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Thursday, July 15, 2010

मानव अधिकार की तलाश में ग्रामीण समाज

निर्मेश त्यागी
विधताओं
में एकता को सदियों से अक्षुण्ण बनाए रखने वाला विश्व में एकमात्र भारतीय समाज है। भारतीय समाज विश्व के अन्य समाजों से इस अर्थ में विलक्षण है कि इसमें विभिन्न धर्मो, संस्कृतियों और भाषाओं का अद्भुुत सामंजस्य है। फिर भी अनेक विविधताओं में जीने वाले लोग किसी न किसी तरह एक सूत्र में बंधे हुए है सभी भारतीय है। भारतीयता की यह व्यापक अवधारणा चलती रहे और समाज के ताने-बाने को सुदृढ़ करती रहे, इसके लिए आवश्यक है कि हम उन व्यापक मानवीय सरोकारों के प्रति सचेत रहे जो सबके लिए समान रूप से प्रासंगिक है। इस दृष्टि से मानव-अधिकारों पर विचार-विमर्श और चिंतन की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज सम्पूर्ण विश्व ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को आदर्श राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था के रूप में न केवल अंगीकार किया है अपितु उसे अपने जीवन में आत्मसात किया गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल आधार है कि वह सभी के लिए समानता का अवसर, जीवन स्तर सुधारने के लिए अपनी तरफ से पहल करें।
इक्कीसवी सदी में कदम रखने के साथ आज भारत आर्थिक सामाजिक वैज्ञानिक और शैक्षणिक दृष्टि से अग्रणी देशों में गिना जाने लगा है। स्वतंत्रता मिलने के बाद पिछले छह दशकों में समाज का खाका बदला है। सामाजिक-राजनैतिक समीकरण बदले है और मध्य वर्ग का उदय हुआ है इसके साथ सूचना क्रान्ति ने जीवन की गति तीव्र की है और साथ ही कई समस्याओं को भी जन्म दिया है। वर्तमान में मानव जाति के सामने सबसे बड़ी समस्या सम्मानपूर्वक जीवन-यापन की है और इन्हें सम्मानपूर्वक जीवन की राह दिखाने का नाम ही मानवाधिकार है। भारत में मानवाधिकार कोई नई अवधारणा नही है। भारतीय संस्कृति में मानव अधिकारों की अवधारणा का बीज पहले से ही विद्यमान है। हमारे देश के सभी प्रमुख धर्मग्रन्थों में अधिकार और कर्तव्य की अवधारणा का संकेत बीज मंत्र के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। दूसरे शब्दों में हमारी संस्कृति मानव अधिकारों को केंद्र में रखकर ही पुष्पित एवं पल्लवित हुई।
वर्तमान परिदृश्य में मानवाधिकारों का संरक्षण आज विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। सम्पूर्ण मानव जाति शोषण, भ्रष्टाचार, उत्पीडऩ एवं आतंकवाद से पीडि़त है। भारतीय संविधान में ऐसे समाज की परिकल्पना की गई है जो सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रतिष्ठा और अवसर की समानता पर आधारित हों। परन्तु जब हम भारतीय समाज के संदर्भ में मानवाधिकारों की चर्चा करते है तो हमारे मस्तिष्क में यहां की सामाजिक व्यवस्था से सम्बद्ध लिंग तथा जातिगत भेदभाव, छुआछुत, अस्पृश्यता की भावना साकार हो उठती है। मानवाधिकार और उनकी रक्षा एक सार्वभौमिक तथ्य है मानवाधिकार के संरक्षण व उनके प्रति आदर चिंता आज समय की आवश्यकता है। भारत की मानव अधिकार संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति जागरूकता इसी बात से स्पष्ट है कि 26 जून 1945 को 50 देशों ने जिनमें भारत भी सम्मिलित था, संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के चार्टर पर हस्ताक्षर किए और एक नए युग का शुभारभ्भ हुआ। यहां यह महत्वपूर्ण है, कि इस चार्टर में सात स्थानों पर मानव अधिकारों का उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही इनके सुझावों को ध्यान में रखकर ही भारत सरकार द्वारा 27 सितम्बर 1993 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई। मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को आयोग गंभीरता से लेता है इसका कारण यह है कि आयोग का लक्ष्य दोषी व्यक्ति को दंडित करना ही नहीं बल्कि पीडि़त व्यक्ति को तत्काल सहायता पहुंचाना भी होता है। स्वतंत्र भारत के छह दशकों में मानवाधिकारों की स्थिति विशेषत: ग्रामीण क्षेत्रों में नितांत शोचनीय रही है। ग्रामीण समाज में बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी, नारी उत्पीडऩ, वेश्यावृत्ति, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता तथा साहूकारों से ऋण लेकर व्यतीत होने वाले जीवन इत्यादि रूपों में नित्य मानवाधिकारो का हनन होता रहा है।
