rashtrya ujala

Wednesday, March 10, 2010

बदन से सरकते कपड़े---

बदन से सरकते कपड़े , जी हाँ आजके वर्तमान परिवेश में आपको आसानी से दिख जायेगा । अब ये आपको हर गली नुक्कड़ , बाजार हो या शोपिग माल छोटे कपड़ो मे लड़कियां आपको आसानी से दिख जायेंगी । कल तक छोटे कपड़े रैंप पर कैटवाक करती मॉडल्स अपने डिजाइनर्स के कलेक्शन को पेश करने के लिए पहनती थीं, लेकिन आजकल ऐसे कपड़े आम शहरी लड़कियाँ भी पहन रही हैं। जो दिखता है, वही बिकता है' की तर्ज पर अब लड़कियाँ भी 'बिंदास बाला' की छवि में खुद को ढालती जा रही हैं और बेझिझक अपने मांसल सौंदर्य का प्रदर्शन कर लोगों की वाहवाही बटोर रही हैं। और हर जगह कहती फिरती है कि ये हमारा हक है । ठिक है हक और भी तो है , तो क्या इस हक की जरुरत ज्यादा है इनकों । ऐसे कपड़ो में घुमती फिरती है और कहती है कि "Am I Looking hot and sexy ?" और अगर आप ने हाँ कह दिया तो क्या हौसले और भी बुलंद ।
अभी कुछ दिनों पहले की बात है मै टी वी देख रहा था , की अचानक मेरी नजर इड़िया टीवी पर पड़ी और देखा किसी अदालत नामक सीरियल पर पड़ी , जहाँ एक एपिसोड में एक कटघरे में स्वामी बाबा रामदेव थे औत दूसरे कटघरे में बोलीवुड की आइटम गर्ल समंभावना सेठ और कश्मिरा शाह थी । मुद्दा चल रहा था भारतीय संस्कृति को लेकर , तो बाबा जी कह रहे थे कि ये जो आप कम कपड़ो मर डांस करती है ये अच्छा नहीं होता । इसपर समंभावना सेठ ने कहा कि बाबा अभी शर्त लगाईये , यही नाचूँ और हर मर्द खड़े होकर ताली बजाने पर मजबूर ना हो जायें तो कहिएगा । इस पर बाबा जी चुप हो गये । अब आप ही बताईये अगर वहाँ मर्द होंगे तो ऐसे नित्य पर तालियाँ तो बजेंगी ही । छोटे कपड़े पहनकर अपने बदन की सुंदरता का प्रदर्शन करना युवा लड़कियों के लिए अब एक फैशन बन गया है। जिसका बदन जितना अधिक दिखेगा उसे लोग उतना ही सुंदर व सेक्सी कहेंगे। अब लड़कियों के लिए 'सेक्सी' संबोधन एक अपशब्द नहीं बल्कि सुंदरता का पैमाना बन गया है। एक समय था जब हम और आप या कोई भी सेक्सी शब्द कहने में शर्म महशुस करता था , परन्तु एक समय आज है कि ऐसे शब्दो का प्रयोग करना मतलब इज्जत देना । फैशन शो, फिल्मी अभिनेत्रियों के कपड़े आदि सभी युवा लड़कियों को ग्लैमर के रंग में ढाल रहे हैं। कल तकमल्लिका शेरावत व राखी सावंत के छोटे कपड़े दर्शकों को आँखे मूँदने पर मजबूर करते थे परंतु आज सबसे ज्यादा माँग इन्हीं बिंदास अदाकाराओं की है। शर्म की बात है ना , जो हमारे संस्कृति को धूमिल करने मे लगा है उसकी माँग मार्केट मे सबसे ज्यादा है । कल तक हम बस फिल्मो में इन्हे देख पाते थे परन्तु अब इनकी परछाई हर जगह आसानी से दिख जाती है ।
ऐसे छोटे कपड़ो की माँग भी नित्य ही बढ़ती जा रही है , । अब आप बाजार या कपड़े की दूकानं पर जायेगे तो सबसे पहले स्कर्ट या इस प्रकार के ही छोटे कपड़े दिखेंगे । मुंबई की मायानगरी से निकलकर ग्लैमरस कपड़ों का फैशन बड़े-बड़े महानगरों तक पहुँचता जा रहा है, जहाँ शोरूम में सजने के बाद सर्वाधिक बिक्री उन्हीं कपड़ों की होती है जिनकी लंबाई कम व लुक ट्रेंडी होता है। यही नहीं महानगरों के नामी स्कूलों, कॉलेजों, एयर होस्टेस एकेडमी आदि का ड्रेस कोड ही मिनी स्कर्ट-टॉप व फ्रॉक बन गए हैं। कल तक घर-गृहस्थी संभालने वाली लड़कियाँ भी अब फैशन शो व सौंदर्य प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं और नए फैशनेबल वस्त्रों के अनुरूप अपने बदन को ढाल रही हैं। अब जब माँ अपनी बेटी को सलवार-कमीज पहनने को कहती है तो बेटी शान से कहती है कि 'माँ, अब तुम भी बदल जाओ। आज तो स्कर्ट व कैप्री का दौर है। सलवार-कमीज तो गाँव की लड़कियाँ पहनती हैं।' बुद्धि से बच्चे भले ही बड़े न हों, पर पहनावे से आजकल की किशोरियाँ अपनी उम्र से बहुत अधिक बड़ी हो गई हैं। यह सब बदलते दौर की 'फैशन' का प्रभाव है जिसने भारतीय संस्कृति की छाप को मिटाकर सिर से आँचल व पैरों से पायल को लुप्त कर दिया है ,आजकल का फैशन ही शार्ट स्कर्ट, शार्ट फ्रॉक्स आदि हैं।
जो फैशन बाजार में दिखता है, वही बिकता है। इसी तर्ज पर आज छोटे कपड़े युवतियों की पहली पसंद बन गए हैं। । भला जिस भावी पीढ़ी का नेतृत्व रिया सेन, किम शर्मा व राखी सावंत जैसी अभिनेत्रियाँ करें उस पीढ़ी की युवतियाँ पूरे शरीर को ढँकने वाले लंबे कपड़े कैसे पहन सकती हैं?

