rashtrya ujala

Wednesday, January 21, 2009

अपराध को बढ़ावा तो नहीं!

जैसे सभी अपराधी, बलात्कारी, लुटेरे, चोर और दूसरे लोग या तो सुधर गए हैं या उन्होंने देश छोड़ दिया है या वे संत बन गए हैं। अपराध देश से खत्म हो गए हैं और लोग पूरी तरह कानून परस्त हो गए हैं। अगर 23 दिसंबर 2008 को लोकसभा द्वारा अनुमोदित अपराध दंड संहिता में हालिया संशोधन को देखें, तो भारत पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श देश बन गया है। संसद ने 17 मिनट में बिना किसी बहस के कुल आठ विधेयक पारित किए। अपराध दंड संहिता

सचाई यह है कि हमारे देश में कानून और अधिकारियों की कोई इज्जत नहीं है। कानून पहले से काफी उदार होने की वजह से आम आदमी के लिए न्याय और शांति सुनिश्चित करने में समर्थ नहीं है

में नए संशोधन को उच्च सदन यानी राज्यसभा द्वारा पहले ही पारित किया जा चुका है। यह राष्ट्रपति द्वारा सहमति दिए जाने के बाद, जो कि सिर्फ एक औपचारिकता है, लागू हो जाएगा।
नया कानून पुलिस को उन सभी मामलों में गिरफ्तारी करने से वंचित करता है, जहाँ अधिकतम संभावित सजा सात साल या कम की है। मोटे तौर पर पुलिस चोरों, चोरी का सामान खरीदने वालों, ठगों, अतिक्रमण करने वालों, क्रेडिट कार्ड में हेर-फेर करने वालों, लूट-खरोट करने वालों या जेबकतरों, उठाईगीरों या दंगाइयों, एक-दूसरे को पीटने वालों या तेज गति में गाड़ी चलाने वालों, सड़क दुर्घटनाओं में लोगों को मारने वालों या भ्रष्टाचारियों को गिरफ्तार नहीं कर पाएगी।7 साल से कम की सजा वाले बहुत से अन्य अपराध भी हैं, जैसे हत्या का प्रयास (धारा 308) या लूटपाट (धारा 393), धोखाधड़ी (धारा 320), किसी महिला के सम्मान को ठेस पहुँचना (धारा 354) और लापरवाही से हत्या (धारा 304 ए)। आरोपी को गिरफ्तार करने की बजाय पुलिस अब उसे 'हाजिर होने का नोटिस' जारी करने के लिए बाध्य होगी, जिसमें आरोपी से पुलिस के सामने हाजिर होने और जाँच में 'सहयोग' करने का अनुरोध किया जाएगा। अगर वह नोटिस की अवधि के भीतर इसका पालन न करे, तभी उसे गिरफ्तार किया जाएगा।हो सकता है कि यह नैतिकता के आधार पर और पुलिस को अपनी शक्तियों के दुरुपयोग से रोकने के लिए किया गया हो। सचाई यह है कि हमारे देश में कानून और अधिकारियों की कोई इज्जत नहीं है। कानून पहले से काफी उदार होने की वजह से आम आदमी के लिए न्याय और शांति सुनिश्चित करने में समर्थ नहीं है। सिर्फ कानून पारित करने और पुलिस पर प्रतिबंध लगाने से स्थिति में सुधार नहीं आएगा जब तक कि सिर्फ पुलिस नहीं, बल्कि पूरी आपराधिक न्याय व्यवस्था को देश में अपराध तथा अपराधीकरण रोकने के लिए लैस नहीं किया जाएगा। एक आम नागरिक की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह वकीलों पर काफी पैसा खर्च करने के अलावा अक्सर अपने जीवन काल में न्याय नहीं प्राप्त कर पाता। इसका परिणाम है अदालतों में सभी स्तरों पर मामलों की संख्या बढ़ना, क्योंकि सरकार न्यायिक ढाँचे और कर्मचारियों, जिनमें जाँचकर्ता और अभियोजक शामिल होते हैं, की बढ़ती आवश्यकताओं से तालमेल बिठाने में अनिच्छुक या उदासीन होती है।