मानवाधिकार हनन के प्रमुख कपितय कारण निम्न है -
शिक्षा: मानवाधिकारों के प्रति किसी भी व्यक्ति का उदासीनता का सबसे प्रमुख कारण शिक्षा का अभाव है। जनगणना 2001 के अनुसार भारत की साक्षरता 64.84 प्रतिशत ही है। सरकार के लाख प्रयास करने के बाद भी देश में विशेषकर ग्रामीण भारत में शिक्षा के स्तर में कोई सुधार नही हुआ । सरकार द्वारा नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान किया हुआ है, इसके साथ स्कूलों में दोपहर का भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है। इसके बावजूद बच्चों को विद्यालय तक ला पाना एक कठिन कार्य बना हुआ है। सन् 2007 तक 6-11 वर्ष के स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 39 लाख 76 हजार है।
गरीबी एवं बेरोजगारी: भारत गांवों का देश है अत: ग्रामीणों के उत्थान किए बिना कोई भी अधिकार व योजना पूर्ण नहीं मानी जा सकती। आज भारत विश्व में मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है लेकिन फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में बदहाली बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे यहां 26 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे है। सन् 1994 में बेरोजगारों की संख्या 3 करोड़ 77 लाख हो गई थी इनमें 62 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 38 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों से थे। देश की आजादी प्राप्ति के इतने वर्षो बाद भी करीब 24 करोड़ लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजारने के लिए मजबूर है।
स्वास्थ्य (एड्स): स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता विशेष रूप से गरीबों व पीडि़त वर्गों को उनके मानव अधिकारों से वंचित रखती है। आज स्वास्थ्य के क्षेत्र में एड्स एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार हमारे देश में इस रोग से संक्रमित या प्रभावित लोगों की संख्या विश्व के अन्य देशों की तुलना में दूसरे नम्बर पर है। इस दिशा में इस रोग से लडऩे व पीडितो की चिकित्सा एवं राहत का बीडा उठाना होगा।
बच्चों के अधिकार : मानव अधिकारों के अभ्युदय के इस दौर में बच्चों का आगमन इस क्षेत्र में विलम्ब से हुआ है। बच्चों के अधिकार को लेकर पहले अभिसमय पर 1989 में जाकर हस्ताक्षर हुए है। इस प्रकार बच्चों के अधिकारों की दिशा में इतना विलम्ब विश्व स्तर पर संवेदन के स्तर में कमी को उजागर करता है। मानव समाज के इस कमजोर सदस्य के प्रति हमारी उदासीनता दु:खद व चिन्तनीय है।
न्याय पंचायतें : भारत में प्राचीन काल से ही ग्राम पंचायतें या जाति पंचायतें या पेशे पर आधारित व्यक्तियों की पंचायतें स्थानीय स्तर पर न्याय पंचायतों का कार्य भी करती रही है। स्वतंत्रता के पश्चात अपनाए गए संविधान के बाद देश में विधि का शासन प्रवर्तित है तथा कोई भी व्यक्ति कानून के ऊपर नही है। किन्तु आज भी भारतीय ग्रामों में स्थानीय पंचायतें अपनी परम्परागत मान्यताओं, रूढिय़ों, सामाजिक मूल्यों के अनुसार निर्णय करती हैं। यहां व्यक्ति के मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन होता रहता है।
ऐसी स्थिति में जब हम सभी दिन-प्रतिदिन प्रगति के मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहे हो, अपने ही राष्ट्र में अपने ही लोगों के अधिकारों का हनन करना मानवीयता के बिलकुल ही खिलाफ है। भारत तो गांवों का देश है, राष्ट्रकी अधिकांश जनता ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, उनके अधिकारों से परिचित कराना और आवश्यकता पडऩे पर उन्हे न्याय दिलाना समय की मांग है।

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