना लेखा-जोखा वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण केंद्र सरकार की नीतियों का पथ प्रदर्शक तो है ही, भले ही सर्वेक्षण में दिए गए सुझावों को पूरी तरह से लागू न किया जाए। इस लिहाज से संसद के बजट सत्र के पहले दिन पेश किए गए आर्थिक सर्वेक्षण को सरकार के संभावित निर्णयों का आधार समझा जा सकता है। जहां सर्वेक्षण में आर्थिक विकास की दर में 2.1 प्रतिशत की गिरावट की आशंका जाहिर की गई है, वहीं इसके अधिक तर सुझाव विनिवेश, सब्सिडी घटाने और टैक्स नीति में सुधार से संबंधित हैं।सब्सिडी को लेकर पिछले कई वर्षो से सरकार के आर्थिक और राजनीतिक एजेंडे के बीच असमंजस रहा है। खाद, रसोई गैस, पेट्रोलियम पदार्थ आदि कुछ ऐसे उत्पाद हैं, जिन्हें वास्तविक लागत से कम पर ही बाजार में उपलब्ध कराया जाता रहा है। पेट्रोलियम पदार्थ के विक्रय दामों को लेकर तो कोई दूरगामी नीति बनाना आसान नहीं है और कुछ वर्ष पूर्व इन्हें डि-रेगुलेट करने के बाद सरकार ने फिर अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। अब इन्हें फिर बाजार के अनुसार रखे जाने की सिफारिश की गई है।विनिवेश के जरिए 25,000 करोड़ रुपए अर्जित करने के लक्ष्य को पूरा करने के सुझावों में कोयला खान, बैंक व बीमा क्षेत्र में बाहरी निवेश बढ़ाने के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनियों में 5-10 प्रतिशत का विनिवेश और घाटे में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की नीलामी शामिल हैं।साथ ही, अनलिस्टेड सरकारी कंपनियों को लिस्टेड करने का सुझाव भी आर्थिक पारदर्शिता की ओर एक कदम है। सार्वजनिक क्षेत्र में विदेशी और निजी निवेश की राह भी कांटों भरी है। इसके बावजूद यूपीए सरकार अपनी मजबूती के बल पर इस सर्वेक्षण के कई सुझावों पर अमल करेगी, ऐसा समझा जा सकता है। टैक्स संरचना में सुधार के कई सुझावों को लागू करने पर भी विचार हो रहा होगा, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। नए आयकर कोड और एफबीटी पर पुनर्विचार आदि को लेकर आगामी बजट में आम नागरिक राहत की उम्मीद करते हैं।अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य, कच्चे तेल, विदेशी मुद्रा व सोने की कीमतों में आने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर तमाम सिफारिशों और निर्णयों में आने वाले समय में परिवर्तन होते रहेंगे, पर अगले एक साल का आर्थिक एजेंडा निश्चय ही सुधारवादी है और यदि व्यापक तौर पर इसे लागू किया गया तो यह आर्थिक सुधारों की दिशा में 1991-95 के बाद दूसरा बड़ा कदम होगा।