rashtrya ujala

Thursday, June 11, 2009

पाकिस्तान में निरंतर तैयार होती विखंडनीय सामग्री

यदि अमेरिकी कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस द्वारा जारी रपट की मानें तो पाकिस्तानी हथियारों के ज़खीरे में 60 परमाणु बम मौजूद हैं। इन हथियारों के लिए पाकिस्तान में निरंतर विखंडनीय सामग्री तैयारी होती रहती है। पाकिस्तान परमाणु शस्त्र बनाने की इकाइयों और वाहनों में भी बढ़ोतरी कर रहा है। इन परमाणु बमों में उच्च किस्म के ठोस व उम्दा यूरेनियम का इस्तेमाल किया जाता है। हर परमाणु हथियार में 15 से 20 किलोग्राम यूरेनियम का इस्तेमाल होता है। इन हथियारों के लिए पाकिस्तान प्रतिवर्ष 100 किग्रा की दर से यूरेनियम का उत्पादन कर रहा है। इसके अलावा पाकिस्तान दो अतिरिक्त हैवी वाटर रिएक्टर भी बना रहा है जिनके पूरा होने पर पाकिस्तान की प्लूटोनियम उत्पादन क्षमता बहुत बढ़ जाएगी। अभी तो वह हर साल 5 से 6 परमाणु बम तैयार कर रहा है।
परमाणु बमों की डिलीवरी के लिए पाकिस्तान के पास दो तरह के वाहक उपकरण हैं- पहला विमान और दूसरा ज़मीन से ज़मीन पर मार करने वाली मिसाइल। अमेरिका से हासिल एफ-16 विमान में पाकिस्तान ने कुछ परिवर्तन किए हैं। अमेरिका से 36 नए विमान लेने का करार भी पाकिस्तान ने कर लिया है। इसके साथ ही इन विमानों के साथ हथियारों और पाकिस्तान के एफ-16 ए/बी मॉडल के विमानों के रखरखाव का अनुबंध भी हुआ है। हालाँकि पाकिस्तान ने अपनी परमाणु नीति घोषित नहीं की है, लेकिन यह तो तय है कि वह अफगानिस्तान, चीन, ईरान या अपने अन्य पड़ोसियों के खिलाफ तो इन हथियारों का प्रयोग करने से रहा। इन हथियारों का निशाना अंततः भारत ही बनेगा। पाकिस्तान खुद के द्वारा खड़े किए गए 'भस्मासुर' तालिबान का दमन करने में नाकाम रहा है। ऐसे देश के बारे में अमेरिका की नीति भी डाँवाडोल ही है। मई के अंतिम सप्ताह में पाकिस्तान में दो बड़े आतंकी हमले हुए थे। पेशावर में 24 घंटों के भीतर दो हमले हुए थे जिनमें 30 लोग मारे गए और 200 से ज़्यादा घायल हुए। इसके अलावा पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आईएसआई के लाहौर स्थित कार्यालय के पास बम विस्फोट हुआ जिसमें 55 लोग हलाक हो गए और 350 से अधिक घायल हुए।
तालिबान ने लाहौर हमलों की ज़िम्मेदारी लेते हुए कहा कि हमला मलाकंद और स्वात में पाकिस्तानी फौज की कार्रवाई का बदला लेने के लिए किया गया है। 3 मार्च 2009 में श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमले से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान में मौजूद जिहादी ऐसी बेखौफ कार्रवाइयों को अंजाम देकर अपने मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहते हैं। हालाँकि किसी आतंकी समूह ने इस हमले की ज़िम्मेदारी नहीं ली। लेकिन ऐसे कई कारण हैं जिनके आधार पर यह लश्कर-ए-तोइबा का काम प्रतीत होता है। आईएसआई द्वारा पैदा और पाला-पोसा गया यह संगठन भारत पर दबाव बनाए रखने के लिए है। यह अपने मकसद को पूरा भी कर रहा है। पहले-पहल पाकिस्तान के परमाणु बम को इस्लामिक बम कहा गया। ऐसा माना जाता है कि इसे बनाने के लिए लीबिया, सऊदी अरब और शायद ईरान जैसे मुस्लिम देशों ने भी पाकिस्तान को पैसा मुहैया कराया। शर्त यह थी कि पाकिस्तान इसके एवज में इन देशों को परमाणु हथियार बनाने के लिए तकनीकी जानकारी देगा। मुस्लिम देशों ने पाकिस्तान के परमाणु बम का स्वागत 'इस्लामिक बम' कहकर किया था। काबिले गौर है कि परमाणु बम बनाने वाले पाकिस्तानी वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खान ने 2004 में यह कबूल किया था कि उन्होंने परमाणु शस्त्रों की जानकारी ईरान, उत्तरी कोरिया और लीबिया को दी थी। इसके लिए उन्हें तुरंत माफी भी दे दी गई, क्योंकि जो कुछ एक्यू खान ने किया, वह पाकिस्तानी सरकार की मर्ज़ी से ही किया था।
अमेरिकी कुछ भी कहें लेकिन पाकिस्तान के परमाणु हथियार पूरी तरह से पाकिस्तानी फौज के कब्ज़े में ही हैं। पाकिस्तान के एक पूर्व विदेश मंत्री ने बयान दिया था कि परमाणु शक्ति हमेशा पाकिस्तानी सेना के कब्ज़े में ही रही है। बात वहीं की वहीं है कि पाकिस्तान में फौज, नागरिक सरकार की बराबरी पर है या वास्तव में पाकिस्तानी फौज वहाँ की सरकार से ज्यादा मज़बूत है जिसके सामने प्रधानमंत्री भी तुच्छ है! कौन नहीं जानता कि मुशर्रफ ने किस तरह से नवाज़ शरीफ को प्रधानमंत्री की कुर्सी से उतारकर दर-बदर कर दिया। यह जनरल वही था जिसके इशारों पर जनता द्वारा चुना गया प्रधानमंत्री कारगिल मुद्दे पर वही करता रहा, जैसा कि जनरल कहता गया। फरवरी, 2009 में पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने इस बात को क़बूला कि उनकी सरकार ने तालिबानी खतरे को कम करके आँका था और आतंकी बड़ी संख्या में पाकिस्तान में मौजूद हैं। वे न सिर्फ कबाइली इलाक़ों में हैं बल्कि पेशावर जैसे बड़े शहरों में भी हैं। पाकिस्तान अपने अंदरुनी हालात से कैसे निपटेगा, यह वहाँ की सरकार को सोचना है। लेकिन जो कुछ भी पाकिस्तान के भीतर होगा, उसका असर हिन्दुस्तान पर भी पड़ेगा। पाकिस्तानी सेना हमेशा से आतंकियों के पक्ष में रही है ताकि वे भारत में गड़बड़ी फैला सकें। फरवरी, 2009 में अमेरिकी सेना ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने पाकिस्तानी फौज और अर्द्धसैनिक बलों को न केवल ट्रेनिंग दी बल्कि उन्हें इंटेलीजेंस एवं लड़ाई की चालें भी सिखाईं।
जहाँ तक भारत का सवाल है अमेरिका दोहरी नीति अपना रहा है। अमेरिका पाकिस्तान को फौजी साजोसामान के साथ 1.5 अरब डॉलर की हर साल मदद दे रहा है, यह जानते हुए भी कि अंततः पाकिस्तान इनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ ही करेगा। लेकिन हम अमेरिका के विरुद्ध कोई शिकायत नहीं कर सकते, क्योंकि अमेरिका भारत के खिलाफ भी नहीं है। बात इतनी है कि किसी भी अन्य मुल्क की तरह अमेरिका अपने बारे में पहले सोच रहा है। जैसा कि मानव इतिहास में हर इंसान और हर देश ने किया है, इसलिए हमें न केवल सैनिक दृष्टिकोण से मज़बूत होना होगा बल्कि हमारी इंटेलीजेंस भी पुख्ता और भरोसेमंद होनी चाहिए ताकि अगली बार जब हमारा पड़ोसी किसी गलत इरादे से हमारे घर में घुस रहा हो तो हम सोते न रह जाएँ। पाकिस्तान ने हमेशा कहा है कि उसकी सरज़मीं से आतंकी गतिविधियाँ नहीं चलने दी जाएँगी। लेकिन सभी जानते हैं कि पाकिस्तान कभी बात का पक्का नहीं रहा इसलिए हमें यह समझना होगा कि अपनी आज़ादी को बनाए रखने के लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं है। हम पाकिस्तान की परमाणु शक्ति को हल्के में नहीं ले सकते। पाकिस्तान के कहने भर से हम यह नहीं मान सकते कि सबकुछ ठीक-ठाक है। इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान के परमाणु बम अल-क़ायदा व अन्य इस्लामिक जेहादी गुटों के हाथों में पड़ सकते हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तानी फौज में मौजूद कुछ तत्वों के चलते भी ये नाभिकीय अस्त्र गलत हाथों में पड़ सकते हैं। इस्लामिक बम कहलाने वाले ये परमाणु बम सिर्फ और सिर्फ भारत को लक्ष्य करने के लिए ही बने हैं, इनका और कोई औचित्य नहीं है। हमारे पास निगरानी की ऐसी प्रणाली होनी चाहिए कि हम किसी भी हमले से अपनी रक्षा कर सकें और हमारे देश तक पहुँचने से पहले ही खतरे को खत्म कर सकें तथा पाकिस्तान के उन एजेंटों को भी पकड़ना होगा, जो भारत के नागरिक बनकर यहाँ रह रहे हैं।

