rashtrya ujala

Tuesday, December 8, 2009

भरपेट खाएं वजन घटाएं

वजन घटाने के लिए पारंपरिक आहार लेने से यदि आप खाद्यप्रदार्थ की मात्रा कम लें तो आप का शरीर संतुलन रखने के लिए आप की कैलोरी को जलाने की क्षमता धीमी कर देता है। इस के परिणामस्वरूप आप की उपापचय दर भी 25 प्रतिशत तक कम हो जाती है और आप कैलोरी धीमी गति से खर्च करते हैं अत: आप कम कैलोरी वाला आहार लें तो भी आप का वजन घट नही पाता ।
वजन घटाने के पारंपरिक तरीके के अंतर्गत आप कैलोरी गिनते है और इस बात का भी घ्यान रखते है कि आप क्या क्या खा रहे है अंतत: आप इस सारी परेशानी से ऊब जाते है भूखा रहना,बेस्वाद भोजन खाना और अनेक खाद्य प्रदार्थो से वंचित रहना आप को खलने लगता है आप सारी डाइटिंग वाइटिंग भूल कर फिर वजन बढा लेते है।
चिकनाई रहित भोजन
इस के लिए सही तरीका यह है कि भोजन की मात्रा नही बल्कि उस के प्रकार पर घ्यान दिया जाए बस वह भोजन लीजिए जिस मे चिकनाई कम हो जटिल कार्बोहाइडे्रट की मात्रा अधिक हो और अधिकाधिक रेशों का समावेश हो ऎसे भोजन से बचिए,जिस मे वसा और कोलेस्टरोल की मात्रा अधिक है और जो पूरी तरह कार्बोहाइडे्रट और रेशों से रहित है सही पोष्टिक आहार (रेशे व कार्बोहाइडे्रट युक्त) के कम वसायुक्त होने के कारण बहुत सारी कैलोरी खाने के पहले ही आप का पेट भर जाता है और फिर भी आप का वजन आसानी से कम हो सकता है।
कुछ समय पूर्व गायक अदनान सामी ऊंचे सुरो वाले गीत गाने के बाद जब मंच से उतरते थे तो उन की सांस फूलने लगती थी वह काफी मोटे थे और शायद इस भय से कि कहीं दिल के दौरे का शिकार न हो जाएं वह दीवार से टेक लगा कर खडे हो जाते थे वह बताते है,बस मै ने वसा मे कटौती कर दी और जी भर के फल और सब्जियां खाने लगा,साथ ही एक्सरसाइज को भी समय दिया। कुछ महीनों में उन्होने अपना वजन 80 किलोग्राम से भी ज्यादा कम कर लिया।
आहार संबंधी कुछ बातें
यह बात बिलकुल संभव है कि जम कर खाना खाया जाए,उस का आनन्द लिया और याथ ही वजन भी कम होता रहे बस आप को कुछ बातें जानना जरूरी है।
आप का पेट जब तक पूरी तरह न बर जाए आप इन मे से कुछ भी खा सकते है। फलियां (सेम, मटर, काली सोयाबीन)फल (जामुन, संतरे, खुबानी, खरबूजा, केले तथा नाशपाती) अनाज भुट्टा, चावल, जई, गेहूं, बाजरा, जौ तथा मोठ) सब्जियां (पत्तागोभी, फूलगोभी, गाजर, सलाद के पत्ते, प्याज, शकरकंद, पालक, मशरूम, बैगन, अजवाइन के पत्ते, मेथी, चौलाई तथा टमाटर)
जटिल कार्बोहाईडे्रट पहचानना भी जरूरी है अधिकतर लोग समझते है कि डबल रोटी और आलू खाने से शरीर मोटा होता है किन्तु वास्तव में वजन उन चीजो से बढता है जो हम उन के साथ शामिल कर लेते है एक भुने हुए आलु में न तो कोलेस्टरोल होता है न ही वसा किन्तु उस पर मक्खन लगा कर या उन्हे तल कर ही आप ने एक आदर्श आहार को वर्जित बना डाला अत: वसा युक्त चीजो का इस्तेमाल करने के बजाय विभिन्न मसालो से अपने खाने का जायका बढाने का प्रयास कीजिए।
संतुलित आहार
जटिल कार्बोहाईडे्रट्स में कैलोरी की मात्रा कम होती है रेशा अधिक होता है और ये भारी भी होते है अत: कम खाने से भी आप का पेट भर जाता है इस के विपरीत साधारण कार्बोहाईडे्रट अर्थात शक्कर, अल्कोहल, शहद, शीरा आदि से पेट नही भरता उन में न तो रेशा होता है और न ही वे भारी होते है।
वसा की मात्रा घ्यान में रखते हुए संतुलित आहार लीजिए कम वसा वाले अथवा वसारहित पदार्थ खाने पर जोर दीजिए वसारहित दही अथवा पनीर ,बिना चिकनाई वाले बिस्कुट आदि तेल का इस्तेमाल कम करे। वसायुक्त आहार खाने के बाद जमा की गई कैलोरी को बाद में खर्च करना अधिक दुष्कर है बेहतर है कि अधिक मात्रा में कैलोरियां उदरस्थ ही न की जाएं प्रतिदिन सामान्य गति से 20 से 60 मिनट तक चलना ही पर्याप्त है।
सामान्य से अधिक वजन होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आप ने कितनी वसा ली प्राय: मांसाहारी भोजन और तेलों के द्दारा आप के शरीर में पहुंचती है। किन्तु यदि आप इन दिशानिर्देशा पर चलेंगे तो आप सचमुच वजन घटा रख सकते है और आप की कमर के घेरे मे कमी आप के जीवन में कुछ वर्ष अवश्य जोड देती है।

