rashtrya ujala

Friday, October 31, 2008

क्या यह दोस्ती है ....? तेरा साथ देता है असीम सुख



'दोस्ती' और 'प्यार' में कहने को तो लफ्जों का ही अंतर है परंतु इनकी गुत्थमगुत्थी में दोस्ती कब प्यार बन जाती है और दोस्त कब प्रेमी, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जिंदगी के हर मोड़ पर कई लोग हमसे टकराते हैं, उनमें से कुछ ऐसे होते है, जो हमारे दिल पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे लोग हमारे दोस्त, प्रेमी या हमसफर बन जाते हैं। दोस्त का हमेशा साथ रहना धीरे-धीरे अच्छा लगने लगता है। कल तक हर वक्त झगड़ने वाला दोस्त अब हमें अच्छा लगने लगता है। उसकी डाँट में भी प्यार का एहसास छुपा होता है और वही एहसास हमारे दिल में जगह कर जाता है।

* दोस्त है मेरा हमराज :- हमारे दर्द का मरहम सच्चा दोस्त है। दोस्त ही हमें दु:ख-दर्दों के थपेड़ों से बचाकर हमें सुरक्षा प्रदान करता है। जो राज़ हम अपनों से नहीं कह पाते वह हम अपने दोस्त को बताकर उसके सामने एक खुली किताब से बन जाते हैं।


इस दुनिया में पति-पत्नी, माँ-बाप सभी मिल जाते हैं परंतु हमें समझने वाला एक अच्छा दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलता है। जमाना भले ही इसे कुछ भी नाम दे पर दोस्ती की कोई परिभाषा नहीं होती।

ऐसा इसलिए होता है कि हमारा दोस्त ही हमें समझ सकता है। वही जानता है कि हमें किस चीज की कब जरूरत है। प्यारा सा लगने वाला यह 'हमराज' कब हमारा 'हमसफर' बन जाता है, पता ही नहीं चलता।
* जीवन भर बना रहे तेरा साथ :- बचपन और लड़कपन का यह साथ, जिसे हम दोस्ती कहते हैं, इतना अच्छा लगने लगता है कि इस रिश्ते को जीवनभर निभाने का दिल करता है। जो दोस्त बनकर अब तक हमारे साथ चल सकता है। वो अगर 'हमसफर' बनकर जीवनभर हमारा साथ भी निभाए तो इसमें हर्ज ही क्या है?
* सच्चा दोस्त नहीं मिलता :- इस दुनिया में पति-पत्नी, माँ-बाप सभी मिल जाते हैं परंतु हमें समझने वाला एक अच्छा दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलता है। जमाना भले ही इसे कुछ भी नाम दे पर दोस्ती की कोई परिभाषा नहीं होती। इस रिश्ते में दिखावे का कोई काम नहीं होता। इसे तो दिल से जिया जाता है।

मौसम बदले तो दुख देता है दमा



दमा के रोगियों के लिए जाड़े की आहट कष्टकर साबित हो सकती है। यह लंबे समय तक चलने वाला रोग है। दमा में रोगी के साँस लेने की क्रिया असहज हो जाती है। रोगी को खासकर रात्रि में बलगमरहित सूखी खाँसी आती है। रोगी द्वारा साँसें छोड़ते वक्त 'साँय-साँय'अथवा सीटी बजने की ध्वनि निकलती है।
कारण:'एलर्जी' से पैदा होने वाले इस रोग की उत्पत्ति विभिन्न उद्दीपक तत्वों (एलर्जेन्स) के साँस द्वारा शरीर के अंदर प्रवेश करने से होती है। मसलन, ठंडी हवा के झोकें, घना कोहरा अथवा धुँध, एयर-कंडीशनर की हवा, धूल, धुआँ, सुगंधित सौंदर्य प्रसाधनों व इत्र-परफ्यूम की तेजगंध भी इस रोग का कारण बन सकती है। इसी तरह ऋतुओं के परिवर्तन-काल में वायुमंडल में परागकणों की प्रचुरता, सीलन अथवा नमीयुक्त दीवारों पर उगने वाली कवक एवं शैवाल (काई) के कारण भी यह शिकायत हो सकती है। विभिन्न खाद्य पदार्थों से एलर्जी भी दमा का कारण बन सकती है।
बचाव :इस मर्ज के रोगियों को नमी एवं सीलनदार कमरों में नहीं सोना चाहिए। कमरों में सूर्य का प्रकाश आने की समुचित व्यवस्था होना चाहिए। बिस्तर, कालीन, सोफा के कवर, पर्दे, वाल-हैगिंग, कैलेंडर व पुस्तकों को धूलरहित करने के लिए 'वैक्यूम क्लीनर' से नियमित तौर पर सफाई करें। रुई भरे गद्दों व तकियों के प्रयोग से बचें। इस मर्ज के रोगियों को धूम्रपान से बचना चाहिए। उन खाद्य पदार्थों के सेवन से बचें, जिनसे आप एलर्जी के शिकार होते हैं। डॉक्टर के परामर्श से ही दवाइयाँ लें।

Tuesday, October 28, 2008

वामपंथियों का माया-प्रेम

बहुत दिन नहीं बीते, जब कामरेड प्रकाश करात ने मायावती को एक जातिवादी और संकीर्ण राजनीतिक दायरे में काम करने वाली महिला कहकर उनकी राजनीतिक हस्ती को कठघरे में खड़ा किया था। फिर परमाणु करार पर हुए पूरे ड्रामे में मायावती प्रधानमंत्री पद की एक दमदार दावेदार के रूप में उभरीं और डूब भी गईं। और, अभी कुछ ही दिन पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने फिर एक बार मायावती को देश की अगली प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया! माकपा यह भी चाहती है कि आने वाले चुनावों में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी के समर्थक बहुजन समाज पार्टी को वोट दें।
वामपंथियों में यह नया वैचारिक बदलाव, जाहिर है, यूपीए सरकार से परमाणु करार के मसले

दलित और आदिवासियों के बीच एक स्वस्फूर्त नेतृत्व उभर रहा है, जो न मायावती पर केवल इसलिए भरोसा करने को तैयार है कि वे 'दलित' हैं और न वामपंथी दलों पर 'क्योंकि वे सर्वहारा का नाम लेते हैं

पर अपना समर्थन वापस लेने के बाद आया है। अब वामपंथी चाहते हैं कि एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई गठबंधन वाली सरकार बने, जिसकी अगुवाई दलित नेता मायावती करें और अपने संभावित 40-50 सांसदों के बूते पर सरकार की कमान वामपंथी दलों के हाथों में रहे। चूहे और बिल्ली का खेल संसदीय राजनीति में खूब चलता है और कांग्रेस के साथ यह खेल खेलकर माकपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को शायद अब इसका चस्का लग गया है।
और फिर, कांग्रेसी और भाजपाई गठबंधनों के बाहर बचा ही कौन? अपने वामपंथी और अपनी बहन मायावती! हारे को हरि नाम ! दलित खूब सही समय पर याद आए वामदलों को ! काश ! यह दलित-दृष्टिकोण उनमें 60-70, यहाँ तक कि 80 के दशक में भी आ गया होता, तो आज बढ़ती विकास-दर और गरीबों के गिरते जीवन-स्तर के बीच इतना बड़ा फासला न होता। यदि हमारे वामपंथी कामरेड, जो अब संसद की राजनीति में पूरी तरह पक चुके हैं, वैचारिक स्तर पर उस मुकाम पर पहुँच जाते, जहाँ बाबा साहेब आम्बेडकर के शब्दों में, 'दलित नेतृत्व के बिना सच्चा जनतंत्र संभव नहीं है', तो कहना ही क्या था! तब उन्हें मायावती जैसे 'प्रतीक चिह्नों' की जरूरत नहीं होती। वे दलितों और अन्य सामाजिक रूप से वंचित समुदायों के बीच अपनी पैठ बनाते, अपने सांगठनिक ढाँचे में उन्हें सम्मान की जगह देते और विधानसभा व संसद में उनकी भागीदारी का मार्ग प्रशस्त करते।
लेकिन दुर्भाग्य से हमारी वामपंथी पार्टियों, खासतौर पर, भाकपा और माकपा ने, इस जिम्मेदारी को तवज्जो देना तो दूर इसे अपने राजनीतिक एजेंडे तक में शामिल नहीं किया। कहना न होगा कि इसीलिए, सिर्फ आर्थिक माँगों के इर्द-गिर्द सिमटी उनकी राजनीति को जब 90 के दशक में मंडल, कमंडल और भूमंडल जैसी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा तो उनसे लड़ने के लिए उनके अपने हथियार भोथरे हो चुके थे।
माकपा के अचानक उमड़े दलित-प्रेम की एक और मिसाल पश्चिम बंगाल से ही ली जा सकती है जहाँ पार्टी पिछले 31 सालों से निष्कंटक राज करती आई है। एक ऐसे देश में, जहाँ लगभग 16 प्रतिशत आबादी दलित हो, 14 प्रतिशत अल्पसंख्यक और लगभग 15 प्रतिशत आबादी अन्य पिछड़ी जातियों से आती हो-वहाँ मार्क्सवाद में विश्वास करने वाली एक पार्टी का शीर्ष, मध्य और निम्न नेतृत्व इन सामाजिक वर्गों के हाथ में होने की बजाए सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न 'भद्रलोक' के हाथों में है।
इसे मार्क्सवाद की विडंबना कहें या भारतीय कम्युनिस्टों का अवसरवाद कि जिन्हें चुनाव के समय दलित याद आए और वो भी सिर्फ मायावती। उड़ीसा में अकाल और भूख से होती मौतों के लिए बदनाम कालाहांडी का नियमगिरि पहाड़, एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को बॉक्साइट की माइनिंग के लिए दे दिया गया है, वहाँ के आदिवासी-डोंगरिया कोंध-नियमगिरि को अपना देवता मानते हैं, लेकिन शायद ही कभी माकपा और बड़ी बहन भाकपा ने इसके खिलाफ एक बयान तक देने की जहमत उठाई हो।यह महज संयोग नहीं कि आज देश के ज्यादातर लोकप्रिय आंदोलन, जिनमें दलितों की भागीदारी बड़ी संख्या में है, न मायावती चला रहीं और न वामदल। रोजगार, सूचना का अधिकार, नर्मदा विस्थापन का विरोध हो या विशेष आर्थिक क्षेत्रों का प्रतिकार- इन सबकी कमान पार्टियों से स्वतंत्र कार्यकर्ताओं के हाथ में है। दलित और आदिवासियों के बीच एक स्वस्फूर्त नेतृत्व उभर रहा है, जो न मायावती पर केवल इसलिए भरोसा करने को तैयार है कि वे 'दलित' हैं और न वामपंथी दलों पर 'क्योंकि वे सर्वहारा का नाम लेते हैं।' विचारों की परख काम के आधार पर करने वाले ये आंदोलन गरीबी के बीच अच्छी पैठ बनाए हुए हैं और चुनावों के समय मतदाताओं के मन को ये प्रभावित करने में सक्षम हैं।
1964 में लगभग इन्हीं दिनों (31 अक्टूबर-7 नवंबर) तब भारत की इकलौती कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होकर गरमपंथियों ने कोलकाता में एक अधिवेशन बुलाकर माकपा की स्थापना की थी। कारण बताया गया- भाकपा के तत्कालीन महासचिव श्रीपाद अमृत डांगे का कांग्रेस के प्रति बढ़ता रुझान और पार्टी में संसदीय राजनीति में बढ़ती दिलचस्पी। कोलकाता अधिवेशन में भारतीय राजसत्ता के चरित्र पर एक प्रस्ताव पारित करके कहा गया था कि 'भारतीय बड़े पूँजीपति दिन-ब-दिन साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ बना रहे हैं।' उनके बाद के 44 साल दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक इसी इंतजार में रहे कि

मायावती के समर्थन के पीछे कौन-सी भावना काम कर रही है- यह भी देश के सामने आना चाहिए। वर्ना, जैसा कि मार्क्सवाद का एक मंत्र कहता है : गण-शत्रुओं की जगह इतिहास के कूड़ेदान में है

माकपा पूँजीपतियों और साम्राज्यवाद (सैन्य और आर्थिक) दोनों पर हमला बोलेगी, लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम ने माकपा के छद्म वामपंथ की कलई भी खोल दी। कल तक भारतीय जाति-व्यवस्था के चुभते प्रश्नों को वर्ग-संघर्ष की आड़ में दरकिनार करने वाला वामपंथ आज मायावती का नाम सिर्फ इसलिए ले रहा है कि केंद्र में वह एक ऐसी सरकार चाहता है, जो उसके समर्थन पर निर्भर हो और प. बंगाल में चलने वाली अनगिनत परियोजनाओं को केंद्र से हरी झंडी मिलती रहे। उनके समर्थन पर सरकार टिकी होगी तो परोक्ष रूप से सत्ता के फायदे मिलते रहेंगे और बंगाल-केरल और त्रिपुरा के बाहर पाँव फैलाने का मौका मिलेगा।