Tuesday, June 9, 2009

तुम्हें हो गया है प्यार...

तुम क्या चीज हो तुम्हें मालूम नहीं है शायद
तुम बदलते हो तो मौसम भी बदल जाते हैं

प्यार; दृश्य एक : सुखांत प्यार

कहीं भी, कभी भी नजरें चार हुईं। दिल धड़के, मोहब्बत हुई और शादी हो गई।
प्यार; दृश्य दो : दुखांत प्यार। नजरें भी मिलीं, दिल भी धड़के मगर शादी नहीं हो पाई। दुखांत प्यार ने क्या दिया? नंबर एक- यादें और आहें। नंबर दो- प्रतिशोध की अग्नि। प्यार का सुखांत हुआ, तो इसका मतलब इति शुभम्‌ ही नहीं। जिस तरह क्रांति करने से ज्यादा दुश्वार है क्रांति को सफल बनाना, उस तरह प्यार करके शादी करने से भी ज्यादा मुश्किल है, उस शादी को ताउम्र निभा जाना। क्योंकि प्यार एक भावना है, एक तूफान है, एक गति है। वह गति, वह आवेग, वह तूफान सबकुछ बहा ले जाता है। रिश्ते, नाते, मुलाहिजे सबकुछ, यहां तक कि समझ को भी। प्यार करने वाले दिलों में जज्बात ही जज्बात होते हैं और जुबान पर इंकलाबी जुमले होते हैं।