1 नवंबर 2008 को सर्वोच्च न्यायालय में कुल 49,263 एडमिशन एंड रेग्यूलर मामले लंबित थे। 30 सितंबर को उच्च न्यायालयों में कुल लंबित दीवानी मामलों की संख्या 3081053 थी और लंबित फौजदारी मामलों की संख्या 754654 थी। इस प्रकार 30 सितंबर 2008 को उच्च न्यायालयों में कुल 3835707 मामले लंबित थे। सबसे अधिक लंबित मामले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में थे, जिनकी संख्या 887402 थी। मद्रास उच्च न्यायालय में उसी दिन 446975 मामले लंबित थे। जहाँ तक निचली अदालतों का संबंध है, 7492561 दीवानी मामले और 18897279 फौजदारी मामले लंबित थे। इस प्रकार इन अदालतों में 2 करोड़ 63 लाख 89 हजार 840 मामले लंबित थे।आप मामलों को कैसे निपटाएँगे, जब उनका फैसला करने वाला कोई नहीं होगा। ट्रायल अदालतों में साल-दर-साल रिक्तियाँ लगभग उतनी ही रही हैं। अगर 2007 के अंत में रिक्तियाँ 3233 थीं, तो अब वह 3239 है। निचली न्याय व्यवस्था में जजों की स्वीकृत क्षमता देश भर में 16,158 है। इस तरह रिक्ति का प्रतिशत 20 फीसदी है।यह कई उच्च न्यायालयों के मामलों में भी सच है। लगभग 38 लाख लंबित मामलों के साथ उच्च न्यायालय 886 की स्वीकृत क्षमता के मुकाबले 620 जजों के साथ काम कर रहे हैं। पारित हुआ हर अतिरिक्त कानून या उसमें किया गया संशोधन आपराधिक न्याय प्रणाली का काम बढ़ाता है, चाहे वह किसी मामले की जाँच हो या उस पर फैसला सुनाना। मौजूदा कानून अपराधियों और अपराधी वर्ग के पक्ष में झुका हुआ है। यहाँ तक कि राष्ट्रीय

हमारे देश के संविधान में दिए गए अधिकार मानवाधिकारों की तरह है, लेकिन निश्चित रूप से संविधान के निर्माताओं का इरादा अपराधियों, लुटेरों, चोरों, डकैतों, महिलाओं व बच्चों के शोषकों को कानून के फंदे से बचने के लिए उनका दुरुपयोग करने देने का नहीं होगा

राजधानी में हाई प्रोफाइल मामलों (प्रियदर्शिनी मट्टू और जेसिका लाल) में, जजों ने खुद टिप्पणी की कि उन्हें विश्वास है कि आरोपी ने वह अपराध किया है, लेकिन उन्हें सुबूतों के अभाव में, जो कि कानून की अनिवार्यता है, छोड़ना पड़ रहा है। निश्चित रूप से उच्च न्यायालयों में इन फैसलों को उलट दिया गया।


अपराधियों से सख्ती से निपटने की बजाय उनके लिए जान-बूझकर या अनजाने में नए और नए बचाव के रास्ते बनाए जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि जो लोग कानून बनाते हैं या उनकी सिफारिश करते हैं, वे वातानुकूलित कमरे में बैठते हैं और इस बात से पूरी तरह बेखबर होते हैं कि असलियत में क्या चल रहा है। अब तक किसी विधि आयोग ने किसी पुलिस स्टेशन में जाकर ब्योरों की समीक्षा नहीं की कि किसी जाँचकर्ता को सबूत इकट्ठा करने में कौन-सी मुश्किलें आती हैं और आम तौर पर लोग सबूत देने या गवाह बनने के लिए क्यों नहीं आगे आते। किसी विधि आयोग ने एक ट्रायल अदालत में जाकर मुकदमे की पूरी कार्रवाई नहीं देखी, ताकि उसे जमीनी हकीकतों का प्रत्यक्ष अनुभव हो सके। अंत में, हमारे कानून इस पर आधारित हैं कि स्थितियाँ कैसी होना चाहिए, इस पर नहीं कि वे कैसी हैं और समाज तथा पीड़ितों के पक्ष में उन्हें कैसे सुधारा जाना चाहिए? परिणाम यह कि की गई सिफारिशों का देश की मौजूदा स्थिति और जमीनी हकीकतों से कोई लेना-देना नहीं है। किसी भी कानून का परीक्षण ऐसा होना चाहिए कि क्या वह देश में आपराधिक गतिविधियों को बढ़ाएगा और क्या वह अपराधियों को और बेखौफ बनाएगा।हमारे देश के संविधान में दिए गए अधिकार मानवाधिकारों की तरह है, लेकिन निश्चित रूप से संविधान के निर्माताओं का इरादा अपराधियों, लुटेरों, चोरों, डकैतों, महिलाओं व बच्चों के शोषकों को कानून के फंदे से बचने के लिए उनका दुरुपयोग करने देने का नहीं होगा। जोगिन्दर सिं सीबीआई के पूर्व निदेशक

2 comments:

Dr Parveen Chopra said...

जानकारी उपलब्ध करवाने के लिये आभार

दिनेशराय द्विवेदी said...

हिन्दी ब्लाग जगत में आप का स्वागत है। आप ने आज के आलेख से जो मुद्दआ उठाया है। उसे तीसरा खंबा ब्लाग लगातार साल भर से उठाता रहा है। पर इस मुद्धे को अनेक मंचो से उठाना आवश्यक है। बल्कि इसे राजनैतिक मुद्दा बनाना आवश्यक है।

आप अपने ब्लाग से वर्ड वेरीफिकेशन हटा देंगे तो टिप्पणियाँ करने में सुविधा होगी।