Monday, December 7, 2009

अपने ही देश में परदेशी हैं पारधी: बाल्मीक निकालजे

अंग्रेज जब यहां से गए तो बहुत कुछ छोड़कर गए। उनका छोड़ा वो बहुत कुछ हमने आजतक संभाले रखा है। पारधी जमात से चिपका मिथक उन्हीं में से एक है। पारधी अपने ही अतीत और रिवाजों में कैद एक जमात है, जो अंग्रेजों के ‘गुनहगार जनजाति अधिनियम, 1871’ का शिकार होते ही हमेशा के लिए ‘गुनाहगार’ हो गई।
आजादी के बाद भी कितने तख्त बदले, ताज बदले, नहीं बदले तो पारधी जमात के हालात। तभी तो महाराष्ट्र में पारधी लोग आज भी गांव से दूर रहते हैं, या रखे जाते हैं। तभी तो उनके सामने बुनियादी हकों से जुड़ा हर सवाल मुंबई, 724 किलोमीटर की दूरी बताने वाले पत्थर सा बनकर रह जाता है।
आष्टी, जिला बीड़, महाराष्ट्र। इसके ऊपर राजर्षि शाहु ग्रामीण विकास संस्थान और इसके ऊपर बाल्मीक निकालजे का नाम लिखते ही चिट्ठी जिस ठिकाने पर पहुंचती है, वहीं बैठे हैं हम। पूरा मराठवाड़ा जानता है कि पारधी जैसी बंजारा जमातों के बीच बीते दो दशक से बाल्मीक निकालजे का नाम कितना लोकप्रिय है। आइए उनसे कुछ काम की बातें जानते हैं। ऐसी बातें, जो पारधी जमात से चाहे अनचाहे गुत्‍थमगुत्‍था हो चुकी हैं:
पारधी जमात यहां एक उलझी हुई गुत्‍थी है...
इतनी उलझी है कि सुलझाना मुश्किल हो रहा है। वैसे जानकार यह भी जानते हैं कि पारधी असल में तो लोगों की रखवाली करने वाले होते थे। इतिहास में पारधियों ने तो गुलामी के खिलाफ सबसे पहली और उग्र प्रतिक्रियाएं दी हैं। यहां के राजा निजाम से हारे, अंग्रेजों से हारे, मगर उन राजाओं के लिए लड़ने वाले पारधियों ने हार नहीं मानी। उन्होंने कई छापामार लड़ाईयां लड़ीं, और जीतीं भी। खुद शिवाजी भी उनकी युद्धशैली से प्रभावित थे। यह और बात है कि अब उनकी वीरता के वो किस्से यहां कम ही कहने-सुनने को मिलते हैं। अंग्रेज भी जब बार-बार और छापामारी अंदाज वाले हमलों से हैरान-परेशान हो गए, तो उन्होंने पारधियों को गुनहगार घोषित कर दिया। मगर आजादी के बाद तो अपनी सरकार, उसके पुलिस विभाग को यह तरीका बदलना चाहिए था, जो उन्होंने नहीं बदला।
