13 साल से एक जंग लड़ी जा रही है आबादी के आधे हिस्से द्वारा। महिला आरक्षण विधेयक के साथ ही एक किरण जन्म ले रही हैं कि आधी आबादी अपना हक पाने में सफल रहेगी। लेकिन एक बात जो अब तक समझ में नहीं आई कि इसका 13 सालों तक विरोध क्यों होता रहा? क्यों नहीं लागू हो सका ये अब तक? क्या महिला आरक्षण इतना भयावह है कि देश के कई नेता इसके लागू होने पर असुरक्षित हो जाएँगे? क्या महिलाएँ फिर इनके बस में नहीं रहेंगी?
या फिर हम इस तरह सोचें कि क्या इसके लागू होने भर से महिलाओं को सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी? क्या सचमुच महिला आरक्षण बिल उन्हें इतना सशक्त कर देगा कि फिर कोई प्रतिभा दमन और हक मारने की गलत इबारत नहीं लिख सकेगा। सच थोड़ा सा अलग है। असल में इस बिल के बाद एक दूसरी जंग शुरू होगी।
कब हो सकेगा लागू? ;यह बिल संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण राज्यसभा और लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना जरूरी है। इसके बाद, आधी विधानसभाओं (15) से दो-तिहाई बहुमत से पास होने के बाद यह कानून का रूप धारण कर सकेगा।
अगर हो गया लागू ;इस विधेयक के बाद हर 10 साल में चुनावी सीटों पर रोटेशन होगा।। इस पक्ष पर अभी पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया गया है। इसका एक पक्ष यह है कि कोई भी सदस्य अब अपने निर्वाचन क्षेत्र को अपनी प्रॉपर्टी नहीं समझ सकता। क्योंकि नियमानुसार यह अब बदलता रहेगा। ऐसे में बरसों से एक ही सुरक्षित सीट पर चुनाव लड़ने का और कम मेहनत में जमी जमाई मलाई खाने का नेताओं का मजा किरकिरा हो जाएगा।
किन्तु जो नेता अपने निर्वाचन क्षेत्र को लेकर सचमुच गंभीर होते हैं उनकी दिलचस्पी अब अपने क्षेत्र से घटेगी। क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र स्थायी न रहने से उन्हें बस तात्कालिक फायदे वाले मुद्दे ही नजर आएँगे। लंबे समय से अटके विकास कार्य या लंबे समय के लिए आरंभ होने वाली योजनाएँ हाथ में लेने से वे कतराएँगे।
किसके लिए है और कौन लाभान्वित ;यहाँ थोड़ा सा संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वंचितों के लिए लागू यह विधेयक स्थापित नेताओं के घरों की महिलाओं को ही कृतार्थ करें? या फिर आरक्षण के नाम पर टिकट वितरण हो और ताबड़तोड़ पाने की लालसा में महिला शोषण का नया रास्ता खुल जाए? ऐसा नहीं है कि हम महिला आरक्षण बिल के विरुद्ध हैं लेकिन उसके हर पहलू को समझना भी जरूरी है। इसका लाभ हर उस महिला तक पहुँचे जो सदियों से इसकी अधिकारिणी है, यह जिम्मेदारी कौन लेगा?
विरोध के लिए विरोध :राजनीति की बिसात पर जिन्हें बस विरोध ही करना है, वे अपनी समझ के दरवाजे कभी नहीं खोलेंगे। आखिर क्यों महिला दिवस के शताब्दी वर्ष में भी महिलाओं को अपने लिए इस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है? इस बिल से नेता इतने अधिक आतंकित है कि उपराष्ट्रपति के हाथों से बिल की प्रतियाँ फाड़ देने पर मजबूर हो गए? शर्म आती है इन्हें अपना प्रतिनिधि कहते हुए। एक स्वस्थ और अनिवार्य बहस के लिए आज भी महिलाएँ इन्हीं की मुखापेक्षी हैं। ये कैसे नेता हैं, महिलाओं की प्रतिभा से डरते हैं या अपनी ही असलियत के सामने आ जाने से?
आरक्षण के साथ संरक्षण भी :ये बात विरोध कर रहे नेता भी भली भाँति जानते हैं कि महिलाओं को अगर एक स्वस्थ, सुरक्षित और सहज वातावरण भर मिल जाए तो वे कभी इन पर निर्भर नहीं है। लेकिन चुँकि खुला संतुलित और संयमित माहौल देना उनके बस का नहीं है इसलिए आरक्षण की जरूरत आन पड़ी। अगर पहले ही महिलाओं को उनके सहज नैसर्गिक अधिकार मिल गए होते तो जरूरत किसे थी आरक्षण की?
महिलाएँ सक्षम हैं स्वयं को साबित करने के लिए मगर बात सिर्फ मौके की है जो कुछ लोग देना नहीं चाहते। अगर आज भी पुरुष थोड़ा सा उदार हो जाए तो सदियों का अत्याचार भी भुला देने को तैयार है औरतें। मगर असल मुश्किल तो यही है। पिछड़ने के डर से ये नेता बिल को पछाड़ने में लगे हैं।
आरक्षण से लगाम ;यह सच है कि महिलाएँ अब बदल रही है। इतनी तेजी से कि पुरुष चौंक सा गया है। आरक्षण की छड़ी मिलने से उसकी मुखरता और प्रखरता बढ़ेंगी इसमें कोई शक नहीं। उसके सपने भी बदलेंगे और सपनों को पूरा करने का तरीका भी। एक लगाम उन बेलगामों पर भी कसेंगी जिनके लिए आज भी महिला इस्तेमाल की 'चीज' है।
उम्मीदें जिन्दा हैं :यह सदियों का स्वीकारा हुआ सच है कि महिलाओं को जो कुछ भी मिला है वह सहजता से नहीं मिला है। संघर्ष की एक लंबी दास्ताँ उसे लिखनी ही पड़ी है। आरक्षण भला कैसे आसानी से मिल जाएगा? लेकिन यह सच भी उतना ही चमकदार है कि लड़ाई हमेशा उसने जीती है, क्योंकि हारना उसे नहीं आता। उम्मीद कीजिए कि सौ साल के सफर में हम अढ़ाई कोस से आगे निकल आए। उम्मीदें अभी जिन्दा हैं।
1 comment:
फर्क इतना पड़ेगा कि अब बीवियां चुनकर आयेंगी. और एक बोर्ड और बना करेगा जिस पर लिखा होगा सांसद/विधायक पति.......
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