rashtrya ujala

Thursday, December 2, 2010

नीरा राडिया और कॉर्पोरेट मीडिया का चरित्र

नीरा राडिया इनदिनों काफी सुर्खियों में है उनकी करतूत पूरे देश के सामने है। व्यापार और राजनीति का घालमेल किस तरह चल रहा है नीरा प्रकरण से बखूबी देखा जा सकता है। ब्रिटेन की मूल निवासी नीरा राडिया करतूतों को किनारे कर जरा उसकी सक्रियता देखिए। पिछले नौ सालों के दौरान वह देश की राजधानी पर इतने करीने से नजरे इनायत करती है कि दो शीर्ष उद्योगपति रतन टाटा और मुकेश अंबानी नीरा के घाट पर एक साथ पानी पीने चले आते हैं। राजनीतिज्ञ, नौकरशाही, मीडिया और उद्योगपतियों के चतुष्कोण को आपस में ऐसा जोड़ देती है कि अबला नारी नीरा एकाएक सबला नजर आने लगती है।
लेकिन नीरा राडिया की वजह से देश में एक ऐसी बहस खड़ी हो गयी है जो पेड न्यूज की सड़ांध में भी पैदा नहीं हो सकी थी। वह बहस है मीडिया पर सभ्य पत्रकारिता के ऐसे कई चेहरे दागदार हो गये जिनके दम पर देश की अंग्रेजी पत्रकारिता भाषायी पत्रकारिता के नाम पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता को हेयदृष्टि से देखती थी। नीरा ने इन सबको नंगा कर दिया। नीरा ने अंग्रेजी पत्रकारिता को अपने फायदे के लिए बहुत करीने से इस्तेमाल किया है। नीरा के कारनामों की जो कड़ी खुल रही है उसमें अन्य तथ्यों के अलावा एक तथ्य बहुत खुलकर सामने आ रहा है कि नीरा राडिया ने अंग्रेजी पत्रकार और पत्रकारिता को अपने कारपोरेट फायदे के लिए जमकर इस्तेमाल किया है। एक लिहाज से देखा जाए तो नीरा राडिया ने कुछ भी ऐसा नहीं किया है जिसके लिए उन्हें दोषी ठहराया जा सके। बरखा दत्त, वीर संघवी ने भी ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके लिए उनकी पत्रकारिता पर सवाल खड़े कर दिये जाएं। अगर आप बरखा दत्त और वीर संघवी के नीरा राडिया से हुई बातचीत के टेप सुनेंगे तो उसमें आपत्तिजनक कहने जैसा कुछ नहीं है। दिल्ली में रहनेवाले वही पत्रकार सफल और महत्वपूर्ण माने जाते हैं जो सियासी गलियारों में अपनी पकड़ रखते हैं। यह तो हैसियत की बात है कि कोई पत्रकार इतनी हैसियत रखता है कि वह सत्तातंत्र को प्रभावित कर सकता है। जो लोग वीर संघवी और बरखा दत्त पर सवाल उठा रहे हैं वे खुद अपने गिरेबां में झांककर देखें, उनके ज्यादा नीच कर्म उन्हें दिखाई दे जाएंगे।