1924 को देशभर में 52 गुनहगार बसाहट बनी। सबसे बड़ी गुनहगार बसाहट अपने शोलापुर में बनी। इसमें तार के भीतर कैदियों को रखा जाता था। 1949 को बाल साहेब खेर ने शोलापुर सेटलमेंट का तार तोड़ा। 52 को अंबेडकर साहब ने गुनहगार बताने वाले अंगेजी कानून को रद्द किया। 60 को नेहरू जी खुद शोलापुर भी आए। मगर, आज भी यहां जब चोरी होती है, तो पुलिस वाले सबसे पहले पारधी को ही पकड़ते हैं। वह अपने देश में आज भी परदेशी हैं। यहां पहला सवाल उनकी पहचान का ही बना हुआ है।
उनकी पहचान से क्या मतलब है?
हम थोड़ा सा शुरू से जान लेते हैं। पारधी, पारध शब्द से निकला है। पारध याने शिकार करने वाला। अब पारधी भी कई तरह के होते हैं। जैसे राज, बाघरी, गाय, हिरन शिकारी, गांव पारधी। राजा के पास जो शिकार का जानकार था, वे राज पारधी कहलाया। राजा बोले कि अब मुझे बाघ पर सवार होना है, उसके लिए बाघरी पारधी रखे जाते। वे ही बाघ पकड़ते, फिर उसे पालतू बनाते। एक तो बाघ को जिंदा पकड़ना ही बहुत मुश्किल है, ऊपर से उसे पालतू बनाना तो और भी मुश्किल। ऐसे ही गाय पारधी की खास सवारी गाय होती। आज भी उनके यहां एकाध गाय तो होती ही है। गाय भी ऐसी-वैसी नहीं, बाकायदा प्रशिक्षित गाय। वे बाजार से गाय खरीदने की बजाय अपनी ही गाय के बछड़े को प्रशिक्षित करते हैं। उनकी गाय सधी होती है, इतनी कि शरीर के जिस हिस्से पर पारधी हाथ रख दे, वो जान जाती है कि अब उसे आगे क्या करना है। यही गाय उनके धंधे की मां है। इसलिए पारधी कभी गाय का मांस नहीं खाते। किसी भी शिकारी के लिए हिरन के पीछे दौड़ना, उसे मारना बड़ा टेढ़ा काम है। मगर पारधी लोग गाय की मदद से शिकार के तरीके को सीधा बना लेते हैं। जैसे हिरन का शिकार करते समय, जब गाय चरती हुई आगे बढ़ती है, उसके पीछे पीछे पारधी छिपा-छिपा आता है। हिरन के नजदीक आने पर, वह उसके ऊपर अचानक छलांग मार देता है और शिकार को अपने हाथ में ले लेता है। ऐसी कई शैलियां हैं पारधियों के पास।
वैसे यकीन करना मुश्किल है, मगर पारधी पंछियों की बोलियां भी खूब जानते हैं। जैसे पारधी के तीतर जंगलों के तीतरों को गाली देते हैं, तो कई जंगली तीतर लड़ने के लिए उनके पास आ जाते हैं, वो सारे बीच में लगे जाल में फंस जाते हैं। ऐसे शिकार के कई और ढ़ंग भी हैं उनके पास। शिकार के बारे में जितनी बातें पारधियों को पता है, शायद ही कोई जानता हो।
पारधी कभी लोगों की रखवाली किया करते थे। यह समझाना कितना मुश्किल है?