जब सीताराम येचुरी जैसे बौद्धिक और वरिष्ठ नेता बंगाल के मतदाताओं से कहते हैं कि चुनाव में बंगाली ममता बनर्जी को बाहर का रास्ता दिखा दें तो क्या क्षणभर के लिए राज ठाकरे की याद नहीं आ जाती ? कामरेड की बंगाल राजनीति इस तरह 'बंगाली पॉलिटिक्स' में बदल जाएगी, यह आशंका तो मार्क्सवाद के प्रारंभिक छात्रों को भी नहीं रही होगी। अगर पिछले 30 सालों में बंगाल की जनता ने माकपा और उसके साथी दलों को सर-आँखों पर बिठाया है तो यह सोचकर कि नवजागरण की भूमि पर वामपंथ बराबरी के बीज रोपेगा, लेकिन बराबरी तो दूर, पश्चिम बंगाल में आज तक भूमि-सुधार को क्रियान्वित करने की दिशा में भी कारगर कदम नहीं उठाए जा सके। माकपा के छात्र और युवा संगठन किस तरह अपनी ऊर्जा गरीबों के लिए विकास-कार्यों में लगाने की बजाय गली-मुहल्ले में अपनी धौंस जमाने और किसी और को न टिकने देने में लगा रहे हैं- इसे साबित करने के लिए तथ्यों की कमी नहीं है। पिछले पंचायत चुनावों में माकपा की हार उसके राजनीतिक उसूलों से भटकने के अंजाम का एक और उदाहरण है। माकपा आज एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहाँ उसे स्पष्ट चयन करना है- क्या वह सचमुच देश के अधिसंख्य गरीबों (जिनमें दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक और पिछड़ी जातियाँ 70 प्रतिशत हैं) को राजनीतिक सत्ता के पायदान पर लाना चाहती है या अवसरवादी समर्थन और गंठजोड़ के खेल में महारत हासिल करना चाहती है। मायावती के समर्थन के पीछे कौन-सी भावना काम कर रही है- यह भी देश के सामने आना चाहिए। वर्ना, जैसा कि मार्क्सवाद का एक मंत्र कहता है : गण-शत्रुओं की जगह इतिहास के कूड़ेदान में है।

Saturday, October 25, 2008

कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए..!

61 साल कम तो नहीं होते? देश की आजादी के बाद की एक समूची पीढ़ी, तमाम आशाओं और निराशाओं के बीच बूढ़ी हो गई। इस पीढ़ी का कल कौन और कब दुनिया से आजादी के बाद की अपेक्षाओं की पूरे न होने की टीस लिए कूच कर जाएगा। इस सवाल के जवाब का किसी को कोई कोई पता नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के कुछ बचे-खुचे उपेक्षित सेनानी देश में इधर-उधर लावारिस पड़े हुए हैं। हकीकत तो यह है कि वे अब तो न घर के रहे और न घाट के। पिछले दो और तीन अक्टूबर को लखनऊ के सिटी मांटेसरी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में आशियाना परिवार और सिग्नस ग्रुप ऑफ कम्पनी कोलकता के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सम्मेलन में उनकी तकलीफों को सुन-सुनकर अंतर मन बहुत ही आहत हो गया। कैसे-कैसे ख्वाब संजोए इन्होंने स्वतंत्रता पाने के पहले और उसके बाद में थे। वे सारे के सारे ख्वाब ही रह गए। इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देश की आजादी को हासिल करने के लिए दी गई अपनी कुर्बानियों के बाद के यह 61 साल किस तरह से बिताए, यह अपने आप में लंबी और दर्दनाक दास्तानें हैं। हकीकत तो यह है कि अब इन स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को देश में बेहतरी की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। इनमें से हर एक बस आज और कल यहाँ से कूच कर जाने की बाट जोह रहा है। आजादी में साँस लेने और सत्तानशीन कराने वाले के लिए वक्त नहीं।
अलबत्ता, वे इस बात से थोड़े-बहुत खुश जरूर नजर आए कि कम से कम देश के स्वतंत्रता संग्राम के 150 साल पूरे होने पर किसी ने तो उनकी सुध ली। दुःखद पहलू यह है कि सम्मेलन में राष्ट्रपति, उत्तरप्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री सहित अनेक प्रदेशों के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन कुछ को छोड़कर कोई भी नहीं आया। इन सेनानियों की पीड़ा यह भी थी कि जिन्हें उन्होंने आजाद भारत में साँस लेने और सियासत करने के बाद सत्ताधीश बनाया, उन्हीं के पास उनके लिए इस समारोह में आने के लिए वक्त नहीं निकला।

करोड़ों लोगों को शौचालय की सुविधा नहीं : बकौल राष्ट्रपति आज भी देश में करोड़ों लोगों को शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है। हिसार, हरियाणा में आयोजित नौ प्रदेशों के 3187 प्रतिनिधियों को निर्मल ग्राम पुरस्कार देते हुए उन्होंने कहा कि 2012 तक देश संपूर्ण स्वच्छता के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। यानी अगामी महज चार सवाल में देश के छह लाख गाँव पू्र्ण स्वच्छ हो जाएँगे। ऐसा इतनी कम अवधि में हो जाएगा, इसमें संदेह है। आज भी देश के करोड़ों किसान, ग्रामीण और मजदूरों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। वे तालाब और पोखरों से प्रदूषित पानी पीने पर मजबूर हैं। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, बंगाल, झारखंड और छत्तीसगढ़ के ऐसे सैकड़ों इलाके हैं, जहाँ लोगों को दो जून की रोटियों को जुटाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं।

गरीब और हो रहा गरीब...बढ़ रही है कुछ की अमीरी : जेट एयरवेज ने हाल में ही सेवामुक्त किए गए 600 कर्मचारियों की बहाली तो कर दी, सो उनकी दिवाली भी खुशनुमा ही होगी। चूँकि जेट एयरवेज का यह मामला केन्द्रीय उड्यन मंत्रालय के अंतर्गत आता है, इसलिए इस मंत्रालय के प्रभारी मंत्री प्रफुल्ल पटेल का हस्ताक्षेप करना विभागीय जिम्मेदारी के अधीन आता है, सो उनका अब इन कर्मचारियों की बहाली के बाद श्रेय लेना वाजिब है। वरना इस चुनावी साल में यह मामला विपक्ष का मुद्दा जरूर बनता और केन्द्रीय उड्डयन मंत्री सहित संप्रग सरकार की जवाबदेही ही नहीं, बल्कि अच्छी खासी किरकिरी भी होती। ...लेकिन अब जो दूसरा संकट बीपीओ के क्षेत्रों में निकट भविष्य में कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर की जाने वाली छँटनी का आने वाला है। यही नहीं टाटा ने भी अपने 300 कर्मचारियों को जबरन हटाने का फैसला ले लिया है। इस आने वाली समस्या से निपटने की कोई रणनीति फिलहाल सरकार के पास नहीं है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय यह है कि बीपीओ का भारत में 70 प्रतिशत कारोबार अमेरिकी कम्पनियों के पास है और इस समय अमेरिका में जो आर्थिक मंदी के हालात हैं, वे किसी छिपे हुए नहीं हैं। तुर्रा यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ के ताजा रपट में साफ-साफ चेतावनी देते हुए कहा गया है कि 1990 और 2007 के मध्य विश्वभर में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और बढ़ी है। संगठन के निदेशक ने अपने अध्ययन में उल्लेख किया है कि दुनियाभर की मौजूदा अर्थव्यवस्था के मद्देनजर निष्कर्ष यही निकलता है कि वर्तमान वैश्विक वित्तीय संकट भविष्य में और गहराएगा।
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए...: पिछले दिनों प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने कहा था कि परमाणु करार से हमारा देश 2020 तक ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर हो जाएगा। अगर ऐसा होता है तो यहाँ की एक अरब जनता के लिए इससे अच्छी और क्या बात होगी, लेकिन अमेरिका की अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जो इस करार की सम्पन्नता के बाद अपने वित्तीय संकट से उबरने के लिए 150 अरब के आसपास का कारोबार करने के लिए आतुर हैं तो उसके निमित्त हमारे पास मौजूद आर्थिक संसाधन कितने पर्याप्त हैं? देश की आजादी के 61 साल बाद भारत जो हमारे गाँवों में बसता है, वहाँ तो आज मिट्टी के तेल की चिमनी ही जलती है, वह भी उतनी ही देर तक लिए जितने वक्त में परिवार के लोग रात की रोटी खाते हैं। बाकी रातभर उसे जलाए रखने की उनकी हैसियत नहीं है।
बात देश के शहरों की करें तो 10 से 12 और 15 घंटों की बिजली कटौती किए जाने से जनजीवन बेहाल है। फिर एक दिन की दीवाली पर रोशनी का स्वांग करके बाकी अगले साल की जिंदगी के दिन अंधेरों में गुजराने का सबब अपने आप से फरेब नहीं है तो और क्या है?
सो शायद दुष्यंत कुमार ने आज से 31 साल पहले यह जो लिखा था-
कहाँ तो तय था चराँगा हरेक घर के लिए
कहाँ शहर मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ चलें और उम्रभर के लिए
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिए अरुण

Thursday, October 23, 2008

नर के संपर्क बिना ही गर्भवती हुई शार्क

आमतौर पर शार्क मछलियाँ बिना नर के संपर्क में आए गर्भवती नहीं होती हैं, लेकिन अमेरिका के वर्जीनिया राज्य के एक्वेरियम में एक मादा शार्क बिना नर के संपर्क में आए गर्भवती हो गई। इससे पहले ओमाहा में भी ऐसा ही मामला देखने में आया था। इस तरह के मामलों पर वैज्ञानिकों का कहना है कि लिंग संबंधी अनुपात गड़बड़ाने से मछलियों में बिना नर के संपर्क में आए बिना ही या एसेक्सुअल रिप्रॉडक्शन संभव होने लगा है।
वर्जीनिया एक्वेरियम एंड मरीन साइंस सेंटर में मौजूदा मादा अटलांटिक ब्लैक टिप शार्क के पेट में पल रहे भ्रूण की हाल ही में डीएनए टेस्टिंग कराई गई जिससे इस बात की पुष्टि हुई कि भ्रूण के भीतर नर से मिलने वाले जिनेटिक मैटीरियल मौजूद नहीं थे। इसका अर्थ है कि यह गर्भधारण बिना नर के संपर्क में आए ही संभव हुआ था।
ओमाहा के जू में भी हैमरहेड वाली शार्क ने ऐसे ही बच्चे को जन्म दिया था। शार्क विशेषज्ञ और प्रमुख शोधकर्ता डैमियन चैपमैन का कहना है कि यह संभव है कि मादा शार्क की कई प्रजातियाँ कुछ अवसरों पर असेक्सुअल रिप्रॉडक्शन से बच्चों को जन्म देती हों। वैज्ञानिकों का कहना है कि बिना नर के संपर्क में आए एक्वेरियम शार्क एक ही बच्चे को जन्म दे सकती है जबकि कुछ शार्क प्रजातियाँ एक साथ एक दर्जन से भी अधिक बच्चों को जन्म देती हैं। पर इससे घटती जनसंख्‍या को काबू में नहीं किया जा सकता है क्योंकि कुछेक मादा शार्क मछलियाँ ही इस तरह से प्रजनन कर सकती हैं। इसका एक पक्ष यह भी है कि नर क्रोमोसोम न होने के कारण ऐसे जीवों में जिनेटिक डाइविर्सिटी नहीं बन पाती है क्योंकि इस तरह पैदा हुए बच्चे खुले वातावरण में जीवन जीने में सक्षम नहीं होते और असेक्सुअल बर्थ से पैदा हुए बच्चों में जन्मजात कमियाँ और बीमारियाँ बनी रहती हैं।

विध्वंसक वित्तीय संकट के संकेत

यह कहावत कि इतिहास बार-बार अपने आपको दोहराता है, आज पुनः साबित हो रही है। वित्तीय संकट के वैश्विक वर्तमान दौर ने समाजवादी चिंतक लेनिन और नेपोलियन के टीकाकार की याद दिला दी। लेनिन के शब्दों में, 'पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में हर आने वाला वित्तीय संकट पिछले के मुकाबले में अधिक गहरा और घातक सबित होगा।' इतिहास साक्षी है कि 1906, 1989, 2001 और 2008 में आए वित्तीय संकट अमेरिका के संकट ही नहीं रहे, बल्कि दुनिया के चिंता के विषय बन गए। नेपोलियन के टीकाकार ने टीका की थी कि क्रांति ने नेपोलियन को जन्म दिया, नेपोलियन

अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन के अनुसार अमेरिका में वित्तीय व्यापार अत्यंत खोखला हो गया है। वैश्विक बाजारों में यह गलतफहमी बेची जा रही है कि संकट का दौर गुजर चुका है जबकि सच्चाई यह है कि सबप्राइम ऋण का अभी दूसरा अधिक घातक दौर दूर नहीं है

ही क्रांति का स्वामी बना और बाद में वही शिकार हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बा
द ब्रेटनवुड में जन्मी विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी नई वैश्विक संस्थाओं ने डॉलर को पुनर्जन्म दिया। वही डॉलर वैश्विक पूँजी का स्वामी बना। विश्व के 80 प्रतिशत सौदे डॉलर में हुए और प्रमुख वैश्विक मुद्रा के रूप में वैश्विक या वित्तीय व्यवस्था का प्रमुख निर्धारक बना, लेकिन बाद में उसी वित्तीय संकट का शिकार हुआ जिसने इसको जन्म दिया था।
भारत के पाँच बाजारों- शेयर, ऋण, मुद्रा, विदेशी मुद्रा और पूँजी बाजारों को विदेशी पूँजी ने पाला-पोसा, वही उनकी स्वामिनी बनी और उसी ने प्रकारांतर से पाँचों बाजारों का शिकार किया। देश के शेयर बाजार ताश के पत्तों की तरह गिरने के कारण डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य गिरा और विदेशी निवेशकों द्वारा भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा निकालने के कारण 294 अरब डॉलर से गिरकर 273 अरब डॉलर रह गया। विदेशी मुद्रा भंडार में मार्च से अब तक 35 अरब डॉलर की कमी आई। गत शुक्रवार को ही सेंसेक्स 10 हजार अंक से नीचे आने के कारण देश के 10 बड़े औद्योगिक घरानों को 140 अरब डॉलर का नुकसान हुआ।

असल में विदेशी पूँजी की तरलता और वाष्पशीलता दोनों ही पाँचों बाजारों के लिए चिंता का विषय रही है। 24 जुलाई, 2006 के बाद सेंसेक्स पहली बार 10 हजार अंक से नीचे आ गया। वर्ष के आरंभ में एक ओर अत्यधिक पूँजी प्रवाह की तरलता से शेयर बाजार की कृत्रिम उछाल, सट्टा प्रवृत्ति और मुद्रा आपूर्ति बढ़ने के कारण मुद्रास्फीति में वृद्धि चिंता का कारण बनी, वहीं दूसरी ओर अब विदेशी पूँजी निवेशकों द्वारा अपनी पूँजी खींचकर बाहर ले जाने की प्रवृत्ति ने शेयर बाजार को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारतीय निवेश मनोविज्ञान में भी बदलाव देखने को मिला। पिछले कुछ वर्षों से हमारे नीति-निर्धारक इस बात को बार-बार दोहराते थे कि पश्चिमी देशों में हो रही शेयर बाजार की उथल-पुथल से भारत ने अपने आपको सुरक्षित कर रखा है, लेकिन आज स्थिति यह है कि भारतीय निवेशक बीएसई सेंसेक्स के व्यवहार में बदलाव से पहले अमेरिका के डाउ जोंस की उछाल और गिरावट से प्रभावित होते हैं। दिलचस्प बात यह है कि संकट से बचने या दूर करने के जिन उपायों के उपदेशों को विकसित देश विकासशील देशों को दे रहे हैं, वे स्वयं उनका अनुसरण नहीं करते। फलस्वरूप खुद डूबते हैं और दूसरों को भी ले डूबते हैं। अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन के अनुसार अमेरिका में वित्तीय व्यापार अत्यंत खोखला हो गया है। वैश्विक बाजारों में यह गलतफहमी बेची जा रही है कि संकट का दौर गुजर चुका है जबकि सच्चाई यह है कि सबप्राइम ऋण का अभी दूसरा अधिक घातक दौर दूर नहीं है। असल में सितंबर 2008 के मध्य आया संकट का दौर आने वाले दूसरे दौर के संकट का अग्रसूचना वाहक था।इसका कारण यह है कि वर्ष 2002 से 2007 के बीच अमेरिकी रियल एस्टेट क्षेत्र में आए बूम का फायदा उठाने के लिए जिन साढ़े चार करोड़ खातेदारों को ऋण बाँटे गए उनके कर्ज की अदायगी बंद हो गई है यानी सभी बैंकों में धीरे-धीरे वित्तीय संकट पैदा हो गया है और हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि उनको दिवालिया होना पड़ा है या शीघ्र होना होगा। सबप्राइम (उपमुख्य या उपप्रधान) कर्ज उन लोगों को दिया जाता है जिनकी पुनर्भुगतान क्षमता शंकाओं के घेरे में रहती है। इसलिए ऐसे कर्जदारों को दिए गए कर्जों पर ऊँची ब्याज दर वसूली जाती है। ये ऋण ऐसे लोगों

देश का जनमानस इस आसन्न कुशंका से ग्रसित है कि जिस तरह दुनिया के बड़े बैंकों का दिवाला निकल रहा है उसी तरह भारत की बैंकिंग प्रणाली भी चरमरा जाएगी। लोगों की चिंता बैंकों में सावधि जमा 31 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि है

को दिए जाते हैं जिनको अन्य स्रोतों से कर्ज नहीं मिल पाते। एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका की चौथाई आबादी इस श्रेणी में आती है और 2006 में ऐसे 40 प्रतिशत कर्ज सबप्राइम श्रेणी में आ गए थे। कर्ज लेने वाले और कर्ज देने वाले दोनों भूल जाते हैं कि ऐसे कर्ज दोनों के लिए जोखिमभरे हैं, क्योंकि लेने वाले को ऊँची ब्याज दर देनी पड़ती है जिनकी खराब साख इतिहास, अतीत और संदिग्ध वित्तीय स्थितियों के कारण अनिश्चितताओं से घिरी होती है।

देश का जनमानस इस आसन्न कुशंका से ग्रसित है कि जिस तरह दुनिया के बड़े बैंकों का दिवाला निकल रहा है उसी तरह भारत की बैंकिंग प्रणाली भी चरमरा जाएगी। लोगों की चिंता बैंकों में सावधि जमा 31 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि है। उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा है कि एक वर्ष पूर्व जो सावधि राशि 55 लाख करोड़ से अधिक और एक माह पूर्व 35 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा थी, वह 31 लाख करोड़ रुपए के करीब कैसे रह गई ? इस भय और अविश्वास के माहौल में यह पहेली भी अबूझ रही कि अमेरिका, ब्रिटेन और योरप द्वारा बैंकिंग क्षेत्रों को तीन हजार अरब डॉलर उपलब्ध कराने की सामूहिक प्रतिबद्धता के बावजूद क्या धन उपलबध कराने से वित्तीय संकट पर नियंत्रण हो जाएगा।
भारत सरकार और रिजर्व बैंक के सारे आश्वासन उसे अविश्वास के संकट से निजात दिलाने में असफल रहे हैं। आखिर पन्द्रह दिनों के दौरान नकद आरक्षी अनुपात में तीन बार कमी सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं हो सकती। वित्तीय व्यवसाय के विशेषज्ञ हैरान हैं कि नकदी आरक्षित अनुपात 9 प्रतिशत घटाकर 6.5 प्रतिशत कर देने के असाधारण कदम के बजाए सरकार ने 8 (कल तक 9) प्रतिशत रेपो दर (जिस पर रिजर्व बैंक वाणिज्य बैंकों को अल्पकालिक पूँजी उपलब्ध कराता है) और 6 प्रतिशत की रिवर्स दर (जिस दर पर रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों से ऋण लेता है) के बीच का अंतर कम क्यों नहीं किया गया।
अब तक कहा जाता था कि भूगोल ही इतिहास है। लेकिन विश्व बैंक के सलाहकार थॉमस फ्रीडमेन के शब्दों में 'दुनिया समतल है।' इसलिए पूँजी की गतिशीलता के कारण सभी देश विश्व की तकदीर से जुड़ गए हैं। ऐसी स्थिति में वैश्विक मंदी और आने वाले अधिक विध्वंसक वित्तीय संकट मुख्यतः इस बात पर निर्भर करेंगे कि भारत और अन्य उभरती व्यवस्थाएँ विदेशी पूँजी के आगम और निगम के बीच कितना प्रभावी संतुलन बनाए रखती हैं। सोखने की शक्ति से अधिक विदेशी पूँजी का आगम जहाँ मुद्रास्फीति बढ़ा सकता है, वहीं उसका तेजी से पलायन साख के स्त्रोत सुखाने के साथ समूची अर्थव्यवस्था को मंदी की गिरफ्त में ला सकता है।

नग्न तस्वीरें दिखाने वाले स्कैनर लगेंगे!

एक्स-रे से ली गई तस्वीर
यह मशीन किसी व्यक्ति की तीन कोणों से तस्वीर लेगी जिसमें कोई भी बिना कपड़ों के देखा जा सकता ह
आने वाले समय में यूरोप के हवाई अड्डों पर सुरक्षा जाँच के लिए केवल लाइन लगाने, जेब की तलाशी देने और जूते उतारने से ही काम नहीं चलेगा.:अब वहाँ कंप्यूटर एक्स-रे के माध्यम से यात्रियों की ऐसी तस्वीर ली जाएगी जिससे उसे बिना कपड़ों के भी देखा जा सकेगा.इसका प्रस्ताव यूरोपीय आयोग ने दिया है.यह प्रस्ताव अभी प्रारंभिक अवस्था में है और जैसा कि प्रस्ताव है यह जाँच सबके लिए ज़रूरी नहीं होगी.इन सबके बावजूद यूरोप की कुछ संसदों में इससे होने वाले मानवाधिकार उल्लंघन और और व्यक्तिगत मर्यादा पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंता जताई गई है.

विरोध:-इस स्कैनर के माध्यम से जो तस्वीरें ली जाएँगी वे आम तस्वीरों जैसी नहीं होंगी क्योंकि इसमें किसी भी व्यक्ति को कपड़े उतारे बिना भी पूरी तरह से नग्न देखा जा सकेगा.अधिकांश लोगों का मानना है कि हवाई अड्डे के सुरक्षा कर्मचारी जितना आपको जानते हैं अब उससे अधिक जान जाएँगे.आयरलैंड के सिन फ़िन एमईपी बेयर ब्री डी बर्न के मुताबिक यह प्रणाली अनावश्यक, दोषपूर्ण, और आक्रामक है.उन्होंने कहा, "आयोग इस योजना को मौलिक अधिकारों, स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किए बिना लेकर आ रहा है. यह एक आधी-अधूरी योजना है."


तकनीक का व्यापक प्रयोग केवल सुरक्षा बढ़ाना ही नहीं है बल्कि इसमें जाँच की प्रक्रिया को तेज़ करने की क्षमता भी है. एक यात्री के रूप में आपको सुरक्षा अधिकारियों से जाँच करने की ज़रूरत नहीं है
प्रवक्ता यूरोपीय आयोग

वहीं यूरोपीय आयोग का कहना है कि यह मशीन पहले से ही कुछ हवाई अड्डों पर सीमित क्षमता के साथ प्रयोग की जा रही है.लेकिन आयोग का कहना है कि वह यह सुनिश्चित करेगा कि स्कैनर नुक़सानदेह नहीं है।

समर्थन:-जहाँ यह तकनीक उपलब्ध है. वहाँ हवाई सुरक्षा अधिकारी किसी भी व्यक्ति को बूथ पर ले जाकर उसकी विभिन्न कोणों से तीन तस्वीरें ले सकते हैं.कुछ ही छण में एक्स-रे स्कैनर उस व्यक्ति के शरीर की एक तस्वीर बना देगा.यह उस व्यक्ति की नग्न तस्वीर होगी और अगर उनसे सिक्के, बंदूक या दवाओं जैसी कोई चीज छुपा रखी है तो वह दिख जाएगी.यूरोपीय आयोग के एक प्रवक्ता ने बीबीसी से कहा कि तकनीक का व्यापक प्रयोग केवल सुरक्षा बढ़ाना ही नहीं है बल्कि इसमें जाँच की प्रक्रिया को तेज़ करने की क्षमता भी है.एक यात्री के रूप में आपको सुरक्षा अधिकारियों से जाँच करवाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.

Wednesday, October 22, 2008

मतदाता उदासीन क्यों?