प्रेमी-प्रेमिका जब पति-पत्नी में परिवर्तित होते हैं, तब उनके सामने जज्बातों का तूफान थम जाता है। चाँद-तारों और चमन-बहारों की दुनिया गायब हो जाती है। उनके सामने खुरदुरा यथार्थ दो रूप में सामने आता है। पहला, अपने-अपने समीपी नातों की बेरुखी, नाराजगी और असहयोग। दूसरा, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के सवाल।
प्रायः देखा यह गया है कि इन कड़वी सच्चाइयों के थपेड़ों में प्यार की कश्ती डगमगाने लगती है। बाज वक्त तो डूब भी जाती है क्योंकि दोनों को ऐसा लगने लगता है कि कहीं कोई गड़बड़ हो गई है। जिन माता-पिता को प्यार का दुश्मन समझा था, वे याद आने लगते हैं। जिन मुद्दों को प्यार के भावावेश में नजरअंदाज किया था, वे पूरी ताकत से सामने आते हैं।
अतः जो प्रेमी-प्रेमिका बतौर पति-पत्नी अपने प्यार के सुखांत को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें प्यार की लहरों में बहने के पहले बहुत कुछ सोच लेना चाहिए, खासकर सांसारिक धरातल पर। इसके अलावा एक बात और कि कोई शख्सियत मुकम्मल नहीं होती, किसी को सारा जहां नहीं मिलता। शादी के पहले रोमांस के दौर में सामने वाले में कोई कमी नहीं दिखती क्योंकि यह वह दौर होता है, जब दिल ही दिल होता है, दिमाग नहीं। खामियां तो तब दिखती हैं जब दिल की भूमिका खत्म हो चुकी होती है और दिमाग की शुरू होती है। यह एक अति की समाप्ति के बाद, दूसरी अति की शुरुआत होती है। बेहतर यही है कि शुरू से ही दिल और दिमाग दोनों की सुनी जाए। जिसने दोनों की सुनी, उसका पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों ही सुखमय होता है।
अब बात करें प्यार ; दृश्य दो अर्थात दुखांत की। दुखांत के भी अपने कई-कई स्तर होते हैं। एक तो यह कि दिल की दिल में ही रह गई। दिल की बात जुबां तक आ ही नहीं पाई। यह लघुकथा की तरह लघु प्यार होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि इन्होंने भी कही, उन्होंने भी कही। जवाब न इन्हें मिला, न जवाब उन्हें मिला। प्यार की गाड़ी फर्र-फट्ट करके खड़ी रह गई।
प्यार की एक स्थिति यह होती है कि दोनों ने प्यार का इकरार किया। मगर अपने-अपने माता-पिता को कौन समझाए? बीच में दिक्कतें कितनी सारी हैं- माता-पिता का नामालूम रुख, आर्थिक-सामाजिक स्तर में फर्क, जातियों और धर्म के बंधन आदि-आदि। तब ऐसे में कोई देवदास पैदा होता है। कोई पारो पैदा होती है। दोनों जालिम जमाने को कुछ दिनों तक कोसते हैं और फिर अपनी-अपनी दुनिया बसा लेते हैं। दुखांत प्यार यादों के अलावा दो परिणाम भी देता है। पहला- सृजनात्मक और दूसरा- विनाशक या प्रतिशोधात्मक। सृजनात्मक परिणाम प्रेमी-प्रेमिका को बहुत ऊंचाइयों पर ले जाता है। ऐसे असफल प्रेमी जुदाई के गम को भुलाने के लिए अपने आपको किसी ऊंचे मकसद से जोड़ लेते हैं। ऐसे मकसद से जुड़ने वाला आला दर्जे का लेखक, गायक, संगीतकार और वैज्ञानिक बन जाता है।
कभी ऐसा भी होता है कि वह अपने दर्द को छोटा बनाने के लिए दूसरों के दर्द की अनुभूति करता है। यह व्यापकता उसे एक ऐसी दृष्टि देती है कि वह कह उठता है 'भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में इश्क ही एक हकीकत नहीं, कुछ और भी है।' ऐसा प्रेम, प्रेम की ऐसी ऊंचाइयाँ और ऐसी सर्वव्यापी दृष्टि स्तुत्य है, प्रशंसनीय है और अनुकरणीय है। दुखांत प्यार का जो लज्जास्पद पहलू सामने आता है, वह है प्रतिशोध। प्रेमिका के इंकार, प्रेमिका को नहीं पाने की स्थिति में प्रेमी के हृदय में प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला उत्पन्न होती है कि उसका प्रेम पलक झपकते ही गायब हो जाता है। शेष रह जाती है नफरत... नफरत और सिर्फ नफरत। इस नफरत और इंतकाम की आग में जलता आशिक अपनी माशूका को ब्लैकमेल करता है। उसका वैवाहिक जीवन तबाह कर देता है। हद तो तब होती है जब प्रतिशोध की आग में जलता आशिक प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है, उसकी हत्या ही कर देता है। कुल जमा निष्कर्ष यह कि प्रेम का परिणाम सुखांत हो या दुखांत, प्रेम त्याग मांगता है। प्रेम एक तपस्या है। अगर प्रेम सुखांत है तो फिर वैवाहिक जीवन में भी उसकी मजबूती इस तरह होनी चाहिए कि न उसमें पश्चाताप के लिए जगह हो, न उसमें अधूरापन देखने वाली दृष्टि हो और न वह प्रेम दुनियादारी के धक्कों से क्षतिग्रस्त हो।

Monday, June 8, 2009

पिता ने की 5 बच्चों की हत्या

गाजियाबाद। गरीबी से तंग आकर गाजियाबाद में एक व्यक्ति ने अपने पांच बच्चों की कथित तौर पर हत्या करने और पत्‍‌नी को गंभीर रूप से घायल करने के बाद खुदकुशी की कोशिश की।पुलिस के मुताबिक गाजियाबाद की विजय नगर की रोजी कॉलोनी में रहने वाले 38 वर्षीय रवींद्र वर्मा और उसकी पत्‍‌नी दुर्गावती [35] को पड़ोसियो ने सोमवार सुबह सात बजे के आसपास घायल अवस्था में देखा जबकि दंपति के पांचों बच्चे अंजनी [14], प्रीति [10], मोना [8], देवराज [5] और नौ महीने के लकी का शव घर में पड़े थे।पड़ोसियों से सूचना मिलने के बाद मौके पर पहुंची पुलिस ने वर्मा और उनकी पत्‍‌नी को अस्पताल में भर्ती करवाया। दोनों की हालत गंभीर बनी हुई है। क्षेत्रीय अधिकारी आर. के. गौतम ने बताया, 'प्रथम दृष्टया यह अवसाद का मामला लगता है। वर्मा ट्रक चालक था अपने बयान में उसने कहा है कि पिछले दो महीने से वह बेरोजगार था। उसने पहले अपने बच्चों को मारा और फिर पत्‍‌नी एवं खुद को मारने का प्रयास किया।'

काश, हमें एक और हबीब मिल पाएँ....