अगर नई पीढ़ी पारधियों के पीछे छिपे सच जानने लगे तो शायद ही कोई उन्हें गुनाहगार कहेगा। पारधी लोगों की रखवाली के काबिल नहीं होते, तो राजा उन्हें अपने सुरक्षा सलाहकार कभी नहीं बनाते। यह दुनिया की सबसे खुफिया और ईमानदार जमातों में से भी एक है। आप उसे एनएसजी कमांडो कह सकते हैं। आज भी आप देखिए, अपने यहां कहीं-कहीं एक पारधी के हिस्से में 25 से 50 खेतों की रखवाली आती है। फिर वे आपस में तय करते हैं कि एक दूसरे के खेतों में नहीं जाएंगे। अगर किसी के खेत में चोरी हुई तो उसका नुकसान उस खेत का पारधी भरता है। उसके बाद वह अपने खुफिया नेटवर्क से चोरी का पता लगाता है। अगर पता लगा तो मामले को अपनी जात पंचायत में उठाता है। पंचायत में बात सच साबित हो जाने का मतलब है, कसूरवार को नुकसान से 5 गुना ज्यादा तक दण्ड भरना। पारधी को रखवाली के बदले साल भर का अनाज मिलता है। मतलब यह कि वह गांव की अर्थव्यवस्था का जरूरी हिस्सा रहा है।उसके जीने का रंग-ढ़ग, उसके धंधे के हिसाब से चलता है। आपने देखा होगा कि जैसे वे कमर में छोटी, एकदम कसी हुई धोती पहनता हैं। छाती पर कई जेबो वाली बण्डी, सिर पर रंग-बिरंगी पगड़ी पहनते हैं। कुल मिलाकर ऐसा पहनावा होता है, जो दौड़-भाग में आवाज न करे, न ही किसी और तरह की अड़चन दे।
समाज के बीच किस तरह की अड़चनों में फंसे हैं पारधी?
इसे यहां के एक किस्से से समझिए। एक बार पाथरड़ी तहसील में कहीं चोरी हुई। कई महीने बीते, चोर का पता न चला। उसी समय आष्टी तहसील के चीखली से थोड़ी दूरी पर, घूमते फिरते रहवसिया नाम के पारधी परिवार वहां आ ठहरा। पुलिस ने उसे ही चोरी के केस में अंदर डाल दिया। उधर रहवसिया दो महीनों तक जेल में रहा। इधर गांव में ऊंची जात वाले उसके परिवार को धमकाते, बोलते जगह खाली कर दो वरना ऐसा-वैसा। जब वह जेल से छूटकर अपने ठिकाने पर आया, तो ऊंची जात वालों ने उसे और उसके 12 साथियों को भी रस्सियों से बांध दिया। उनसे बोला गया कि तुम लोग चोर हो, गांव के लिए अपशगुन हो। कुछ लोग वहां से किसी तरह छूटे और 4 किलोमीटर दौड़ते हुए अपने कार्यालय पहुंचे। खबर मिलते ही हम यहां से 7 टेम्पों में 300 कार्यकर्ता बैठे, दलित पेंथर का नारा लगाते हुए वहां पहुंचे। तब ऊंची जात वाले अपने घरों में ताला लगाकर छिपे रहे। यहां के ऊंची जात वाले तो पारधियों को हटाने के लिए राजीव गांधी तक पहुंच गए। तब वह प्रधानमंत्री थे। वो बोले कि पारधी देश के नागरिक हैं, उन्हें हटाया नहीं जा सकता। इसके बाद पूरे इलाके में ऊंची जात वालों और बंजारा जमातों के बीच 5 साल तक संघर्ष चला। जगह-जगह पर बंजारों की बस्तियों में कई कई बार हमले हुए। मगर हमारे पास भी पक्की योजना थी। हम ऐसे मामले बार-बार थाने, कचहरी तक ले जाते। धीरे धीरे जहां-तहां ऊंची जात वाले भी ठण्डे पड़ते गए।
तो, क्या ऊंची जात वालों के खिलाफ संघर्ष करने भर से ऐसी धरणाएं बदल सकती हैं?