पिछले दिनों से एक बहस छिड़ी हुई है कि क्या विधायकों और सांसदों को जीत के लिए 50 फीसदी वोट मिलना अनिवार्य करना चाहिए? भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यहाँ दुनिया की सबसे अच्छी प्रणाली द्वारा मतदान होता है। परंतु प्रत्येक रचना या योजना अथवा प्रक्रिया परिष्कृत होती है। हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में भी परिवर्तन हो सकते हैं। यह तभी हो सकता है जब इसके कारगर परिणाम प्राप्त होने की उम्मीद बढ़े। हमारी मतदान प्रणाली बहुत अच्छी है। इसमें कोई संशय नहीं, परंतु देश का प्रत्येक मतदाता अपने मत का प्रयोग नहीं कर पाता। हाल ही में 12 अप्रैल को बैतूल-हरदा लोकसभा सीट के लिए मतदान हुआ। इसमें केवल 50 प्रतिशत मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया। सबसे पहले इस बिंदु पर बहस होनी चाहिए। कानून निर्माता, नीति नियंताओं के लिए यह बिंदु महत्वपूर्ण लगना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि मतदाता मत देने के प्रति उदासीन है? मतदान के प्रति वह अरुचि क्यों दर्शाता है? जबकि आकर्षण ऐसा होना चाहिए कि शत-प्रतिशत न सही कम से कम 90-95 प्रतिशत मतदाता मताधिकार का प्रयोग करें।

पिछले दिनों से एक बहस छिड़ी हुई है कि क्या विधायकों और सांसदों को जीत के लिए 50 फीसदी वोट मिलना अनिवार्य करना चाहिए? भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है।

अक्सर देखा यह गया है कि छोटे स्तर के चुनाव में मसलन किसी गाँव के वार्ड मेंबर के चुनाव में सभी मतदाता मत डालने जाते हैं। ऐसे ही वार्ड के मतदाता लोकसभा चुनाव में उदासीन हो जाते हैं! महज 100 में से 30-40 लोग मताधिकार का प्रयोग करते हैं। एक गाँव में मतदाता से पूछा गया कि आप मत डालने क्यों नहीं गए? जवाब था- क्या इससे खाने को मिलेगा। खेत में काम करें या स्कूल में लाइन लगाकर खड़े हो जाएँ? प्रश्नकर्ता हतप्रभ रह गया। यह देश के लिए अच्छी बात नहीं है। बुद्धिजीवी वर्ग इसके पीछे अनेक कारण गिनाने बैठ जाते हैं। ‍कई सलाह, सुझाव सामने आते हैं। परंतु इन पर अमल करने वालों का टोटा है। कौन करे अमल? यह तो ठीक है। एक बार चुनाव विश्लेषण कर रहे एक ग्रुप के सदस्यों से किसी ने पूछ लिया- क्या आप मत डालने गए थे? जवाब मिला- हम तो इन दिनों इतने व्यस्त रहते हैं कि...। मतलब वे मत डालने नहीं गए। अब यहाँ प्रश्न उठता है कि कथित पढ़े‍-लिखे लोग अपनी व्यस्तता का बहाना बनाते हैं तो वे ग्रामीण क्या सही नहीं हैं। एक बात काबिले गौर देखी गई कि यदि मतदाता का कोई चहेता व्यक्ति चुनाव लड़ता है तो उसे विजयी दिलाने के ‍लिए स्वयं तो मत डालता ही है, दूसरों को भी अपने साथ ले जाता है। परंतु ऐसी जागरूकता वह बड़े चुनाव में नहीं दिखाता, कहता है- ये अपने गाँव का है। उसका क्या, वो 5 सालों में एक बार आता है और क्या मालूम आए भी नहीं। ऐसे एक नहीं, हजारों उदाहरण मिल जाएँगे।

मैडम राइस! विचारों से 'भूखी' हैं आप

यह भूख का अपमान है। यह भोजन के बुनियादी अधिकार के कत्ल की कोशिश है, यह अमीरी की नजर में गरीबी के उपहास का अक्स है। अमेरिका की विदेश मंत्री कोंडालिसा राइस को यह अधिकार किसने दिया कि वे भारत (और चीन) के लोगों की खुराक पर टिप्पणी करें?
वे यह कैसे कह सकती हैं कि भारत तथा चीन के लोगों की खुराक में सुधार के कारण विश्व में खाद्यान्न संकट पनपा है। उनकी टिप्पणी में दोनों देशों की सरकारों पर किया गया यह कटाक्ष भी उतना ही अपमानजनक है कि खुराक में सुधार को देखते हुए दोनों सरकारें खाद्यान्न एकत्र करने में जुटी हैं इसलिए दुनिया में खाद्यान्न कम पड़ रहा है।


क्या ऐसा इसलिए कि अमेरिका को उसकी भूल बताने का साहस कोई नहीं कर सकता है? लेकिन वे यह भूल रही हैं कि भारत वही देश है जहाँ मूल्यों की लड़ाई के दौरान महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर राजा ने घास की रोटी खाकर भी दिन निकाले हैं

दरअसल, राइस का यह बयान अमेरिका की चौधराहट के दंभ की अति है। राजनीतिक, राजनयिक शिष्टता की तमाम सीमा रेखाओं को लाँघना और अपनी श्रेष्ठता कायम करना अमेरिकी नीति का प्रमुख बिंदु रहा है, लेकिन अब तो अमेरिकी सरकार की एक महत्वपूर्ण मंत्री मानवीय गरिमा की सीमा रेखा को भी लाँघ गई हैं। क्या ऐसा इसलिए कि अमेरिका को उसकी भूल बताने का साहस कोई नहीं कर सकता है? लेकिन वे यह भूल रही हैं कि भारत वही देश है जहाँ मूल्यों की लड़ाई के दौरान महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर राजा ने घास की रोटी खाकर भी दिन निकाले हैं।


तो क्या यह भी सच है कि विश्व बैंक, मुद्राकोष और इनकी आड़ में अमेरिका द्वारा दी जा रही मदद को भी वह भिक्षुओं को दी जाने वाली दानराशि समझ रहा है? यदि यह सच है तो इसका प्रतिकार किया जाना चाहिए

हम समझ रहे हैं कि भारत के प्रति पश्चिमी विश्व की धारणा बदल रही है। हमारा यह सोच राइस के एक बयान से भ्रम साबित हो गया है। वे अब भी भारत को भूख, भिखारी और भिक्षुओं का देश मानते हैं, इसे राइस ने खाद्यान्न संकट के उल्लेख के जरिए जता दिया है। तो क्या यह भी सच है कि विश्व बैंक, मुद्राकोष और इनकी आड़ में अमेरिका द्वारा दी जा रही मदद को भी वह भिक्षुओं को दी जाने वाली दानराशि समझ रहा है? यदि यह सच है तो इसका प्रतिकार किया जाना चाहिए। अस्मिता का महत्व भूख से भी अधिक मानने वाले इस राष्ट्र का खून खौल उठे, राइस ने ऐसी बात कह दी है। वे यह भी भूल रही हैं कि अमेरिका भी बेरोजगारी, भूख से मुक्त नहीं है। अमेरिका में कोई कमी, अभाव, बुराई नहीं है, उनका यह सोच किसी मानसिक ग्रंथि का परिणाम दिखाई देता है। राइस की पास की नजर की यह कमजोरी उनके देश अमेरिका के लिए भले ही राजनयिक कुशलता हो, किसी ओर राष्ट्र के बारे में इस तरह बकवास करना, वह भी बिना किसी ठोस आधार के, लज्जा का विषय होना चाहिए। वैसे भी, खुराक में सुधार होना पेटू होने की नहीं, सेहत में सुधार की निशानी पहले है। नागरिकों की जरूरतों का ध्यान रखना, उन्हें किसी तरह के आपातकाल में मदद करने की तैयारी रखना हर निर्वाचित सरकार का कर्तव्य होता है। यदि भारत सरकार इस कर्तव्य का निर्वहन कर रही है तो अमेरिका को क्या आपत्ति है? क्या वह अपने नागरिकों की इस तरह मदद नहीं करता है? क्या ऐसी मदद की मंशा उसकी नहीं होती है? वे दिन लद गए जब सामंतवादी अपने लिए अलग और प्रजा के लिए अलग रीति-नीति अपनाते थे। उन दिनों को भी रातों में बदले युग गुजर गया जब तानाशाह के इशारों पर दुनिया नाचती थी। अमेरिका यदि अपने लिए एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की भूमिका चुनने में ईमानदारी बरते तो उसकी सेहत के लिए ज्यादा लाभप्रद हो सकता है।


कोंडालिजा राइस जो कह गई हैं, वह अमेरिका का असली चेहरा है, जिसे इराक के भूख से तड़पते बच्चों ने देखा है। कोसोवो के दहशतजदा नागरिकों ने देखा है। जर्जर अफगानिस्तान के गरीबों ने देखा है

ऐसा करने से उसका 'सबका भला' का मुखौटा भी सुरक्षित रह जाएगा। वरन्‌ एक बार फिसली जबान सच उगलकर इतिहास रच देती है। कोंडालिजा राइस जो कह गई हैं, वह अमेरिका का असली चेहरा है, जिसे इराक के भूख से तड़पते बच्चों ने देखा है। कोसोवो के दहशतजदा नागरिकों ने देखा है। जर्जर अफगानिस्तान के गरीबों ने देखा है। जिन्होंने अमेरिका का असली चेहरा अभी तक नहीं देखा, कोंडालिजा उनकी मदद कर रही हैं।
धन्यवाद मैडम कोंडालिजा राइस आपके सत्य ने विकासशील देशों और उनके नागरिकों की आँखें खोल दी हैं जो अब तक अमेरिकी मदद को मानवता की सेवा समझ रहे थे। जो अमेरिकी सहानुभूति को ताकतवर की संवेदनशीलता मान रहे थे। जो अमेरिका के साथ खड़े होकर यह समझते थे कि वे भी मानवता, उसके अधिकार की रक्षा की प्रतिबद्धता के साथ खड़े हैं। अच्छा हुआ एक बयान ने उनकी आँखें खोल दीं। अब भी जिनकी आँखें न खुलें, उनके लिए यह बहस व्यर्थ है। उनके लिए चेतावनी भी व्यर्थ है। लेकिन जिनकी आँखें खुली हैं, वे ठोकर को यूँ ही स्वीकार कैसे कर सकते हैं? अस्मिता के दीवानों के लिए यह गंभीर मुद्दा गौरतलब है। उम्मीद है कि भारत सरकार अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइस के बयान का इतना कड़ा विरोध तो करेगी कि राइस मैडम कम से कम बयान वापस तो ले लें। इतना नहीं तो बयान का वह अर्थ ही जाहिर कर दें जो उन्होंने बोलने के पहले तय किया था। इतना भी नहीं तो बयान को तोड़ने-मरोड़ने का ठीकरा मीडिया के सिर ही फोड़ दें। खालिस भारतीय राजनीतिज्ञों के अंदाज में। कम से कम, कुछ तो करें ताकि उन्हें भी अहसास हो कि जो कुछ उन्होंने कहा वह गलत है।