जब असलियत की ज़मीन पर सार्थक और ईमानदार थिएटर का ख़्याल आता है, हबीब सामने नज़र आते हैं. आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, ग्रामीणों के साथ उनकी ही लोक परंपराओं के ज़रिए उन्हीं के दर्द को उकेरते रहे हबीब साहब.चाहे चरणदास चोर, पोंगा पंडित के ज़रिए समाज में व्याप्त अंधविश्वास और पाखंड पर आधारित मुद्दों को सामने लाना रहा हो, मृछकटिकम, राजरत्न का वर्ग विभेद और नारी विमर्श हो, आगरा बाज़ार के ज़रिए कल और आज और आने वाले दिनों के बाज़ार के अंदर झांकने और गहरे घावों को सामने लाने का मसला रहा हो, हबीब अपनी बात और काम के ज़रिए मील का पत्थर बन गए हैं.रंगयात्रा के यह पितामह उस दौर में प्रगतिशील थिएटर समूह, इप्टा से जुड़कर काम कर रहे थे जब मंबई में पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर का डंका बज रहा था.पर भारी सेटों का पृथ्वी थिएटर जब लोगों के बीच जा पाने में असमर्थ था, झोलों में नाटक की सामग्री समेटे हबीब लोगों के बीच जाकर, उनकी भाषा शैली में उनके मुद्दों पर नाटक करते थे.

लोक संवाद शैली:-लंदन की रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रेमेटिक आर्ट्स से थिएटर पढ़कर लौटे हबीब आसान और पैसे, चमक वाले आधुनिक थिएटर या सिनेमा की ओर नहीं बढ़े, बल्कि लोक परंपराओं के साथ सदियों से चली आ रही संवाद शैलियों को अपने काम का आधार बनाया.


आगरा बाज़ार
मंच पर एक ओर क्रांतिकारी कवि गदर होते थे और दूसरी ओर हबीब साहब की टीम

वो दिल्ली के बड़े सभागारों में, ड्रामा संस्थानों में और अकादमियों में सिमटने के बजाय सीधे आदिवासियों, दलितों, मजदूरों के बीच जाकर काम करते रहे। यही उनके काम और रंगमंच को उनके योगदान की सबसे पहली पहचान है.आतंकवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद, नारी विमर्श, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद जैसे मुद्दों पर काम करते हुए हबीब साहब ने कभी भी अपनी विचारधारा के साथ समझौता नहीं किया.हालांकि अपने इस तेवर और कलेवर के कारण उनके विरोधियों, ख़ासकर राजनीतिक विरोधियों की एक लंबी सूची भी रही. कितने ही नाटकों के मंचन के दौरान उनकी टीम पर हमले हुए, प्रस्तुतियां रोकने की कोशिश की गईं. उनको कई तरह के ख़तरे भी रहे पर हबीब डटे रहे, नाटक करते रहे.भारतीय थिएटर में ऐसे लोग कम ही हैं, जिन्होंने हबीब तनवीर जितना अध्ययन किया हो, थिएटर और रंगकला को उतना पढ़ा-समझा और प्रशिक्षण लिया हो.हालांकि मील के इस पत्थर की राह पर रंगकर्मियों के कम नाम ही चलते नज़र आते हैं. बल्कि कुछ प्रगतिशील रंगकर्मियों और समूहों को छोड़ दें तो नाटक दिल्ली और मुंबई के वातानुकूलित सभागारों तक सिमटे नज़र आते हैं.

हबीब तनवीर... जैसा मैंने उन्हें देखा:लिंकन जैसे धंसे गालों वाले चेहरे में काले पड़ रहे होठों में हमेशा एक पाइप धंसा रहता था. जिससे धुँआ कभी कभी उठता था. बाकी वक़्त या तो वो कुछ सोच रहे होते थे या आसपास बैठे लोगों से मुख़ातिब होते थे.


हबीब तनवीर
लिंकन जैसे धंसे गालों वाले चेहरे में काले पड़ रहे होठों में हमेशा एक पाइप धंसा रहता था.

पहनावे से लेकर खान-पान तक कहीं से भी ऐसा नहीं लगता था कि इतनी ऊंची हस्ती के साथ हम बैठे हैं. बेहद सादा और ज़रूरत के मुताबिक.मुझे याद है, वर्ल्ड सोशल फ़ोरम के दौरान मुंबई में मुंबई प्रतिरोध नाम से भी कुछ लोग इकट्ठा हुए थे, यह भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के ख़िलाफ़ खड़े लोगों का वो समूह था जो डब्ल्युएसएफ़ की एनजीओ राजनीति से सहमत नहीं था.हबीब यहाँ अपने नाटकों के साथ आए. तब मंच पर एक ओर क्रांतिकारी कवि गदर होते थे और दूसरी ओर हबीब साहब की टीम. और जितनी देर ये लोग मंच पर होते थे, पंडाल में मानो सम्मोहन का जादू हो जाता था.

आगरा बाज़ार:उनके नाटक भोपाल में भी देखे. लखनऊ में भी. हर जगह एक मज़बूत और स्पष्ट राजनीतिक तैयारी और संदेश के साथ आते थे हबीब साहब. बेगूसराय के प्रगतिशील लेखक संघ के लोगों से या पटना के साहित्य जगत से पूछिए, हबीब क्या चीज़ थे.हबीब साहब के कुछ नाटक जामिया यूनिवर्सिटी में भी हुए. अपार भीड़ वाले. दिल्ली में किसी और रंगकर्मी के नाटक के लिए इतनी भीड़ मैंने कभी नहीं देखी. पिछले साल दिल्ली में एक खुले मंच पर आगरा बाज़ार का मंचन हुआ. पानी बरसा, आंधी आई पर सैकड़ो लोग हबीब साहब के आगरा बाज़ार से मिलने आए.पर इसी दिल्ली में कुछ ही दिनों बाद हैबिटेट सेंटर में उनके नाटक पोंगा पंडित का मंचन हुआ. दिल्ली के पेज थ्री के कई चेहरे, बड़े धनाढ्य घरों के मेक-अप में लिपटे चेहरे और शाम को शौंकिया कुर्ता पजामा पहनकर लोग बड़े नाम का नाटक देखने पहुँचे.पर लोक धुनों में सजा गंभीर विमर्श वाला यह नाटक और इसके ग्रामीण पात्र कला और संस्कृति की ग्लोबल दुकानों के ख़रीदारों को समझ नहीं आया। नाटक के दौरान ही आधे से ज़्यादा लोग उठकर बाहर जा चुके थे.दरअसल, मीडिया में कुछ मिनटों, कॉलमों में हबीब के जाने की ख़बर बताई जाएगी और औपचारिकता पूरी हो जाएगी पर दिल्ली के इस संभ्रांत वर्ग की तथाकथित सांस्कृतिक मुख्यधारा हबीब तनवीर के काम का आकलन और भरपाई शायद ही कर पाए.