Monday, March 8, 2010

अजब का आरक्षण

13 साल े एक जंग लड़ी जा रही है आबादी के आधे हिस्से द्वारा। महिला आरक्षण विधेयक के साथ ही एक किरण जन्म ले रही हैं कि आधी आबादी अपना हक पाने में सफल रहेगी। लेकिन एक बात जो अब तक समझ में नहीं आई कि इसका 13 सालों तक विरोध क्यों होता रहा? क्यों नहीं लागू हो सका ये अब तक? क्या महिला आरक्षण इतना भयावह है कि देश के कई नेता इसके लागू होने पर असुरक्षित हो जाएँगे? क्या महिलाएँ फिर इनके बस में नहीं रहेंगी?
या फिर हम इस तरह सोचें कि क्या इसके लागू होने भर से महिलाओं को सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी? क्या सचमुच महिला आरक्षण बिल उन्हें इतना सशक्त कर देगा कि फिर कोई प्रतिभा दमन और हक मारने की गलत इबारत नहीं लिख सकेगा। सच थोड़ा सा अलग है। असल में इस बिल के बाद एक दूसरी जंग शुरू होगी।
कब हो सकेगा लागू? ;यह बिल संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण राज्यसभा और लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना जरूरी है। इसके बाद, आधी विधानसभाओं (15) से दो-तिहाई बहुमत से पास होने के बाद यह कानून का रूप धारण कर सकेगा।
अगर हो गया लागू ;इस विधेयक के बाद हर 10 साल में चुनावी सीटों पर रोटेशन होगा।। इस पक्ष पर अभी पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया गया है। इसका एक पक्ष यह है कि कोई भी सदस्य अब अपने निर्वाचन क्षेत्र को अपनी प्रॉपर्टी नहीं समझ सकता। क्योंकि नियमानुसार यह अब बदलता रहेगा। ऐसे में बरसों से एक ही सुरक्षित सीट पर चुनाव लड़ने का और कम मेहनत में जमी जमाई मलाई खाने का नेताओं का मजा किरकिरा हो जाएगा।
किन्तु जो नेता अपने निर्वाचन क्षेत्र को लेकर सचमुच गंभीर होते हैं उनकी दिलचस्पी अब अपने क्षेत्र से घटेगी। क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र स्थायी न रहने से उन्हें बस तात्कालिक फायदे वाले मुद्दे ही नजर आएँगे। लंबे समय से अटके विकास कार्य या लंबे समय के लिए आरंभ होने वाली योजनाएँ हाथ में लेने से वे कतराएँगे।
किसके लिए है और कौन लाभान्वित ;यहाँ थोड़ा सा संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वंचितों के लिए लागू यह विधेयक स्थापित नेताओं के घरों की महिलाओं को ही कृतार्थ करें? या फिर आरक्षण के नाम पर टिकट वितरण हो और ताबड़तोड़ पाने की लालसा में महिला शोषण का नया रास्ता खुल जाए? ऐसा नहीं है कि हम महिला आरक्षण बिल के विरुद्ध हैं लेकिन उसके हर पहलू को समझना भी जरूरी है। इसका लाभ हर उस महिला तक पहुँचे जो सदियों से इसकी अधिकारिणी है, यह जिम्मेदारी कौन लेगा?