मेहनतकश, दिमागकश, मशीनकश जिंदगी

मई यानी दुनिया के मेहनतकशों या मजदूरों का दिन। आज के दिन दुनियाभर के मेहनतकशों की एकजुटता और सवालों को लेकर कई कार्यक्रम होते हैं। हमारी आज तक की दुनिया जो मनुष्यों ने निर्मित की है, में मेहनतकश और दिमागकश लोगों के काम और विचार का संयुक्त योगदान है। मेहनतकश लोगों ने दिमागकश लोगों के विचारों या सपनों को दुनिया के नक्शे पर उतारने में अपना खून-पसीना बहाया है। दिमागकशों के निराकार विचारों या सपनों को दुनियाभर के मेहनतकशों ने अपनी मेहनत के विनियोग से दुनियाभर में साकार किया है। यदि हमारी यह दुनिया केवल मेहनतविहीन दिमागकशों की दुनिया ही होती और कोई मेहनतकश इस दुनिया में नहीं होते तो दुनिया केवल सपनों के उड़ान की दुनिया होती और दिमागकशों के सपने दुनिया की जमीन पर नहीं उतर पाते। चीन में दुनिया की सबसे लंबी दीवार को साकार रूप देना हो या ताजमहल जैसी दुनिया की आश्चर्य इमारत का निर्माण हो, दोनों ही दिमागकश और मेहनतकश के अरमान और कर्म के खूबसूरत गठबंधन का ही नतीजा है कि हमारी दुनिया निरंतर अपने सपनों को अपनी मेहनत से साकार कर रही है। दुनिया की शुरुआत से दुनिया के मनुष्यों का दिमाग मनुष्य की शक्ति या ऊर्जा को और ज्यादा तेजस्वी और शक्ति संपन्न बनाने में ही चला। इसका नतीजा हुआ कि शुरुआती दुनिया के सारे बुनियादी औजार और आविष्कार मनुष्य के दिमाग ने इस सिद्धांत की बुनियाद पर किए कि ऐसे आविष्कारों और औजारों से एक मनुष्य दो-चार मनुष्यों की ऊर्जा के बराबर काम कर सके, तो शुरुआती दुनिया में काम करने वाले मनुष्यों की मेहनत की प्रतिष्ठा दुनियाभर में बहुत बढ़ी और जो भी शक्ति संपन्न बनने का सपना देखता था, उसके ऐसे मेहनती इंसानों या उसकी शक्ति को अपने वश या ताकत के अधीन करने में ही अपने दिमागों का इस्तेमाल प्रारंभ किया। जब मनुष्य ने ऐसे औजारों का निर्माण भी कर लिया, जिससे मनुष्य के साथ पशु की ऊर्जा मिलकर उसमें औजार की शक्ति भी जुड़ जाए, तो मनुष्य के सोच की दिशा ऐसे आविष्कारों की ओर चली। हल, बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, चड़स आदि। साथ ही मनुष्य के दिमाग का अर्थशास्त्र इन्हीं संसाधनों तथा मनुष्य और पशु की शक्ति के चारों ओर चलने लगा। राज्य और साम्राज्य की शक्ति और ताकत मनुष्यों के लवाजमे और पशु की शक्ति के चारों ओर चलने लगी। राज्य और समाज की शक्ति और ताकत मनुष्यों की संख्या और पशुधन को देखकर होने लगी। युद्ध शास्त्र की संरचना में भी हाथी और घोड़े की संख्या ताकत का प्रतीक बनी। मनुष्य को अपनी सामूहिक संग्रह शक्ति का अभिमान होने लगा और मनुष्यों की ताकत के बलबूते पर दुनिया में समाज और राज्य के शक्ति केंद्रों का उदय होने लगा।मेहनत को कम या खत्म करने की दिशा में चलने वाले दिमाग ने आज की विकसित दुनिया के संपन्न मनुष्यों से शरीर और दिमाग की प्राकृतिक गतिविधियों को छीन लेने वाली यंत्रीकृत दुनिया की रचना की दिशा में अपने कदम बढ़ा लिए हैं। हमारी दुनिया के प्रारंभिक दौर में मनुष्य की सोच पूरी तरह से मनुष्य की क्षमता के विकास को शक्ति संपन्न बनाने के सपने को साकार करने के पराक्रम का काल है। पर आज के मनुष्य की ऊर्जा और दिमाग दोनों पर यंत्रों का गहरा प्रभाव कायम हो चुका है। आज के मनुष्य का रचना संसार सृजन और संहार की ऐसी मशीनों की रचना कर चुका है कि उसे पूरे मनुष्य समाज की जरूरत ही नहीं बची है। मनुष्य द्वारा निर्मित मशीनें और तकनालॉजी ने मनुष्य की ऊर्जा और दिमाग पर अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया है।
इसी का नतीजा है कि दिमागकश मनुष्यों ने मेहनतकश मनुष्यों की ऊर्जा को लाचार कर मनुष्य की प्राकृतिक सक्रियता को नष्ट कर दिया है और अब दिमाग को आराम देने वाली नई तकनालॉजी ने मनुष्य के दिमाग की प्राकृतिक तेजस्विता को श्रीहीन करने का पूरा इंतजाम कर दिया है। इसके कारण मनुष्य शारीरिक और दिमागी मेहनत से दूर एक ऐसा प्राणी बनता जा रहा है, जिसका जीवन मनुष्य निर्मित मशीन या तकनालॉजी का पूरी तरह गुलाम हो गया हैं। दिमागकशों का दिमाग इस हद तक चला गया है कि लेटे-लेटे, बैठे-बैठे बिना अपना शरीर स्वयं हिलाए ही मशीनीकृत हलचल से व्यायाम के दौर-तरीके बाजार के हिट प्रोडक्ट आज की दुनिया में बनते जा रहे हैं।
मूलतः मेहनतकश मनुष्यों को दिमागकश मनुष्यों ने आरामतलबी मशीनकश मनुष्य में बदल दिया है। ऐसे मशीनकश मनुष्यों का समाज न तो दिमाग को सलाम करता है और न ही मेहनतकश की मेहनत का जिंदाबाद। दुनियाभर का मनुष्य मशीनकश आराममय जीवन बिताने में मगन है, उसे न तो दुनिया के मजदूरों की चिंता है और न ही मनुष्य जीवन की जीवंतता की। मशीनें चलती रहें और वह पड़ा रहे। यहीं जीवन का आनंद हो गया है। इस परिदृश्य को देख हम यह तो कह ही सकते हैं कि मशीन ने मशीन का गुलाम आराम पसंद मनुष्य समाज खड़ा कर दिल, दिमाग और हाथ के प्राकृतिक मनुष्य जीवन के संगीत को छीनकर, कानफोडू डीजे की धुन पर, मशीन के नशे की ताल पर, उछलने कूदने वाले ऐसे समाज में बदल दिया है, जिसे मनुष्य की ऊर्जा की जरूरत नहीं है।
इसलिए आज के यंत्रीकृत समाज में 'दुनिया के मजदूरों एक हो' की आवाज और लड़ाई इतिहास की बात हो गई है। मशीनों के बाजार ने दुनिया की गतिविधियों को बहुत तेज और मनुष्य की जिंदगी को मशीनों की कठपुतली बना डाला है। कठपुतली कभी भी अपने सवाल नहीं उठाती। वह तो नचाने वाले की उँगलियों के इशारे पर नाचती रहती है। इस परिदृश्य में एक मई इतिहास बनते मेहनतकशों की मेहनत को याद करने की रस्म का दिन बन गया है कि एक मनुष्य था, जो अपने शरीर की ऊर्जा से जीवन बिताता या जीता था और उसी ऊर्जा से मनुष्य समाज जीवंतता के साथ चलता था।आज उधार की ऊर्जा से यंत्र समाज तो दिन-रात चल रहा है, पर मनुष्य ऊर्जा आरामकश समाज में विलीन हो गई है। ऐसा आरामतलब समाज जोर-शोर से नहीं, पर उबासी लेता मनुष्य समाज जीवन में मेहनत के संगीत और सवालों के स्मरणीय दिवस एक मई को याद कर लेता है। क्या यह वर्तमान यंत्रीकृत मनुष्य समाज की एक उपलब्धि नहीं मानी जाएगी। निर्मेश त्यागी

कोटे में भी कोटे की लड़ाई

संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को भी 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने संबंध में 108वें संविधान संशोधन विधेयक ने देश के जनमत को फिर चैतन्य कर दिया है। मालवा/निमाड़ क्षेत्र का महिला नेतृत्व तो कल्पना से ही बल्ले-बल्ले है। महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण और लैंगिक असमानता दूर करने के उद्देश्य से राज्यसभा में रखा गया विधेयक इस रास्ते का पहला प्रयास नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्रित्वकाल में भी इस मोर्चे पर चिंतन हुआ था। पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों को संविधान में स्थान देने की योजना बनाते समय संसद और विधान मंडलों के लिए भी ऐसे ही कदम की रूपरेखा बनी थी। बाद में प्रयास फलीभूत नहीं हुआ। बारह साल बाद महिला आरक्षण ने फिर जोर पकड़ा है। वर्तमान में इस साल के अंत में 5 राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों और अगले बरस लोकसभा चुनावों के मद्देनजर संप्रग कैबिनेट ने महिला आरक्षण संकल्प आपातकालीन बैठक में पारित किया है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट के बाद संभवतः संप्रग सरकार का यह दूसरा प्रमुख कदम होगा, जो वोट बैंक को प्रभावित करेगा।

महिला आरक्षण क्यों? : भारत में महिलाओं को सम्मान और समानता की विचारधारा उतनी ही सशक्त रही है जितनी कि इनके साथ असमानता की। भारतीय, श्रीरामचरित मानस की चौपाई 'महावृष्टि जल फुटि कियारी जिमि स्वतंत्र भई बिगड़त नारी' का जाप भी करते हैं और दुर्गा सप्तशती के 'या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता' का श्लोक वाचन भी करते हैं। सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण में पहले नारी को स्थान दिया गया है।


महिलाएँ त्याग, समर्पण, संसाधनों के पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) के बेजोड़ उदाहरण सामने रखती हैं। एक बार जिसके साथ सप्तपदी के फेरे लेती हैं, एक नहीं सात जन्मों तक उसी के होने की कसम खा लेती हैं।

समय बीतने के साथ पुरुष प्रधान समाज ने ना मालूम कैसे रवैये में परिवर्तन कर लिया और नारी भी इसकी आदी हो गई। सती सावित्री, अहिल्या देवी, महारानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, अदिति पंत, बछेंद्री पाल, किरण बेदी, कल्पना चावला भारतीय महिलाओं के रोल मॉडल हैं। वह कौन-सा कार्य है, जो 'प्रस्तावित 33 फीसदी वर्ग' ने नहीं कर दिखाया है।

सफलता के प्रमाण : पंचायती राज और स्थानीय निकाय संबंधी 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक के अधिनियमित होने के बाद तो महिलाओं की आवाज इस मुद्दे पर और सशक्त हो चली है। धरातली संस्थानों में तो महिलाओं के लिए आरक्षण है, किंतु इनके लिए कानून बनाने वाले संस्थानों में नहीं।
महिला आरक्षण के लिए तर्क कम वजनदार नहीं हैं। महिलाएँ, त्याग, समर्पण, संसाधनों के पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) के बेजोड़ उदाहरण सामने रखती हैं। एक बार जिसके साथ सप्तपदी के फेरे लेती हैं, एक नहीं सात जन्मों तक उसी के होने की कसम खा लेती हैं। संसाधनों का इस्तेमाल पुरुषों की तुलना में महिलाएँ अधिक बेहतर ढंग से करती हैं। घर की चद्दर फटे तो खिड़की के पर्दे, पर्दे फटे तो उससे तकिए की खोल, खोल फटे तो गुदड़ी में भरने के चिंदे और गुदड़ी फटे तो सफाई का पोंछा बना संसाधनों के पुनर्चक्रण की शिक्षा महिलाएँ देती हैं। रात की रोटी बचे तो सुबह स्वादिष्ट चूरा, दाल-सब्जी में नमक अधिक गिरे तो बेसन के गोले डाल खाने योग्य बनाने की कला महिलाएँ ही जानती हैं। महीने के अंत में जेब खाली होने पर महिलाओं की मिट्टी गुल्लक ही सिक्के उगलती है। पंचायती राज संस्थानों में 'मैडम सरपंच' के लिए स्थान बनाते समय इन्हीं बिंदुओं पर गंभीरता से विचार हुआ था। अब संवैधानिक संस्थानों के लिए भी ऐसी व्यवस्था जोरदार ढंग से अनुभव हो रही है।
क्या है समस्या : मौजूदा राजनीतिक समीकरण में रोचक तथ्य यह है कि संप्रग के समर्थन में राजग प्रमुख भाजपा अपना समर्थन लिए खड़ी है। संप्रग के बाह्य समर्थक वामदल भी आरक्षण विधेयक के समर्थक हैं। आखिर 'गृह मंत्रालय' व 'वित्तमंत्री' की नाराजगी कौन झेले? (कहीं महिलाएँ घर के लिए गृह मंत्रालय और कहीं वित्तमंत्री कहलाती हैं।


कहीं महिलाएँ घर के लिए गृह मंत्रालय और कहीं वित्तमंत्री कहलाती हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में चार वित्तमंत्री हैं। एक तो सरकार के वित्तमंत्री, दूसरा वित्तमंत्री मानसून, तीसरा वित्तमंत्री अन्नदाता और चौथा वित्तमंत्री गृहिणी।

भारतीय अर्थव्यवस्था में चार वित्तमंत्री हैं। एक तो सरकार के वित्तमंत्री, दूसरा वित्तमंत्री मानसून, तीसरा वित्तमंत्री अन्नदाता और चौथा वित्तमंत्री गृहिणी।) संप्रग घटक राजद, द्रमुक, पीएमके दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहता है। सपा भी कोटे में कोटे की पक्षधर है।मंगलवार को उच्च सदन में विधेयक प्रारूप रखने के बाद जो स्थिति सामने आई, उसे टाला जा सकता था। विधेयक अब सदन की स्थायी समिति की संपदा है, जहाँ हर सदस्य को अपनी बात रखने का हक है। मंगलवार के बर्ताव ने महिलाओं का दिल फिर आहत किया है।संसद के मानसून सत्र तक आम सहमति विकसित होने की आशा की जानी चाहिए। ऐसे में साल के अंत तक मध्यप्रदेश विधानसभा में भी महिलाओं के लिए 33 प्रश आरक्षण की संभावना प्रबल दिखाई देती है। दरअसल भारत के पड़ोसी राज्यों नेपाल और पाकिस्तान के संसदीय चुनावों में विजयी महिलाओं की संख्या (पाक 75, नेपाल 161) ने भारत में इस दिशा में दबाव बनाया है।

