नई दिल्ली [निर्मेश त्यागी ]। एक खामोश मुहिम में जुटी हैं दिल्ली की संगीता अग्रवाल। हर सुबह उनको फिक्र रहती है एक ऐसे तबके के बच्चों की, जो आजादी के छह दशक बाद भी उपेक्षित है। इन बच्चों को वह पढ़ना-लिखना तो सिखाती ही हैं। साथ में बेकार घरेलू सामग्रियों को कलाकृतियों की शक्ल देने के गुर भी बताती हैं।हर पल कुछ अलग कर गुजरने की उमंग लिए 35 वर्षीय संगीता अग्रवाल रोजाना सुबह में ही निकल पड़ती हैं राजधानी दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए, उनमें एक नन्हा कलाकार गढ़ने के लिए।संगीता कहती हैं कि आजादी के 62 साल बाद भी देश में एक वर्ग उन बच्चों का है, जिन्हें कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। उनकी जिंदगी सड़क पर भीख मागते, कूड़ा बीनते व ढाबे पर नौकरी करते हुए गुजर रही है। ऐसे बच्चों को स्वयं की पहचान कराने और हकीकत के धरातल पर लाने का सही वक्तआ चुके है।इसी सपने को साकार करने के लिए संगीता बच्चों को उन सामग्रियों के सदुपयोग का सलीका सिखाती हैं, जिन्हें अनुपयोगी समझकर कचरे में फेंक दिया जाता है।दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट संगीता के लिए आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों को पढ़ाने-सिखाने की शुरुआत करना आसान नहीं था। उन्हें शुरू में काफी परेशानिया आईं। पुनर्वासित कालोनियों में लोग इनके पास बच्चों को भेजने से कतराते थे। इसके बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और कोशिश करती रहीं। इस दौरान अपने उद्देश्य में आड़े आने वाली पब्लिक रिलेशन व एडवरटाइजिंग की नौकरी को भी छोड़ दिया।
न सर्दी की परवाह, न गर्मी की फिक्र। अपनी मुहिम में वह अब तक आठ सौ बच्चों को जोड़ चुकी हैं। राजधानी के हर क्षेत्र में घूम चुकीं संगीता अब एनसीआर व महाराष्ट्र के बच्चों को इस कला से जोड़ना चाहती हैं।संगीता का कहना है कि उन्हें बर्बादी पंसद नहीं। वह भी ऐसी चीजों की, जिनका इस्तेमाल हम रोजमर्रा की जिंदगी में करते हैं। लोग प्रयोग के बाद इन चीजों को खुलेआम सड़कों, पार्क और सार्वजनिक स्थानों पर फेंककर गंदगी भी फैलाते हैं।उन्होंने बच्चों को थर्मोकोल, कार्ड बोर्ड, प्लास्टिक ग्लास, प्लेट, कप, कंप्यूटर की खराब सीडी, यहा तक कि शादी कार्डो तक के प्रयोग से नई चीजें बनाना सिखाया है। बच्चों ने भी बड़े चाव से कलात्मक वस्तुओं के निर्माण के साथ भविष्य में हर चीज का सदुपयोग करना सीखा है। इससे वह काफी खुश हैं।उन्होंने आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को साक्षर करने के साथ उन्हें ग्लास पेंटिंग, शिल्पकार कृति, कंचे, शीशे की बोतल व आयल पेस्टल पेटिंग भी सिखायी है।संगीता ने बताया कि इन बच्चों में सीखने का उत्साह इतना ज्यादा है कि वे उनकी हर कक्षा में उपस्थित रहते हैं। कक्षा लगने की जगह न होने के कारण वह पार्क, सामुदायिक भवन में ही बच्चों को सिखाती हैं।
5 comments:
शाबाश!
कभी कभी लगता है इंसानियत ऐसे ही लोगों के वज़ूद पर टिकी हुई है।
संगीता जी के इस प्रयास पर बहुत बधाई और शुभकामनायें ...मानवता को ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है ...!!
बहुत अच्छा लगा .. अपना पेट तो कुत्ते बिल्ली भी पाल लेते हैं .. दूसरों के बारे में सोंचने से ही मानव जीवन की सार्थकता है।
sangeeta ji.....aapko sailyoot....!!
just keep it up, hun !
अब मंजिल दूर नहीं !
आखिर, रोशनी की छोटी सी एक किरण घनघोर अँधेरे को हरा देती है !
regards.
Post a Comment