Friday, June 5, 2009

नारी शक्ति के लिए यह है शुभ संकेत

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल

आज भारत की नारी शक्ति उसी तरह जश्न मनाने की अधिकारिणी है जैसे वह महिला दिवस पर मनाती है। देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन होकर आज बेहद शालीनता से उसने अपनी आवाज बुलंद की है। संसद में भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के संबोधन के साथ ही पहली महिला स्पीकर मीरा कुमार और भारत के सबसे बड़े दल कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी की त्रिवेणी ने एक विलक्षण संयोग का निर्माण किया है।
भारत की आधी आबादी आज भी आरक्षण के लिए भारतीय राजनीति की मुखापेक्षी है ऐसे में संसंद में बड़ी संख्या में महिलाओं का आगमन और साथ ही शीर्षस्थ पदों पर उनकी गरिमामयी उपस्थिति एक सुखद बदलाव का भीना संकेत देती है। हम उम्मीद करें कि संसद में मौजूद महिला वर्चस्व इस बार आरक्षण बिल को किसी छद्म राजनीति का शिकार नहीं होने देगा। यह उम्मीद इसलिए भी मजबूत हो रही है कि राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में 100 दिन के भीतर महिलाओं को संसद तथा विधान मंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक लाने की बात कही है।
मीरा कुमार
अगर यह मुमकिन होता है तो नि:संदेह भारतीय राजनीति की एक आकर्षक उपलब्धि के रूप में दर्ज होगा। यह अवसर है, सभी पदासीन महिलाओं के लिए कि वे न सिर्फ अपनी दक्षता को, नेतृत्व क्षमता को देश के समक्ष सिद्ध करें वरन उन सभी भ्रांतियों और कहावतों को भी मुँह तोड़ जवाब दें जो उनका कमजोर आँकलन करती है। नारी की विनम्रता को उसकी दुर्बलता और सहज सौम्यता को रिझाने का उपक्रम समझने वालों के लिए आज दोबारा सोचने का समय है। वह समय जो अब तक या तो नारी को दमित-प्रताडि़त करने में गुजरा या संकीर्णताओं के दायरे में उसका विश्लेषण करने में गुजरा वह अब लौट नहीं सकता मगर आज और आने वाला वक्त यह कह रहा है और बेहद स्पष्टता से कह रहा है कि उसका मूल्यांकन करने के बजाय बस सौजन्यता के नाते थोड़ी जगह कर दी जाए। वह स्वयं सिद्ध कर सकती है अपनी अस्मिता को, अपने अस्तित्व को।
सोनिया गाँधी

सहारा उसे नहीं चाहिए, साथी बनने के लिए वह तैयार है। स्त्रीत्व के यश और कीर्ति की ध्वजाएँ अब एक नए आसमान में फहराने-लहराने के लिए परिपक्व हो गई है। यह एक अति शुभ संकेत है भारत की नारियों के लिए कि उनकी खामोशी भी अब व्यापक स्तर पर मुखर हो गई है। बिना कुछ कहे वह कर दिखाने में विश्वास करने लगी है।
सर्वोच्च पदों की इस पवित्र त्रिवेणी से एक नई गंगा प्रस्फुटित होगी, यह हम सभी की आशा है। आज हर संवेदनशील स्त्री मन में आत्मविश्वास की, उम्मीदों की और आकांक्षाओं की एक नई किरण ने आकार लिया है। लेकिन यह समय आत्ममुग्धता से कहीं अधिक भविष्य की चुनौतियों को समझने का है। क्योंकि अभी तो यह पहली मंजिल है, आगे और मुकाम है जिन्हें हासिल करना है। बिना थके, बिना रूके और बिना झुके। स्मृति जोशी
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला हैं मुझे

दिल धड़कता नहीं तपकता है
कल जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे

हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे

Thursday, June 4, 2009

गहराती ही जाएगी वित्तीय आपदा

दुनिया में छाई आर्थिक मंदी और उसके संताप से राहत दिलाने वाली योजनाएँ बनती रहती हैं और स्थितियाँ भी राहत का संदेश देते हुए बदलती रहती हैं, लेकिन उनसे संतुष्ट होने या उम्मीदें बाँधना गलत होगा। संकट दो-चार साल में पैदा नहीं हुआ है इसलिए कोई जादुई समाधान हो भी नहीं सकता। चार अलग-अलग आधिकारिक स्रोतों से 2009-2010 के लिए जो निष्कर्ष निकल रहे हैं उनसे भी यही संकेत मिलता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के बनाए वैश्विक संकट पर रिपोर्ट देने वाले आयोग, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक और भारतीय रिजर्व बैंक ने विकसित और विकासशील देशों को आने वाले दिनों में और अधिक सावधानी बरतने के लिए कहा है। विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि 2009-2010 के वर्ष द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आए आर्थिक संकटों की अपेक्षा अधिक भयावह होंगे। विश्व बैंक ने वैश्विक अर्थव्यवस्था का विषादपूर्ण चित्रण करते हुए कहा है कि विश्व के 20 देशों में से 17 देश संरक्षणवादी नीति अपनाए हुए हैं। वे सीमा शुल्क बढ़ाने के अलावा विश्व बाजार में अपना माल सस्ता बेचने के लिए सबसिडी दे रहे हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2009 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2 प्रतिशत की कमी आएगी। यदि विकसित देशों ने अपनी संरक्षणवादी प्रवृत्तियाँ नहीं छोड़ीं तो विश्व की गरीब जनसंख्या में 20 करोड़ लोगों की आबादी और जुड़ जाएगी।
भारत और चीन भी अमेरिका को किए जा रहे निर्यात घटने के कारण मंदी की मार से नहीं बच सकेंगे। उनकी विकास दर में भी भारी कमी आएगी। विश्व बैंक का अनुमान है कि गरीब देशों को इस वर्ष 70 करोड़ डॉलर तरलता की कमी का सामना करना पड़ सकता है। 116 विकासशील देशों में 94 देश ऐसे हैं जिनमें भारी मंदी आई है या आएगी। वैश्विक मंदी से पाँच करोड़ नौकरियाँ खत्म हो जाएँगी और अकेले दक्षिणी गोलार्द्ध में साढ़े चार करोड़ अतिरिक्त लोग भुखमरी के कगार पर पहुँच जाएँगे। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रबंध निदेशक डॉमिनिक स्ट्रास कॉन ने अपने आकलन में वैश्विक विकास की दर इस साल नकारात्मक बताई है। इस कारण समूचे संकट के आग की तरह दुनिया में फैलने की चेतावनी दी है। कॉन के अनुसार उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर इस संकट की दोहरी मार पड़ी है। एक तरफ उनका निर्यात घटा है तो दूसरी ओर उनके यहाँ पूँजी प्रवाह के स्रोत बंद हो गए हैं। पिछले दो दशकों में आर्थिक वृद्धि की जो दर हासिल हुई थी, वह घटने लगी है।
मुद्राकोष की विशेष चिंता यह है कि वित्तीय संकट आने वाले दो वर्षों में कम आय वाले देशों में प्रवेश कर जाएगा और लाखों की संख्या में लोग एक बार फिर गरीबी की चपेट में आ जाएँगे। उनके अनुसार 2010 तक वैश्विक नुकसान 40 खरब डॉलर को भी लाँघ जाएगा। अकेले अमेरिका को करीब 30 खरब डॉलर का नुकसान होगा। इंग्लैंड के वित्त मंत्री भले ही कहें कि उनका देश इस संकट से प्रभावित नहीं होगा, लेकिन मुद्राकोष का कहना है कि इंग्लैंड की नई घरेलू बचत में घाटा 13 प्रतिशत की सीमा को लाँघ जाएगा और 2009 में विकास दर में 3.3 प्रतिशत गिरावट आएगी। यूरो क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का हाल और बुरा होगा जो 2009 और पुनः 2010 में 4.2 प्रतिशत सिकुड़ेगी। भारत के संबंध में मुद्राकोष ने अधिक सावधानी बरतने की बात करते हुए संभावना व्यक्त की है कि बैंकों को करीब 61 प्रतिशत बुरे कर्ज निरस्त करने पड़ सकते हैं।
यद्यपि भारतीय रिजर्व बैंक ने इतना भयावह चित्रण प्रस्तुत नहीं किया है, लेकिन 2009-2010 के लिए निराशावादी दृष्टिकोण अपनाया है। अप्रैल-जून में व्यवसाय पिछले सूचकांक की तुलना में 14 प्रतिशत घटा है। रिजर्व बैंक ने विकास दर घटने का अनुमान लगाया है और मध्यावधि के थोक मूल्य सूचकांक में 3 प्रतिशत की वृद्धि की है, जबकि खुदरा मूल्य में बढ़ोतरी 10 प्रतिशत बनी हुई है। ऐसी स्थिति में 3 प्रतिशत की मुद्रास्फीति कोई मतलब नहीं रखती। रिपोर्ट ने रैपो रेट में डेढ़ प्रतिशत और रिवर्स रैपो रेट में .25 प्रतिशत की कमी कर यह संदेश जरूर दिया है कि अर्थव्यवस्था को प्रेरित करने के लिए अधिक तरलता की आवश्यकता है। यह उभरकर आया है कि विश्व के समृद्ध देश अब अकेले विश्व अर्थव्यवस्था की ढाँचागत समस्याओं को सुलझाने में अक्षम हैं। इन समस्याओं को हल करने के लिए भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, मैक्सिको और इंडोनेशिया जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्थाओं को मदद की जरूरत होगी, जिनका वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास में लगभग 2.5 भाग का योगदान है। ध्यान रहे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की स्थापना के समय यह कल्पना की गई थी कि वह व्यापार संकट से निपटने के लिए नकदी प्रवाह का स्रोत बनाए रखेगा। लेकिन इसने एक 'छाया-साहूकार' के तौर पर काम किया है जो विकासशील देशों के तमाम मंत्रालयों को अपनी शर्तों पर काम करने के लिए सार्वजनिक सेवाओं में होने वाले खर्चों में कटौती कराते हुए वैश्विक पूँजी के लिए रास्ते खोल दे। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ज्योफरी ने एशियाई देशों को दी गई सलाह के संदर्भ में यह याद दिला दी है कि 'जब भी ये वित्तीय संस्थाएँ तारीफ करें, उस समय संभल जाओ' फिलीपिंस के प्रोफेसर वाल्डेन बेला ने अपनी पुस्तक ड्रेगंस इन डिस्ट्रेस (अजगर की पीड़ा) में दक्षिण पूर्व के देशों की अर्थव्यवस्था के कारकों की चर्चा करते हुए सलाह दी है कि विश्व बैंक और मुद्राकोष की 'जादुई गोली' या झोला छाप डॉक्टरों द्वारा हर तकलीफ में एस्प्रिन की दवा के समान उपचार करने की विधि से सावधान रहा जाए। सार यह है कि जब तक मुद्राकोष और विश्व बैंक का पुनर्गठन होने के साथ-साथ कोटा निर्धारण, विशेष निकासी अधिकार और सहायता राशि के वितरण में विषमता और अन्यायपूर्ण व्यवहार दूर नहीं होगा, तब तक विश्व के 116 गरीब देश 2010तक उठने की राह नहीं देख सकेंगे। अनेक देश दिवालिए हो जाएँगे और संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जब तक कदम उठाएँगे बहुत देर हो चुकी होगी। आज की आवश्यकता यह है कि वैश्विक आर्थिक संयोजन परिषद का गठन किया जाए जो विभिन्न देशों द्वारा दिए जा रहे उद्दीपन पैकेज और उठाए जा रहे कदमों के बीच समन्वय स्थापित कर सके। संतोष का विषय है कि विकासशील देशों को अधिक तरलता प्रदान करने के लिए मुद्राकोष ने बांड बेचने का निर्णय लिया है। भारत दस अरब डॉलर की सिक्योरिटी (बांड) खरीदेगा। लेकिन अब समय आ गया है कि मुद्राकोष अपने पास रखे सोने को भी बेचे और उस राशि से गरीब देशों को भी ऊपर उठाने में सहायता करे।