संग्राम और सृजन

शौर्य निर्भीकता, संकल्प, साहस, आत्म-आश्वस्ति, शरीर और मन के कौशलों का स्थायी भाव है, लेकिन यह सिर्फ योद्धाओं के लिए जरूरी नहीं है, यह सिर्फ साधकों के लिए ही अपरिहार्य नहीं है, बल्कि पूरे 'लोक' के लिए जरूरी है। सिर्फ साधारणीकरण के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई कोई सैन्य विषय नहीं है- वह जनता के बीच की चीज है। वीर रस का कोष काव्यशास्त्रियों के अनुसार 'विज्ञानमयी कोष' है, क्योंकि शौर्य को सुस्थिर होने के लिए भावना की नहीं, विज्ञान की आवश्यकता है।

1857 में हुआ स्वतंत्रता संग्राम 10 मई 2008 को अपने 151 वर्ष पूरे कर रहा है, उस पर विशेष आलेख

यह विज्ञानमयी कोष अहंता के पुराने अर्थों में नहीं, बल्कि अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध विशिष्ट सजगता और साधन संपन्नता के अर्थों में वीरता का पोषण करता है। वीर रस का प्रभावी तत्व काव्यशास्त्रों में 'जल' बताया गया है। यदि वीरता कोई संग्राम है तो वह संग्राम रक्त होने से कहीं पहले 'जल' होकर ही सार्थक हो सकता है। पहले लोक के प्रति अन्याय की अनूभूति से हृदय का 'द्रवण' जरूरी है। पहले इस बात से पानी-पानी होना प़ड़ता है कि जब यह सब अन्याय और अतिचार चल रहा है, हम मूक दर्शक बने बैठे हैं। वीरता तब ही है जब लोक भी सिर्फ साक्षी होने की भूमिका से इंकार करें। शामिल हों।



संग्राम हिन्दी के जीन्स में है। यह क्या आकस्मिक ही था कि हिन्दी साहित्य की शुरुआत ही वीरगाथाकाल से हुई? जैसे जापान में 'कोजिकी' ग्रंथ एक शुरुआत है, जिसमें साहित्यिक व मार्शल दोनों कलाओं का सुष्ठू समन्वय है, वैसे ही इस वीरगाथाकाल में हिन्दी के भीतर ऐसे कई ग्रंथ देखे गए कि हिन्दी की जन्मघुट्टी में ही वीरत्व का भाव मिला हुआ था? कि जब तक देश में एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समरसता रही, संस्कृत अपने दायित्वों का निर्वहन करती रही, लेकिन जब देश पर गजनी-गौरी के आक्रमण प्रबल हुए तो हिन्दी सृजन और संघर्ष की, तनावों और द्वन्द्वों की प्रामाणिक भाषा बनकर उभरी? रस का रासों में बदलना एक साधारण घटना नहीं थी।वह एक तरह से वैसा ही volkstum था- वैसा ही फॉकहुड- जैसा फ्रांसीसी प्रभुता के खिलाफ जर्मनी में एक समय जन्मा था।

जर्मनी द्वारा अँगरेजों पर आक्रमण को लेकर 1871 में लिखी गई कहानी द बैटल ऑफ डारकिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि विदेशी आक्रमणों को लेकर कहानियाँ-उपन्यास लिखने का एक साहित्यिक क्रेज पैदा हो गया और 1914 तक चार सौ ऐसी किताबें सामने आ गईं।

हिन्दी कोई भाट-भाषा के जन्म-चिन्ह लेकर नहीं आई, यह संग्रामों के बीच पनपी। जब विदेशी आक्रमण प्रबल हुए तो वे कोई सामन्ती सत्ता परिवर्तन नहीं कर रहे थे, वे भारत के 'लोक' को भी प्रभावित कर रहे थे। उसी 'लोक' को, जिसके बारे में यह भ्रान्ति फैलाई गई कि वह सत्ता-समीकरणों से पूर्णतः निरपेक्ष होकर अपनी पंचायती रिपब्लिक में निमग्न रहता था। यह लोक गाफिल नहीं था- इसने अभिव्यक्ति के नए माध्यम के रूप में हिन्दी को चुना। यह भाषान्तर इस बात को रेखांकित करते हुए संभव हुआ कि शौर्य जब एक नैतिक प्रणाली (एथिकल सिस्टम) के रूप में स्थापित हो रहा था, तो उसे अपनी वैधता (लेजिटिमेसी) के स्थापन के लिए लोक की संस्वीकृति की मुहर जरूरी थी। यह 'विदेशी' के विरुद्ध खाटी 'स्वदेशिता' थी। एकदम जमीनी।

आधुनिक युग में खड़ी बोली ने भी अपने उदय के साथ ही विदेशी प्रभुत्व के विरुद्ध शुरुआत से ही ऐसी चेतनता बरती थी। जब 'अन्य' का चेतना पर वज्राघात हुआ तो 'स्व' की पड़ताल भाषांतर भी संभव करती रही। यदि हमें वाकई स्वतंत्र होने के लिए संघर्ष करना है तो भाषा भी एक ऐसा प्रतीक बन जाती है, जिसमें विचार का वाल्केनो होता है। विदेशी 'अतिक्रमण' इस देश के लोकचित्त में कभी 'आगमन' की तरह स्वीकार नहीं गए हैं- जैसा कि आजकल भारतीय इतिहास की धर्मशालाई अन्वय करने को उत्सुक कुछ स्वनामधन्य इतिहासकार हमें सिखाने को आमादा हैं, बल्कि सच तो यह है कि उन्होंने जबर्दस्त अंतरमंथन पैदा किया है। भाषा और सृजन की दुनिया उसकी बराबर साक्षी रही है। जिस समय बाहर एक संग्राम चल रहा होता है तो भीतर भी एक संग्राम छिड़ जाता है।


कविता या कला उस भीतरी संग्राम की साक्षी होती है। जब हेड्रियन की दीवार आक्रमणों से टूटती है या चीन की ग्रेट वॉल, तो साहित्य अपनी तरह से एक फोर्टिफिकेशन करता है कि कविता जो जोड़ने का काम करती है, स्वयं एक ऐसा युद्धास्त्र हो जाती है जो कैमरा भी है और मोशन-सेंसिटिव सेंसर भी। जर्मनी द्वारा अँगरेजों पर आक्रमण को लेकर 1871 में लिखी गई कहानी द बैटल ऑफ डारकिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि विदेशी आक्रमणों को लेकर कहानियाँ-उपन्यास लिखने का एक साहित्यिक क्रेज पैदा हो गया और 1914 तक चार सौ ऐसी किताबें सामने आ गईं।

सिर्फ आक्रांता और विजेता का ही साहित्य नहीं होता- भले ही रूडयार्ड किपलिंग जैसे कवि रानी विक्टोरिया की डायमंड जुबली पर 'द व्हाइट मैन्स बर्डन' जैसी कविताओं के जरिए 'हाफ-डेविल, हाफ-चाइल्ड' उपनिवेशित लोगों की मधुर तरीके से ऐसी-तैसी करते रहे, बल्कि इन हताश, पराजित और संघर्षरत लोगों का भी अपना साहित्य रहा है। जब वे नष्ट हो रहे थे, तब भी वे सृजन कर रहे थे। फिलिस व्हीटली अफ्रीका से दासी के रूप में खरीदी गई लड़की थी, लेकिन 1773 में प्रकाशित उसकी कविताएँ गुलामी के विरुद्ध अपनी तरह का चीत्कार हैं। गुलामी के जो नए प्रकार आज उभरे हैं। क्या उनका चित्र 'द ब्यूटीफुल आर नॉट बट बार्न' जैसे अफ्रीकी उपन्यास नहीं खींचते? सृजन का संग्राम भी लगभग समानान्तर चलता ही रहता है।यह वर्ष जो कि 1857 का डेढ़ सौवाँ वर्ष है, क्या इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित करेगा कि 'सृजन' का औपनिवेशिक हितों में विनियोग साम्राज्यवादी ताकतों ने कैसे किया होगा? कैसे गुलाम बनाए गए लोगों के अनुभव और यथार्थों को निरूपित करने के लिए साहित्य की सेवाएँ ली गई होंगी? जब अँगरेज भारत आए तो भारत ने उनके जैसा कोई ऐसा राष्ट्र नहीं था, जो किसी सम्राट या अन्य प्राधिकारी से उद्भुत होता हो। भारत में तब भी जो 'राष्ट्र' था वह इसकी भाषा, संस्कृति, प्रथाएँ, परंपराओं में अपना विकीरण प्रसारित करता था।राष्ट्र के वे अदृश्य सूत्रबंध अँगरेजों को नैतिक और सतह सीमित आँखों को अनुपलब्ध थे, लेकिन दृष्टि सीमा को उन्होंने चतुराई से एक ऐसा भारत भार बना दिया, जहाँ एक गुलाम राष्ट्र को भविष्य में इसके लिए विदेशियों का शाश्वत आभारी होना था कि उन्होंने उसे राष्ट्रीयता बख्शी, लेकिन उनके सिखाए-पढ़ाए बिना वह कौन सृजता था, जो भारतीय दुर्दशा पर लिख रहा था? वह क्या कालपुरुष का ही कोई संयोजक था कि भारतेंदु ने भारत की बात शुरू की।
जिस तरह से बेल्जियम क्रांति ऑबेर के la muette de portici नामक उस ओपेरा के बाद हुए दंगे से फूट निकली, जिसमें विदेशी दमन की पृष्ठभूमि में पनपे एक दुखांत प्रेम की कथा है, उसी तरह भारतेंदु के नाटकों में विदेशी दमन के विरुद्ध संघर्ष की एक पृष्ठभूमि बराबर मिलती है, जिसने भारत में राष्ट्रीयता को संरक्षित-सिंचित किया। चाहे 'अँधेर नगरी चौपट राजा' का लोकप्रिय मेटाफर हो, चाहे पगड़ी संभाल जट्टा, का रुपक हो, चाहे बसंती चोले को रंगने की बात हो, राष्ट्रीय लोक विश्वासों की रचनात्मकता में प्रतीकायित होती रही।
जिस तरह से कविता प्रतीकों और बिम्बों का इस्तेमाल करती है, क्रांति ने भी रोटी व कमल के प्रतीकों/बिम्बों का इस्तेमाल किया। जिस तरह से जर्मनी में ब्रदर्स ग्रिम ने लोक वृत्तांतों के संकलन के जरिए एक रोमांटिक राष्ट्रवाद को प्रेरित किया, उसी तरह से भारत में हिन्दी लोक भाषा होने से इस राष्ट्र की वाहिका बन गई। संस्कृति में निहित राष्ट्रीयता के सृजनात्मक सम्प्रेरकों को अँगरेज वैसे ही नहीं समझ पाए, जैसे वे रोटी और कमल को नहीं समझ पाए। उनके दिमाग में 'पैट्रिअटिज्म' का जो खाका था, वह पैट्रि या पिता के रूप में देश को देखता था, लेकिन भारत की भारती तो एक देवी थी।उस राष्ट्रमाता के अभिप्राय अँगेजों को तब तक समझ नहीं आए, जब तक 'वंदे मातरम्‌' के जयोद्घोष ने उन्हें झिंझोड़कर नहीं रख दिया। राष्ट्रवाद संग्राम के कोरिलेट्स में से है, यह बात आज तक के विश्व मूल्य सर्वेक्षणों से सिद्ध होती है, लेकिन भारत की मातृसांस्थानिक राष्ट्रीयता उन विशिष्ट संकुचित वरीयताओं से कभी नहीं निर्मित हुई, बल्कि उसकी हमेशा से कुछ यूनिवर्सलिस्ट आस्थाएँ रहीं। अरुण यह मधुमय देश हमारा के भारत को देखें या कनक शस्य कमल धरे वाली भारती को देखें, जिससे ध्वनित दिशाएँ उदार होती हैं। ये राष्ट्रीयताएँ कहीं भी संकीर्ण और परपीड़क नहीं हैं।

Saturday, October 18, 2008

सफर में धूप तो होगी...

