rashtrya ujala

Monday, November 22, 2010

आखिर जुबां पर आ ही गई दिल की बात

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी आखिरकार टूट ही गई। दिल्ली में आयोजित एक समारोह में उन्होंने खुद को नादान विद्यार्थी कह कर सबको चौंका दिया। कहते हैं खामोशी किसी आने वाले तूफान का पैगाम होती हैं। लेकिन पीएम की खामोशी का टूटना और खुद को स्कूल का छात्र कहना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया को शोभा नहीं देता। वैसे मनमोहन सिंह की के इस कथन से ज्यादातर लोगों को आश्चर्य शायद इस वजह से भी नहीं होगा कि उन्होंने जो बातें कहीं वह कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी की परंपरा रही है। जहां प्रधानमंत्री से बड़ा आलाकमान होता है। डा.मनमोहन सिंह ने बखूबी स्वीकार किया कि वे जब से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर ,उन्हें कई तरह के इम्तिहानों से गुजरना पड़ता है। प्रधानमंत्री के इस विलाप को देखकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जमाने में उनकी कृपा से राष्ट्रपति बने ज्ञानी जैल सिंह की वह बात याद आती है जब उन्होंने कहा था 'अगर इंदिरा कहें तो मैं झाड़ू लगाने को तैयार हूंÓ इस बात से भले ही कांग्रेसी इंदिरा की अहमियत तलाश रहे हों,लेकिन खुद को भारत की सबसे पुरानी और लोकतांत्रिक पार्टी कहने कांग्रेस के अंदरूनी राजशाही प्रदर्शित होती है। एनडीए के शासन के बाद यूपीए की ओर से प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह कभी भी खुद मानसिक तौर पर एक मजबूत आत्मनिर्णय लेने में सक्षम प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित नहीं कर पाए हैं। कहीं न कहीं उनके अंदर यह बात आज भी है कि कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने उन्हें यह पद देकर उपकृत किया है। लगभग साढ़े सात साल का कार्यकाल पूरा कर चुके डा. मनमोहन सिंह की यह पीड़ा एक दिन की नहीं है। जब वामदलों के सहारे यूपीए प्रथम थी तो कई आर्थिक मसलों पर उन्हें सहयोगी पार्टियों के दबाव के आगे झुकना पड़ा था। वह चाहकर भी स्वतंत्र फैसले नहीं कर पाए। एक जाने-माने अर्थशास्त्री होने के नाते वह कई बार अपने अनुभवों से कई सारे प्रयोग करने चाहे, लेकिन उन्हें भरसक कामयाबी नहींमिली। यह कहना अतिश्योक्ति न होगा देश की एक बड़ी आबादी आज भी उनके आत्मविश्वास की कमी देख रही है। उनके संभाषणों और बयानों में इसकी झलक साफ देखी जा सकती है। दुनिया में एक मंजे हुए अर्थशास्त्री के तौर पर भले ही उनकी छवि असरदार हो ,लेकिन एक सशक्त प्रधानमंत्री के तौर पर भारत उन्हें अब तक नहीं देख पाया है। अपने दूसरे कार्यकाल में उनके सामने चुनौतियां कई रूपों में सामने आई, लेकिन हर मसलों पर उन्होने कभी खुलकर कोई बयान नहीं दिया। ए.राजा मामले में जब बात प्रधानमंत्री पर आई तो आखिरकार उन्होंने अपनी खामोशी भंग की, लेकिन खामोशी टूटी भी तो उसमें गरज कम, लाचारी ज्यादा दिखी। ऐसे सवाल इस बात का है कि क्या मनमोहन ंिसंह वाकई एक लाचार प्रधानमंत्री हैं, क्या उनके अधिकार क्षेत्र कांग्रेस आलाकमान से कमतर है। क्या गठबंधन धर्म निभाने की खातिर राजधर्म की अनदेखी की जाए? लोकतंत्र में जनता की शान और उनकी आवाज उनके जनप्रतिनिधि होते हैं। लिहाजा जनता यह चाहती है कि देश का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति आत्मविश्वास से भरपूर हो...क्योंकि कहीं न कहीं प्रधानमंत्री जैसे पद में देश की छवि निहित होती है।