धारदार सुरक्षा नीति जरूरी

भारत की नवनिर्वाचित सरकार को सबसे पहले हमारे देश के पड़ोस में बढ़ती अस्थिरता, परिवर्तनशीलता और हिंसा की समस्या से निपटना होगा। हमारे पश्चिम में पाकिस्तानी सेना राजधानी इस्लामाबाद के ठीक बाहर अनिच्छा से तालिबान के खिलाफ एक मुश्किल लड़ाई लड़ रही है, जबकि लाखों शरणार्थी अपने घरों से भागने पर मजबूर हो रहे हैं। साथ ही, लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे कट्टरपंथी इस्लामी गुट, जिन्होंने लंबे समय से भारत के खिलाफ जेहाद छेड़ा हुआ है, न केवल तालिबान के समर्थन में उतर आए हैं बल्कि भारत के खिलाफ अपना जेहादी एजेंडा भी बरकरार रखे हुए हैं। पाकिस्तानी सेना में ऐसे तत्वों की मौजूदगी से इंकार नहीं किया जा सकता, जो पाकिस्तान सरकार का ध्यान तालिबान के खिलाफ लड़ाई से हटाना चाहते हैं। साथ ही भारत में आतंकी हमले करने और भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ाने की दिशा में अग्रसर होना चाहते हों। नई सरकार को दुश्मनी निभाने वाले पड़ोसियों को सतर्क करने के लिए अपने सशस्त्र बलों के लिए तेजी से अनिवार्य नए साजो-सामान जुटाने चाहिए, आंतरिक सुधार लाने चाहिए और देश के खुफिया तंत्र को मजबूत बनाना चाहिए।
हालिया आम चुनाव में श्रीलंकाई सेना द्वारा लिट्टे के संहार के बीच पिस रहे श्रीलंका के आम और निर्दोष तमिलों के कष्टों पर तमिलनाडु में तीव्र जनभावनाएँ भड़कते हुए देखने को मिली। भारत को श्रीलंका में विस्थापित तमिलों की मदद के लिए व्यापक पुनर्वास अभियान शुरू करना होगा। इसके साथ ही श्रीलंका सरकार को 1987 के राजीव गाँधी-जयवर्धने समझौते को लागू करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करनी होगी, जो श्रीलंका के तमिलों को प्रतिनिधि स्वशासी संस्थानों के साथ आत्मसम्मान के साथ जीवन बिताने का अधिकार देता है।
इसी तरह नेपाल से ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि निवर्तमान प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड के नेतृत्व में माओवादी सरकार ने चीन के साथ एक नया संबंध कायम करते हुए न्यायपालिका और सेना जैसे संस्थानों पर प्रभुत्व कायम करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में रुकावट डालने की योजना बनाई जिससे भारत की सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि माओवादी नेपाल में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ध्वस्त न करें या ऐसी स्थिति न उत्पन्न होने दें कि माओवादी चीनियों को भारत की सीमाओं के नजदीकी इलाकों तक पहुँचा सकें। हालाँकि भारत की चिंता का मुख्य विषय अभी चीन द्वारा पड़ोसी देशों में भारतीय प्रभाव को कमजोर करने की कोशिशें हैं। चीन, पाकिस्तान को अधिक परिष्कृत प्लूटोनियम आधारित परमाणु हथियार बनाने में मदद देने के अलावा उसे लड़ाकू विमानों और लड़ाकू जहाजों सहित परिष्कृत रक्षा उपकरणों की आपूर्ति जारी रखे हुए है। चीन ने अमेरिका को भी प्रेरित करने की कोशिश की कि वह कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ चर्चा करने के लिए भारत पर दबाव डाले। भारत को घेरने और अपने पड़ोसियों के साथ रिश्तों में समस्याएँ उत्पन्न करने की इन चीनी कोशिशों के अलावा चीन अब सीमा विवाद पर युद्ध करने के लिए उतारू होता जा रहा है। वह लगातार इस बात पर जोर दे रहा है कि अरुणाचल प्रदेश 'दक्षिणी तिब्बत' का एक हिस्सा है जिस पर भारत ने 'कब्जा' किया हुआ है। मुंबई में 26/11 के आतंकी हमलों के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमिटी द्वारा चलाए जा रहे संस्थानों के चीनी विद्वानों ने चेतावनी दी कि अगर भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कोई दंडात्मक सैन्य कार्रवाई की तो चीन हमला करके अरुणाचल प्रदेश को 'आजाद' करा सकता है।
इससे बदतर स्थिति यह है कि चीन ने भारत को एशियाई विकास बैंक से लगभग 10,000 करोड़ रुपए की विकास संबंधी सहायता का एक पूरा कार्यक्रम रुकवा दिया है, सिर्फ इसलिए कि उस मदद में अरुणाचल प्रदेश में विकास संबंधी परियोजनाओं के लिए भी पैसा शामिल था। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि चीन के साथ हमारी सीमाओं तक की सड़कें और संचार तंत्र बहुत बुरी हालत में हैं। उत्तराखंड जैसे राज्य में मानसून के दौरान अकसर ये रास्ते भूस्खलन होने से बंद हो जाते हैं जबकि चीनियों ने नेपाल और भारत के साथ लगी अपनी सीमाओं तक बढ़िया सड़कें बनाई हैं। आजादी के छः दशक बाद भी चीन से लगी सीमाओं पर हमारी संचार व्यवस्था बुरी हालत में है।
आने वाली कांग्रेस गठबंधन सरकार को चीन के साथ लगी हमारी सीमाओं पर यातायात और संचार की व्यवस्था में सुधार लाना होगा। इसके अलावा चीन अपनी रक्षा क्षमताओं को सुधारने और उसके आधुनिकीकरण के एक व्यापक कार्यक्रम में जुटा हुआ है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके सुरक्षा बल वर्तमान से अधिक बेहतर हों। चीन के इरादे परमाणु पनडुब्बियों और विमान वाहकों के साथ ही अपनी नौसेना को विकसित करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, उनसे और हिन्द महासागर में अपनी सेनाएँ तैनात करने से भी स्पष्ट हो जाता है कि हमें अपनी नौसैनिक क्षमताओं को सशक्त बनाने के लिए रूस के साथ गठजोड़ को और तेजी देनी चाहिए। कूटनीतिक रूप से भारत को अपने देश के भीतर बुनियादी ढाँचे को विकसित करने के लिए जापान जैसे देशों के साथ सहयोग बढ़ाना होगा, जो चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है।
अब समय है कि भारत, चीन के साथ अपने रिश्तों में सुरक्षात्मक रवैया अपनाना छोड़ दे। अगर चीन, पाकिस्तान और नेपाल जैसे पड़ोसियों के साथ भारत के मतभेदों का लाभ उठाना चाहता है तो भारत को भू-भाग संबंधी मुद्दों पर वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्रुनेई और फिलीपींस जैसे पड़ोसियों के साथ चीन के मतभेदों को भुनाने में हिचकना नहीं चाहिए। अगर चीन, पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों को मिसाइल की आपूर्ति द्वारा भारत को काबू में रखना चाहता है तो भारत को निश्चित तौर पर अपनी ब्रह्मोस मिसाइलों की आपूर्ति वियतनाम जैसे चीन के पड़ोसियों को करने में संकोच नहीं करना चाहिए ताकि वे अपनी समुद्री सीमाओं के साथ बलपूर्वक अपने दावे रखने के चीन के इरादों को नियंत्रित कर सकें। चीन राष्ट्रीय ताकत को महत्व देता है 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' जैसी भावनाओं को नहीं। चीन या कोई और देश भी हो यदि भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखता है तो उससे निपटने के लिए अधिक तार्किक और धारदार नीतियाँ अपनानी जरूरी हैं। खतरों के प्रति बचाव की मुद्रा हमेशा ाभदायक नहीं होती है। खासतौर से सुरक्षा के मामलों में तो और भी नहीं। इस क्षेत्र में तो आप बचाव के बजाय आक्रामक बनेंगे तो ही जीत है।