अभी कुछ दिनों पहले एक खबर पढ़ने में आई कि आई-यूरो-2008 फुटबॉल टूर्नामेंट के महत्व को रेखांकित करने के लिए ऑस्ट्रिया के फोटोग्राफर ने एक हजार आठ सौ चालीस लोगों की एक साथ पूर्णतयाः नग्नावस्था में फुटबॉल के साथ तस्वीरें खींचीं। इसके पूर्व भी जर्मनी के एक विशेष विमान में सिर्फ नग्नावस्था में लोगों को बैठाने का रिकॉर्ड बनाया गया था। आजकल कुछ इन्हीं तरीकों के रिकॉर्ड बनाने का चलन-सा चल पड़ा है।


यह सच है कि आदिम सभ्यता में इनसान नग्न रहता था, पेड़ों पर निवास करता था, पर वह 'आदिम' सभ्यता थी। उससे विकास कर आज हम 'आदमी' सभ्यता में पहुँच गए हैं। फिर भी उस 'आदिम' सभ्यता ने आज की इक्कीसवीं सदी की 'आदमी' सभ्यता के समक्ष कई प्रश्न उठा दिए हैं। ऑस्ट्रिया के फोटोग्राफर या उससे पहले जर्मनी के विमानों में नग्न लोगों की बरात का जो कुछ भी जिस भी उद्देश्य से किया गया, उसे कुछ अराजक तत्वों की कारस्तानी कहकर बिलकुल छोड़ा नहीं जा सकता।
वास्तव में यूरोप में काफी समृद्धशाली लोग रहते हैं और वहाँ 'नग्नता' को ईमानदारी और खुलेपन का पर्यायवाची माना जाता है। वहाँ का दर्शन कहता है कि संसार में यदि कुछ पवित्र है, यदि कुछ आजाद है, तो वह है शरीर। यदि कुछ शाश्वत है, कुछ सत्य है, तो वह है देह। पर हमारे यहाँ, जहाँ श्लील-अश्लील, नैतिक-अनैतिक आचरण की कसौटी हमारा विवेक और हमारी बौद्धिकता है, का दर्शन कुछ अलग है।
बारहवीं शताब्दी की शुरुआत से ही नग्नता के पैरोकारों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि उनकी जीवनशैली इनसान को प्रकृति के ज्यादा करीब ले जाती है। उन्होंने अपनी इस प्रवृत्ति को एक विचार के रूप में फैलाना शुरू कर दिया और तर्क दिया कि उनके यहाँ की जीवनशैली समानता के उसूलों से प्रेरित है। लेकिन हम जिस समाज में रहते हैं या हमारी जो जीवन पद्धति है, उनमें इन तर्कों और विचारों की कोई जगह नहीं है। हमारे यहाँ की आवश्यकताएँ बहुत ही अलग तरीके की हैं।
हमारे यहाँ बुनियादी मानवीय जरूरतों के लिए शरीर का शोषण बहुत आसान है। यूरोप के समृद्धशाली देशों में भूख और गरीबी की कोई जगह नहीं है, इसलिए वहाँ देह की आजादी सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों के समर्थन-विरोध का एक शस्त्र या हथियार बन सकती है, पर हमारे यहाँ की स्थिति बिलकुल अलग है। हमारे दर्शन, हमारे इतिहास और अध्यात्म में एक आवरणहीन जीवन की कल्पना की गई है, पर उन्हीं कल्पनाओं के जरिये हमने अपनी जीवन पद्धति को चुना है। इसलिए हमारे यहाँ जब किसी अन्याय या अत्याचार के विरुद्ध कोई आवरणहीन या वस्त्रहीन प्रदर्शन करता है, तो एक तरफ तो उसकी पीड़ा को मापना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाता है और दूसरी ओर हम उसके दुस्साहस की आलोचना करने से भी नहीं चूकते। ऐसे में यदि हमारे यहाँ के जीवन मूल्यों में नग्नता की सेंध लगती है तो वह ऐसा भयानक परिदृश्य होगा जिसकी कल्पना करना हमारे लिए न तो आसान है और न ही हमारे वश में। हमारे यहाँ का दर्शन, पश्चिम के उस दर्शन, जिसमें कहा गया है कि शरीर ही सबसे पवित्र है, से सहमत होते हुए भी शरीर की आजादी को रिश्तों के घेरों से अलग नहीं कर सकता। हमारे यहाँ का दर्शन तो कुछ अलग ही बयान करता है। हम किसी चीज का विरोध तो नहीं करते पर उसे मापने की हमारी एक अलग ही कसौटी है। और वह कसौटी किसी की कही हुई यह पंक्तियाँ हो सकती हैं-
सफर में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में, तुम निकल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम सँभल सको, तो चलो।

गरीब की बात

चुनाव को नजदीक जानकर तमाम नेता किसी न किसी बहाने आजकल गरीब की ही बात कर रहे हैं। कुछ तो ऐसे भी नेता हैं, जो मिट्टी भी ढोकर दिखा रहे हैं। आजकल तो अपने वित्त मंत्री तक कह रहे हैं कि केंद्र सरकार गरीब को इतना पैसा दे रही है, लेकिन गरीब तक यह पहुँच नहीं रहा है।
चुनाव नजदीक हैं, इसलिए वे यह नहीं कह रहे हैं कि फिर इस पैसे को गरीब तक भेजने का फायदा भी क्या? इससे तो अच्छा है कि हम यह पैसा भी अमीरों तक ही पहुँचा देते हैं! आप कमाल देखिए कि गरीब को आजकल इतनी अहमियत मिली हुई है और उस गरीब को इसकी खबर तक नहीं है। अगर किसी को सिर्फ रोटी की ही फिक्र हो तो इसके अलावा और होगा भी क्या?
और मान लो गरीब को इस बात की खबर हो भी जाए कि उसके हिस्से का पैसा उस तक नहीं पहुँच रहा है तो वह कर भी क्या लेगा? वह भी यही कहेगा न कि हमारे गाँव तक सड़क ही नहीं है तो पैसे पहुँचें भी कैसे? बात उसकी बिलकुल दुरुस्त है। देखिए पैसे को तो कहीं-न-कहीं पहुँचना ही है। वह भी चाहता है कि वहाँ पहुँचे, जहाँ राजमार्ग हो, उन हाथों में पहुँचे, जो उसे अपने मिट्टी सने, रूखे हाथों से गंदा नहीं कर देंगे, उसका कड़कपन, उसकी ताजगी को सुरक्षित रखेंगे और वैसे भी मान लो गरीब के पास पैसा पहुँच भी गया तो उसका वह क्या करेगा? कहीं उसका 'प्रॉपर' निवेश तो नहीं करेगा न! फिर उसे देने से क्या फायदा? इसका दूसरा पक्ष भी है। अगर पैसा गरीब तक पहुँचेगा तो वह हद से हद इससे अपनी गरीबी दूर कर लेगा और उसने अपनी गरीबी दूर कर ली तो फिर अपनी इतने दलों की इतनी सारी सरकारें क्या करेंगी? उनके पास काम क्या रहेगा? उनका तो एकमात्र उद्देश्य ही गरीबी हटाना है। इसलिए सरकार को तो यह सुनिश्चित करना होगा कि निरंतर रहे, गरीबी बनी रहे, गरीबों का पैसा जो गरीब नहीं हैं, उन तक पहुँचे। यह काम भी कम मुश्किल नहीं है।

उद्योग जगत उठाए बीड़ा

सिंगूर प्रकरण जमीन अधिग्रहण से जुड़े एक अहम पहलू पर विचार करने के लिए बाध्य करता है। यह पहलू है मुआवजे का। भूमि अधिग्रहण के मामले में दो धारणाएँ काम करती हैं। पहली, अगर सरकार अपनी किसी परियोजना के लिए जमीन लेती है तो किसानों और आम जनता का सोच यह होता है कि यह सबकी भलाई के लिए किया जा रहा है, इसमें मुनाफाखोरी नहीं होगी या फिर कम होगी। सरकारी भूमि अधिग्रहण को लोग कमोबेश ईमानदारी की नजर से देखते हैं। उस हालत में अगर मुआवजे या पुनर्वास को लेकर प्रदर्शन-आंदोलन होता भी है तो वह लंबा नहीं खिंचता। कुछ ही समय बाद वह विरोध शांत हो जाता है। सरकारी अधिग्रहण के मामले में विरोध-प्रदर्शन उतने उग्र और हिंसक भी नहीं होते, जितने कि सिंगूर या देश के दूसरे हिस्सों में प्राइवेट सेक्टर में होते रहे हैं। इसके ठीक विपरीत जब भी कोई उद्योगपति अपने किसी परियोजना के लिए जमीन लेने की बात करता है तो वहाँ जमकर विरोध होता है। हिंसा होती है और साथ ही उस मामले पर राजनीतिक खेल शुरू हो जाता है। जैसा कि सिंगूर या दूसरी बड़ी परियोजनाओं को लेकर होता रहा है। सिंगूर मामले में तो राजनीति भी खूब हुई है। अब सवाल यह उठता है कि वह कौनसा तरीका हो सकता है, जिससे सिंगूर प्रकरण की पुनरावृत्ति न हो। इसके लिए हमें मुआवजे की एक ऐसी ठोस नीति बनाना होगी, जिससे जनता भी खुश रहे, उद्योगपति भी।
दरअसल यह सिर्फ जनता और पूँजीपति के बीच टकराव का मामला नहीं है। इसकी जड़ें हमारी सामाजिक असमानता से जुड़ी हुई हैं। यह बात सही है कि जब भी पूँजीपति अपनी कोई परियोजना शुरू करता है तो उसके पीछे ध्येय विशुद्ध रूप से मुनाफा कमाना ही होता है। सामाजिक असमानता के यथार्थ को व्यावहारिक रूप से इस तरह समझा जा सकता है। होता यह है कि जब भी किसानों को मुआवजा मिलता है तो वे उस पैसे को अनाप-शनाप ढंग से खर्च कर देते हैं। वे निश्चिंत हो जाते हैं, लेकिन थोड़े ही दिनों बाद उन्हें एहसास होता है कि अब न तो उनके पास अपनी जमीन बची है और मुआवजे का पैसा भी जाता रहा। तब अंदर ही अंदर एक विरोध जन्म लेने लगता है। तंगहाली में उनके बच्चे अपराध और हिंसा के रास्ते पर चल पड़ते हैं। हम पाते हैं कि जहाँ-जहाँ निजी परियोजनाओं का विरोध होता है, आसपास के इलाकों में अपराध दर बढ़ जाती है। सब कुछ गँवा चुके किसानों को यह बर्दाश्त नहीं होता कि उनकी जमीन पर कोई पूँजीपति पनपे, अपनी तिजोरियाँ भरे और वे खस्ताहाल रहें। जब तक समाज के विभिन्न तबकों के बीच दूरियाँ रहेंगी, अमीर-गरीब की खाई बढ़ेगी तो विकृति पैदा होगी। यही विकृति और असमानता हिंसा को जन्म देती है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के रास्ते रोकती है। जो परियोजनाएँ चल पड़ती हैं या तो वे ठहर जाती हैं या पूरी नहीं हो पाती हैं या फिर उन्हें पूरा होने में बरसों लग जाते हैं। इसीलिए एक ठोस मुआवजा नीति की दरकार है। सिंगूर जैसे मामले फिर-फिर न हों, इसके लिए सबसे पहले उद्योग जगत को अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करना पड़ेगी। सरकार की तुलना में उन्हें ज्यादा जिम्मेदार बनना होगा। उचित मुआवजे के कई उपाय हो सकते हैं। एक यह है कि किसान को परियोजना का हिस्सेदार बनाया जाए। उसे भी स्टेक होल्डर बनाया जाना चाहिए। यह भी कर सकते हैं कि मुनाफे की हालत में एक निश्चित रकम किसानों में बाँट दी जाए। उनके बच्चों को रोजगार का आश्वासन नहीं, सच में काम दिया जाए।
हालाँकि जब भी कोई बड़ी परियोजना शुरू होती है तो उद्योगपति उसमें आसपास के लोगों को रोजगार देने की बात कहता है, गारंटी देता है, लेकिन जब यह बात व्यावहारिक रूप से सही साबित नहीं होती तो असंतोष बढ़ता है, इसीलिए सबसे पहले उद्योग जगत को पहल करना होगी। उद्योगपति राहुल बजाज सिंगूर प्रकरण के मद्देनजर अपनी बिरादरी की जिम्मेदारी से जुड़ी यह बात कह भी चुके हैं।
उद्योग जगत से अधिक जिम्मेदार होने की अपेक्षा इसलिए भी की जाती है कि सरकारें अपनी इस भूमिका में अब तक नाकाम रही हैं। राजनीति ने अच्छे खासे मामलों का बेड़ा गर्क कर दिया है। नेता सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकते हैं। बीच में आकर पैसा बटोरते हैं और मामले को कहीं का नहीं छोड़ते। एक सामाजिक जागरूकता की भी जरूरत है और इसी चेतना की उम्मीद इंडस्ट्री से भी की जाती है। अगर उद्योग जगत इस बात पर गहराई से विचार करे और एक दूरगामी फायदे के बारे में सोचे तो यह समझ में आने वाला रास्ता है, क्योंकि टकराव या विरोध से सबसे ज्यादा नुकसान या तो पूँजीपति का होता है या फिर आम जनता का। नेताओं का इसमें धेला नहीं जाता। उनकी न तो जनता के प्रति कोई प्रतिबद्धता है और न देश को लेकर। तभी जनता भी परेशान है। लिहाजा जिम्मेदारी का बीड़ा उद्योगों को ही उठाना होगा।
समय के हिसाब से अब उद्योग जगत को ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है, क्योंकि यह सवाल सिर्फ किसानों और उनके बीच का नहीं है। यह सवाल पूरे देश का है। उद्योगपतियों को चाहिए कि वे एक बड़े परिप्रेक्ष्य में अपनी परियोजनाओं को सामाजिक ताने-बाने से जोड़कर देखें। जब उद्योग जगत पूरे समाज को साथ लेकर तरक्की की योजना बनाएगा तो अमीर-गरीब की खाई कम होगी और किसान अपने भविष्य और परिवार को लेकर आश्वस्त होंगे। उस हालत में विरोध की गुंजाइश कम होती चली जाती है। अगर एक बार किसान अपने घर-परिवार को लेकर आश्वस्त हो गए और समाज में जागरूकता बढ़ी तो नेता अपनी राजनीतिक रोटियाँ नहीं सेक पाएँगे, लेकिन सबसे बड़ी बात मुआवजे की है। अगर उद्योग जगत इस बारे में ठोस नीति बनाकर उस पर ईमानदारी से अमल करता है तो निश्चय ही असंतोष के स्वर हल्के पड़ेंगे।