विरोध के लिए विरोध :राजनीति की बिसात पर जिन्हें बस विरोध ही करना है, वे अपनी समझ के दरवाजे कभी नहीं खोलेंगे। आखिर क्यों महिला दिवस के शताब्दी वर्ष में भी महिलाओं को अपने लिए इस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है? इस बिल से नेता इतने अधिक आतंकित है कि उपराष्ट्रपति के हाथों से बिल की प्रतियाँ फाड़ देने पर मजबूर हो गए? शर्म आती है इन्हें अपना प्रतिनिधि कहते हुए। एक स्वस्थ और अनिवार्य बहस के लिए आज भी महिलाएँ इन्हीं की मुखापेक्षी हैं। ये कैसे नेता हैं, महिलाओं की प्रतिभा से डरते हैं या अपनी ही असलियत के सामने आ जाने से?
आरक्षण के साथ संरक्षण भी :ये बात विरोध कर रहे नेता भी भली भाँति जानते हैं कि महिलाओं को अगर एक स्वस्थ, सुरक्षित और सहज वातावरण भर मिल जाए तो वे कभी इन पर निर्भर नहीं है। लेकिन चुँकि खुला संतुलित और संयमित माहौल देना उनके बस का नहीं है इसलिए आरक्षण की जरूरत आन पड़ी। अगर पहले ही महिलाओं को उनके सहज नैसर्गिक अधिकार मिल गए होते तो जरूरत किसे थी आरक्षण की?
महिलाएँ सक्षम हैं स्वयं को साबित करने के लिए मगर बात सिर्फ मौके की है जो कुछ लोग देना नहीं चाहते। अगर आज भी पुरुष थोड़ा सा उदार हो जाए तो सदियों का अत्याचार भी भुला देने को तैयार है औरतें। मगर असल मुश्किल तो यही है। पिछड़ने के डर से ये नेता बिल को पछाड़ने में लगे हैं।
आरक्षण से लगाम ;यह सच है कि महिलाएँ अब बदल रही है। इतनी तेजी से कि पुरुष चौंक सा गया है। आरक्षण की छड़ी मिलने से उसकी मुखरता और प्रखरता बढ़ेंगी इसमें कोई शक नहीं। उसके सपने भी बदलेंगे और सपनों को पूरा करने का तरीका भी। एक लगाम उन बेलगामों पर भी कसेंगी जिनके लिए आज भी महिला इस्तेमाल की 'चीज' है।
उम्मीदें जिन्दा हैं :यह सदियों का स्वीकारा हुआ सच है कि महिलाओं को जो कुछ भी मिला है वह सहजता से नहीं मिला है। संघर्ष की एक लंबी दास्ताँ उसे लिखनी ही पड़ी है। आरक्षण भला कैसे आसानी से मिल जाएगा? लेकिन यह सच भी उतना ही चमकदार है कि लड़ाई हमेशा उसने जीती है, क्योंकि हारना उसे नहीं आत। उम्मीद कीजिए कि सौ साल के सफर में हम अढ़ाई कोस से आगे निकल आए। उम्मीदें अभी जिन्दा हैं।