rashtrya ujala

Sunday, December 5, 2010

लोकतंत्र या लाठीतंत्र

लखनऊ में अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे प्रदेश के निहत्थे ग्राम सेवकों पर लाठीचार्ज और फायरिंग कर यूपी पुलिस ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह पूरी तरह से निरंकुश है। पुलिस की इस बबर्रता ने अंग्रेजों के जमाने की याद ताजा कर दी जब स्वतंत्रता प्रेमी अपनी मांगों को लेकर पुलिस के जुल्म का शिकार होते थे। इस घटना में कई निर्दोष घायल हुए हैं,जिनमें कई की हालत गंभीर बनी हुई है। यह घटना मानवता को शर्मसार कर देने वाली है। लोकतंत्र में आवाम को यह हक है कि वह अपनी मांगों के लिए आंदोलन करे। लोकतंत्र इस बात की कतई इजाजत नहीं देता कि बेगुनाह जनता की आवाज को जुल्म के जोर पर दबाया जाए। अगर किसी सूरत में ऐसा हो रहा है तो यह समझना चाहिए कि कहीं न कहीं सरकार निरंकुशता की ओर बढ़ रही है। हैरत करने वाली बात है कि यह घटना उस प्रदेश की है जहां की मुख्यमंत्री खुद को दलितों और लाचारों की हमदर्द बताती है। घटना के दिन वह राजधानी में थी लेकिन सरेआम पुलिस वालों का नंगा नाच चल रहा था और मायावती नीरो की तरह बेफिक्र आराम फरमा रही थी। एक पुरानी कहावत है जब शासन निकम्मा हो जाता है तब सरकारी अधिकारी और कर्मचारी निरकुंश हो जाते हैं। यह बातें मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश की हालत को देखकर बिल्कुल समीचीन दिखती है। अराजकता अपने चरम पर पहुंच गया है, आम आदमी के मन में आज अपराधियों से ज्यादा खाकी वर्दी वालों का खौफ है। लखनऊ में बेगुनाह सैंकड़ों ग्राम सेवकों का खून बहाकर यूपी पुलिस अपनी असलियत जगजाहिर कर चुकी है। सवाल यह है कि आखिर प्रदेश पुलिस इस घटना को अंजाम किस बुनियाद पर दिया। सरकार के खिलाफ विरोध जताना स्वतंत्र देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार है। लेकिन इसका जबाव प्रशासन गोलियों से दे ये कहां का इंसाफ है?