नौतुंबी, उम्र केवल 40 साल, लेकिन उनके फक्क चेहरे पर तैरती झांई जैसे कहीं अधिक पुरानी हो. इतनी ख़ाली आंखें कम ही दिखती हैं लेकिन इतनी ख़ाली आंखों में इतनी दृढता और भी विरल है.अपने बेटे संजीत की तस्वीर को हाथों से बार बार पोंछते हुए नौतुंबी कहती हैं, "मैंने अभी तक अपने बेटे का अंतिम संस्कार नहीं किया है। और जब तक मुझे न्याय नहीं मिल जाता करूंगी भी नहीं. आख़री सांस तक लड़ूंगी."उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले में अपने टूटे और अस्तव्यस्त मकान के बाहर खड़ी मंजू गुप्ता की आंखों में उनकी 60 साल की उम्र से पुराना शक़ है जो सामने खड़े हर अजनबी चेहरे पर रुकता है। वो बार बार सिर पकड़ कर कहती हैं, "अब हमें कुछ नहीं कहना है. किसी से शिकायत नहीं करनी है. पुलिस से दुश्मनी कौन मोल ले. लाखों का बेटा चला गया. अब कैसी उम्मीद." राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार भारत में पिछले तीन सालों में औसतन हर तीसने दिन एक व्यक्ति की पुलिस के साथ कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मौत होती है. मरने वाले लोगों की सूची में संजीत और गौरव गुप्ता के नाम दर्ज हो गए हैं.आयोग के अनुसार पूरे देश में लगभग एक साल में कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में लगभग 130 लोग मारे गए हैं. पिछले एक साल में ही कथित फर्ज़ी मुठभेड़ो के सबसे ज्यादा यानि 51 मामले उत्तर प्रदेश से हैं जब कि दूसरे नंबर पर है देश का एक सबसे छोटा राज्य मणिपुर जहां कम से कम 21 मामले दर्ज हुए हैं.चौंकाने वाली बात यह है कि इसी साल सबसे ज़्यादा यानि 74 शौर्य पदक मणिपुर की पुलिस को मिले और इनमें से ज्यादर मुठभेड़ों के लिए मिले जबकि शेष राज्यों की पुलिस को केवल 138 शौर्य पदक मिले.
पुलिस के दावे:-उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एके जैन स्पेशल टास्क फ़ोर्स में लंबा समय बिता चुके हैं और फ़र्जी मुठभेड़ों के आरोपों का खंडन करते हैं. वो कहते हैं, "जब पुलिसकर्मी मुठभेड़ों में मरते हैं तो कोई यह सवाल नहीं करता. मगर जहां फ़र्ज़ी मुठभेड़ के मामले आते हैं वहां पुलिस कार्यवाई भी करती है और ताकतवर लोग भी उसकी ग़िरफ़्त में आते हैं."जहां तक मणिपुर की बात है वहां के पुलिस महानिदेशक जॉय कुमार कहते हैं, "जो लोग मुठभेड़ो में मरते हैं उनसे हथियार बरामद होते हैं. पुलिस पर फ़र्जी मुठभेड़ का आरोप लगाने वाले लोग पृथक्तावादी संगठनों के समर्थक हैं."
23 जुलाई 2009 को संजीत की मौत के बाद से मणिपुर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थमा नहीं है. पिछले लगभग तीन महीनों से छात्र संगठनों के आह्वान पर स्कूल कॉलेज बंद हैं. दबाव में मणिपुर सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश दिए और एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को निलंबित किया.लखीमपुर खीरी में पुलिस गौरव गुप्ता को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारने के आरोपों का खंडन करती है. उस पर आरोप था कि उसने एक पुलिस अधिकारी की हत्या की थी. लेकिन गौरव गुप्ता के 20 वर्षीय भाई रिक्कू का कहना है कि पुलिस उसी के सामने लखनऊ में गौरव को ग़िरफ्तार कर के ले गई थी. आज वहां कुछ राजनीतिक गुट सच्चाई को सामने लाने के लिए प्रयास कर रहे हैं.
वजह क्या है?
कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की वजह क्या है, क्या सच्चाई है? जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप कौन से चश्मे से इसे देख रहे हैं. सरकार बढती मुठभेड़ों के बारे में देश में बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों की ओर इशारा करती है. लेकिन अगर कथित फर्ज़ी मुठभेड़ों में मरने वालों की पृष्ठभूमि पर नज़र डालें तो ज्यादातर लोग या तो छोटे मोटे अपराधी थे या उनका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं था.एसआर दारापुरी उत्तर प्रदेश पुलिस में अतिरिक्त महानिदेशक रह चुके हैं और अब मानवाधिकार संगठन पीपल्स यूनियन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स के उपाध्यक्ष हैं. वे कहते हैं, "राजनीति में अपराधी तत्वों का बढता प्रभाव कथित फर्ज़ी मुठभेड़ों के पीछे एक बड़ा कारण है. जो राजनेता सत्ता में हैं उनके लिए काम करने वाले अपराधियों को संरक्षण मिलता है जब कि उनके विरोधियों के लिए काम करने वाले अपराधियों को ख़त्म करने के लिए पुलिस को औजार बनाया जाता है. कई मामलों में पुलिस सत्तारुढ राजनेताओं को ख़ुश करने के लिए, पदोन्नति और शौर्य पदकों के लिए भी ऐसी कार्रवाईयां करती है."मुठभेड़ फर्ज़ी है या नहीं यह साबित करना एक आम आदमी के लिए जिसका रिश्तेदार मारा गया हो वैसा ही है जैसे वो पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ रहा हो. ग़ैर सरकारी संस्थाओं की मदद से भी यह लड़ाईयां सालों खिंचती हैं.जून 2003 में 19 साल की इशरत जहां और उसके तीन दोस्त गुजरात पुलिस के हाथों मारे गए थे. इस साल गुजरात की ही एक अदालत ने इसे फ़र्जी़ मुठभेड़ करार दिया था. मगर कुछ ही दिनों में ऊपरी अदालत ने इस फ़ैसले पर रोक लगा दी. इशरत जहां की बहन और मां अब सुप्रीम कोर्ट की ओर देख रहे हैं. वो कहते हैं, कि अगर सही तरीके से जांच होगी तो हमें न्याय भी मिलेगा.कई मानवाधिकार कार्यकर्ता और गुजरात के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक रह चुके श्री कुमार मानते हैं कि आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फ़ैसला फ़र्ज़ी मुठभेड़ की वारदातों में कमी ला सकता है.इस फ़ैसले के मुताबिक किसी भी पुलिस मुठभेड़ के बाद लाज़मी तौर पर इसमें शामिल पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज़ हो. मुठभेड़ फर्ज़ी नहीं थी ये साबित करने का भार भी पुलिस पर हो. हालांकि इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. अब नज़र सुप्रीम कोर्ट पर है.
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