सूचना का अधिकार कानून के तीन साल

कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार द्वारा लाए गए सूचना का अधिकार कानून ने तीन साल पूरे कर लिए हैं। मनमोहन सरकार के लिए यह कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय खुद इसकी कार्यप्रणाली को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने में शुरुआत से ही दिलचस्पी लेता रहा है। हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इसके तहत फोन पर आवदेन की सुविधा देने की घोषणा की है। हालाँकि सरकार इसे अपने कार्यकाल की अहम उपलब्धि मानती है और आम जनता के लिए भी इसकी उपयोगिता को कम करके नहीं आँका जा सकता, लेकिन मैदानी हकीकत देखें तो अपने लागू होने से आज तक यह कानून बहुत उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर पाया है। इसे लाते वक्त यह कहा गया था कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम कसेगी, सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाई जा सकेगी और लोगों का सरकार पर भरोसा बढ़ेगा, लेकिन न तो सरकारी काम का ढर्रा बदला और न ही घूसखोरी कम हुई। भ्रष्टाचार कम होना तो दूर भारत लगातार इस मामले में लगातार नंबर वन होने के करीब पहुँच रहा है।
क्या है कानून : सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) भारत की संसद द्वारा पारित एक कानून है। इसे 12 अक्टूबर, 2005 को लागू किया गया। (15 जून, 2005 को इसके कानून बनने के 120वें दिन)। भारत में भ्रटाचार को रोकने और समाप्त करने के लिए इसे बहुत ही प्रभावी कदम बताया जाता है। इसके तहत भारत के सभी नागरिकों को सरकारी रेकॉर्ड और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार है। जम्मू एवं काश्मीर को छोड़कर भारत के सभी भागों में यह अधिनियम लागू है। सूचना का अधिकार कानून लागू करने वाला भारत दुनिया का 61वाँ देश है। इसकी नींव सबसे पहले स्वीडन में 1766 में रखी गई। इसके ठीक दो सौ साल बाद यानी 1966 में अमेरिकी कांग्रेस ने इसे कानूनी जामा पहनाया। यह विडंबना ही है अपने लागू होने के तीन साल बाद भी भारत के ग्रामीण इलाके इसकी उपयोगिता से अनजान हैं।
कैसी सूचनाओं को जानने का हक : ऐसी हर वह जानकारी जो परिपत्र, आदेश, पत्र, उदाहरण या अन्य किसी रूप में मौजूद है। जिसका संबंध किसी सरकारी या निजी निकाय से है, उसे इस कानून के तहत प्राप्त किया जा सकता है।
ये हैं दायरे से बाहर : ऐसी कोई जानकारी जिससे भारत की स्वतंत्रता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, कार्य योजना, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों, विदेशों से संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हों या अपराध को बढ़ावा मिलता हो, सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत प्राप्त नहीं हो सकती।
प्रचार पर ही लाखों का खर्च : एक जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार के सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनल एंड ट्रेनिंग-डीओपीटी) ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर तीन बरसों में कुल दो लाख रुपए खर्च किए हैं। विभाग के मुताबिक पिछले तीन बरसों में इस कानून के प्रचार के लिए कुल दो लाख रुपए खर्च किए गए हैं। यह पैसा डीएवीपी व प्रसार भारती के जरिए खर्च किया गया है।
यानी इस आँकड़े के मुताबिक वर्ष में लगभग 66 हजार रुपए या यूँ कहें कि सरकार इस कानून के प्रचार पर औसत तौर पर हर महीने महज साढ़े पाँच हजार रुपए खर्च कर रही है।
बोझिल और खर्चीली है प्रक्रिया : सूचना के अधिकार कानून की सफलता को उसकी बोझिल और खर्चीली प्रक्रिया भी संदिग्ध बनाती है। देशभर में समय-समय पर ऐसे कई मामले सामने आए, जिनमें कहीं सूचना अधिकारी ने आवेदन खर्च के रूप में तय मद से कई गुना अधिक राशि की माँग की तो कहीं महीनों चक्कर लगाने के बाद भी आवेदक को असल जानकारी नहीं मिल पाई।
कानून के तहत सामने आए कुछ चर्चित मामले-
*हाल ही में गुजरात प्रदेश कांग्रेस ने मोदी सरकार और रतन टाटा के बीच नैनो कार के लिए हुए समझौते की कॉपी सूचना का अधिकार कानून के तहत माँगी है।
*केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश के बाद मुहम्मद अली जिन्ना के नाती नुस्ली वाडिया को जिन्ना हाउस के संबंध में पूर्व एटार्नी जनरल सोली एस. सोराबजी द्वारा सरकार को दी गई गोपनीय जानकारी हासिल करने का अधिकार प्राप्त हुआ।
*कानून के तहत एक मामले में सही समय पर पर्याप्त सूचना मुहैया नहीं कराने के लिए केंद्रीय सूचना आयोग आरटीआई अधिनियम की धारा 20 (1) के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी कारण बताओ नोटिस जारी कर चुका है।

Friday, October 17, 2008

डटी हुई हैं उर्मिला मातोंडकर

Urmila


उर्मिला मातोंडकर की समकालीन अभिनेत्रियों ने शादी कर घर बसा लिया है, लेकिन उर्मिला अभी भी डटी हुई हैं। उन्हें लगता है कि अभी भी बहुत कुछ हासिल किया जाना बाकी है।
उर्मिला के करियर पर नजर डाली जाएँ तो पिछले चार वर्षों में उनकी छ: फिल्में प्रदर्शित हुई हैं। इसके अलावा कुछ फिल्मों में उन्होंने संक्षिप्त भूमिका निभाई। जब फिल्मों में काम मिलना कम हो गया तो उर्मिला ने छोटे परदे की राह पकड़ी। ‘वार परिवार’ और ‘झलक दिखला जा’ में झलक दिखाकर वे दर्शकों और निर्माताओं की यादों में बनी रहीं।
उर्मिला के करियर को रामगोपाल वर्मा ने फायदा और नुकसान दोनों पहुँचाया। उर्मिला ने अपने करियर की श्रेष्ठ फिल्में रामू के बैनर तले की, लेकिन रामू को उन्होंने इतनी ज्यादा तवज्जो दी कि दूसरे निर्माताओं को लगा कि वे रामू कैम्प के बाहर ‍की फिल्में नहीं करना चाहती हैं। इसलिए उर्मिला के नाम पर उन्होंने विचार नहीं किया। जब उर्मिला के करियर में ठहराव आ गया तो रामू आगे बढ़ गए ‍और उर्मिला वही रह गईं। इस महीने उर्मिला की दो फिल्में प्रदर्शित होने जा रही हैं। ‘कर्ज’ और ‘ईएमआय’। ‘कर्ज’ में वे नायिका नहीं, बल्कि खलनायिका के रूप में नजर आने वाली हैं। इसके बावजूद प्रोमो और पोस्टर्स में फिल्म की नायिका श्वेता कुमार की बजाय उर्मिला को महत्व दिया जा रहा है। इसकी यह वजह बताई जा रही है कि पूरी फिल्म उर्मिला और हिमेश रेशमिया की टकराहट के इर्दगिर्द घूमती है।
जब ‘कर्ज’ बनाने की घोषणा हुई थी तो उर्मिला वाले चरित्र के लिए कई नायिकाओं के नाम पर विचार किए गए। निर्देशक सतीश कौशिक ऐसी नायिका चाहते थे, जो खूबसूरत होने के साथ-साथ प्रतिभाशाली भी हो और उर्मिला में उन्हें यह विशेषता मिल गई। कामिनी नामक किरदार ‘कर्ज’ में उर्मिला ने निभाया है। उर्मिला के काम से सतीश कौशिक इतने खुश हैं कि वे तारीफ करते हुए कहते हैं कि उर्मिला को कामिनी के बजाय कमीनी कहना चाहिए। उन्होंने अपनी तरफ से पूरा कमीनापन कामिनी के चरित्र में डाल दिया है। उर्मिला ने ‘कर्ज’ साइन करने में काफी समय लिया था। उनके मन में रोल के प्रति कुछ संदेह था, लेकिन आखिर में उन्होंने अपने दिल की बात सुनकर हाँ कह दी। फिल्म साइन करने के बाद उर्मिला ने कर्ज नहीं देखी। वे नहीं चाहती थीं कि सिमी का अभिनय उनके अभिनय में झलके। ‘ईएमआय’ में उर्मिला एक विधवा महिला का किरदार निभा रही हैं, जो अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अक्सर लोन लिया करती है। उर्मिला को उम्मीद है कि ये दोनों फिल्में उनके फिल्मी करियर में जान डाल सकती है और उन्हें भविष्य में सशक्त भूमिकाएँ निभाने को मिल सकती हैं। वरना छोटा परदा तो हमेशा उपलब्ध है।

मल्लिका हुई खामोश


अभिनेत्री मल्लिका शेरावत अब तक अपनी सभी फिल्मों में बिंदास संवाद बोलती दिखी हैं, लेकिन ऐसा पहली बार होगा, जब वे किसी फिल्म में खामोश नजर आएंगी। दरअसल, मल्लिका हॉलीवुड की फिल्म नागिन- द स्नेक वूमन, जिसका नाम अब हिस्स होने की बात है, में एक खतरनाक नागिन के किरदार में दिखेंगी। इसी फिल्म की शूटिंग के लिए वे मुंबई के फिल्मिस्तान स्टूडियो में दिन-रात व्यस्त हैं।सूत्रों के अनुसार, हाल ही में मल्लिका के कुछ करीबी मित्र फिल्म के सेट पर उनसे मिलने पहुंचे। उन्होंने देखा कि मल्लिका नागिन के गेटअप में लगातार शॉट दिए जा रही हैं, लेकिन वे एक बार भी कोई डायलॉग बोलती नहीं दिखीं। उनके एक मित्र ने उत्सुकता वश उनसे पूछ दिया, आप कोई संवाद क्यों नहीं बोल रही हैं? जवाब में मल्लिका ने हंसते हुए कहा, मुझे कोई डायलॉग नहीं दिया गया है, तो मैं बोलूंगी क्या? जवाब सुनकर मल्लिका के मित्र हैरान रह गए! मल्लिका ने उन्हें बताया, यह मेरी पहली एक ऐसी फिल्म है, जिसमें मैं संवाद बोलती नहीं दिखूंगी। इसमें मैं सिर्फ आंखें और अपनी बॉडी लैंग्वेज के जरिए लोगों से संवाद स्थापित करती हूं।उल्लेखनीय है कि फिल्म नागिन का निर्देशन महिला निर्देशक जेनिफर चैम्बर्स लिंच कर रही हैं। पिछले दिनों मल्लिका इस फिल्म की दिन-रात शूटिंग करने के कारण बीमार हो गई थीं। दरअसल, फिल्म के निर्माता इस फिल्म को जल्द रिलीज करना चाहते हैं और वे इसीलिए वे इसकी शूटिंग जल्द से जल्द खत्म करना चाहते हैं। फिल्म से जुड़े सूत्रों के अनुसार, फिल्म में स्पेशल इफेक्ट्स का कमाल खूब होगा। फिल्म जब रिलीज होगी, तब देखने वाली बात यह होगी कि मल्लिका के लिए उनका नागिन वाला अवतार शुभ साबित होता है या नहीं! यदि फिल्म ने बॉक्स-ऑफिस पर कमाल दिखाया, तो उनके दिन संवर जाएंगे, वर्ना अल्लाह जाने क्या होगा आगे.