तंबाकू से हर साल मरते हैं 54 लाख लोग

दुनिया में धूम्रपान और तंबाकू सेवन से करीब 54 लाख लोग प्रतिवर्ष काल के गाल में समा जाते हैं। इनमें से आठ से दस लाख लोगों की अकेले भारत में ही मृत्यु हो जाती है। गैरसरकारी संस्था गंगाप्रेम हास्पिटल के कैंसर केयर ट्रस्ट के संयोजक और प्रमुख कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. एके दीवान ने 'वर्ल्ड नो टोबैको डे' के अवसर पर यहाँ बताया कि देश के अधिकांश लोग बीड़ी पीने, गुटका खाने और तंबाकू का धुआँ अपने अंदर ग्रहण करने से होने वाली बीमारियों के प्रति अनभिज्ञ हैं। उन्होंने कहा कि आश्चर्यजनक स्थिति यह है कि दुनिया के अन्य हिस्सों में तंबाकू से होने वाले कैंसर के मामले में जहाँ एक तरफ कम हो रहे हैं, वहीं भारत में तंबाकू से होने वाले कैंसर रोगियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। डॉ. दीवान ने कहा कि विभिन्न आँकड़ों के अनुसार देश में करीब 15 करोड़ पुरुष और साढे़ तीन करोड़ महिलाएँ तंबाकू या उनसे बने हुए उत्पादों का सेवन करती हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया में प्रति छह सेकंड में एक व्यक्ति तंबाकू से हुए कैंसर के चलते मरता है। कैंसर के सभी रोगियों में तीस प्रतिशत मृत्यु तंबाकू के चलते हुए कैंसर रोगी की होती है, जबकि फेफडे़ के कैंसर के 80 प्रतिशत मामलों का कारण तंबाकू ही होता है। दुनिया में 31 मई को तंबाकू निषेध दिवस मनाया जाता है। डॉ। दीवान ने कहा कि तंबाकू में करीब चार हजार प्रकार के विषाक्त पदार्थ पाए जाते हैं। उन्होंने बताया कि देश में तंबाकू से होने वाली बीमारियों के इलाज पर देश में प्रतिवर्ष एक आकलन के मुताबिक करीब 277 अरब रुपए खर्च किया जाता है। इसमें कैंसर के इलाज पर होने वाला खर्च भी शामिल है। डॉ. दीवान ने कहा कि सरकार की ओर से हालाँकि तंबाकू सेवन की रोकथाम के लिए कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं, लेकिन वे अपने में नाकाफी हैं।
वर्ष 1995 में संसद की एक स्थायी समिति ने सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान करने पर प्रतिबंध और तंबाकू से संबंधित विज्ञापनों के प्रदर्शन पर रोक की सिफारिश की थी।उन्होंने तंबाकू के प्रयोग के खिलाफ चित्र के साथ चेतावनी प्रकाशित करने पर जोर दिया और कहा कि सिगरेट के पैकेट पर कम से कम चालीस प्रतिशत हिस्सा चित्र का होना चाहिए और बाकी सिगरेट कम्पनी का अपना नाम या अन्य चीज हो। लोगों में तंबाकू के प्रयोग को रोकने के लिए तंबाकू से बने सामानों को और अधिक महँगा करने पर बल देते हुए डॉ। दीवान ने कहा कि जब भी इन सामानों को महँगा किया जाता है तो मध्य वर्ग के करीब सात प्रतिशत और उच्च वर्ग के करीब तीन प्रतिशत लोग इसका उपयोग कम कर देते हैं। उन्होंने कहा कि विभिन्न देशों द्वारा उठाए गए कदम से तंबाकू और उससे बने उत्पादों के उपयोग कम होने के प्रमाण सामने आए हैं। इन कदमों में मुख्य रूप से कर बढ़ाया जाना, विज्ञापन पर रोक लगाना, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान रोकना तथा चेतावनी प्रकाशित करना शामिल है। डॉ. दीवान ने कहा कि आश्चर्यजनक स्थिति यह है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर पहले से ही भारी दबाव है। इसके बावजूद तंबाकू के प्रयोग को रोकने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए जाते। हकीकत यह है कि तंबाकू उत्पाद बनाने वाली कम्पनियाँ कभी भी अपने उत्पादों से होने वाली 20 बीमारियों के भयावह सत्य को उजागर नहीं होने देतीं।