बदलाव की कई योजनाएं हो सकती हैं। मकसद सिर्फ यह बात समझाना है कि पारधी चोर नहीं हैं, इंसान हैं। फिर भी आम धारणा है कि पारधी बस चोर ही हैं। अगर ऐसा है भी तो हम लोगों से कहते हैं- क्या उन्हें चोरी के दलदल से निकालाना नहीं चाहिए। इस काम में लोगों के साथ पुलिस का खास रोल हो सकता है। मगर यह दोनों (पब्लिक और पुलिस) तो पारधियों को चोर से ऊपर देखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
मुझे लगता है, हम सबका पहला काम यह बनता है कि उनके भीतर के डर को पहले बाहर निकालें। इसके लिए जरूरी है सबसे पहले तो उन्हें ही एकजुट करना। वे अपने कानूनों को जानें और वोट को हक से कहीं ज्यादा, एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना सीखें। उन्हें रोजगार के वो साधन मिलें, जो स्थानीय भी हों और स्थायी भी। जैसे जिन बंजर जगहों पर वो अपने जानवर चराते रहे हैं, उन्हीं जगहों से उनसे अन्न पैदा करवाने की मुहिम को बढ़ावा मिले। यहां हमने दलित, बंजारों जमातों के 1420 परिवारों को खेती से जोड़ा है। इसलिए, वो स्कूल से लेकर पंचायतों में अपनी जगह खुद बना पा रहे हैं। पढ़े-लिखे, जागरूक लोग व्यवस्था की गलतियों से लड़ सकते हैं। इसलिए, पारधी बच्चों को एक सपना देना होगा। वह यह कि पुलिस या बाकी लोग तुम्हारे पीछे नहीं हैं। देखो, वो तो तुम्हारे साथ हैं। ऐसा सपना देखने वाले बच्चों को स्कूलों में लाना होगा। उन्हें भरोसा देना होगा कि तुम्हारे खेल, तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारी प्रतिभाएं किसी से कम नहीं हैं। ऐसी प्रतिभाओं को मौका देकर भी उनकी पहचान बदली जा सकती है।

Thursday, December 3, 2009

अंक 13 का रहस्य

अंक 13 में अनजाना भय, चेतावनी छिपी हुई है फिर भी अंक 13 को कुछ शुभ भी कहा जा सकता है। अंक 13 से प्रभावित व्यक्ति निरंतर कठिनाइयों से जूझते हुए, निरंतर संघर्ष करते हुए विजयश्री का वरण करते हैं। मानव जीवन भी एक संघर्ष है। मोक्ष प्राप्त हेतु जातक को विभिन्न योनियों से गुजरना प़डता है अर्थात् निरंतर मृत्यु से संघर्ष करते-करते ही मोक्ष प्राप्त संभव है। राजस्थानी में एक कहावत है तीन-तेरह कर देना अर्थात् परेशान करना या बनाया काम बिग़ाड देना अधिकांश लोग आज भी तीन और तेरह से भयभीत हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन से भी 13 का गहरा संबंध रहा। उनका प्रधानमंत्रित्व काल प्रथम बार 13 दिन ही रहा फिर भी वाजपेयी ने शपथ ग्रहण हेतु, 13 तारीख को चुना तो उनकी सरकार भी 13 महीने चली लेकिन पुन: वाजपेयी ने 13वीं लोकसभा के प्रधानमंत्री के रूप में, 13 दलों के सहयोग से 13 तारीख को ही शपथ ली। लेकिन फिर 13 को ही पराजय भी देखनी प़डी। विब्सटन चर्चिल का जीवन भी अनिश्चितताओं से भरा रहा। वीर दुर्गादास का जन्म भी 13 अगस्त को हुआ। पिता ने दुर्गादास व उनकी पत्नी को निकाल दिया अर्थात् बचपन में पिता का साथ नहीं मिला और फिर कालांतर में अपने स्वामी की रक्षा हेतु कितना संघर्ष करना प़डा। अपने स्वामी को राजसिंहासन दिला दिया लेकिन स्वामी से इस सेवक का रिश्ता अच्छा नहीं रहा। अंतिम दिनों में उसे स्वामी से अलग स्वैच्छिक रूप से होना प़डा। वहीं 22 तारीख को मृत्यु हुई अर्थात् जन्म व मृत्यु पर 4 का प्रभाव हावी रहा। इनका लक्ष्य राज दिलाना भी पूर्ण हुआ। यदि किसी चंद्र पंक्ष में 13 दिन (तिथि क्षय के कारण) रह जाएं तो वह पक्ष अशुभ माना जाता है। इसी प्रकार किसी वर्ष में 13 महीनें हो जाएं अर्थात् अधिक मास आए तो अधिक मास को भी शुभ नहीं माना जाता है लेकिन आत्म कल्याण अर्थात् मोक्ष की चाह रखने वालों हेतु, यह पुरूषोत्तम मास शुभ है। महाभारत का 13 दिन तक का युद्ध तो कौरवों के पक्ष में रहा लेकिन फिर पांडवों का पल़डा भारी होने लगा। जैन धर्म में भी आचार-विचार एवं व्यवहार की शिथिलता बढ़ने लगी तो आचार्य भिक्षु ने तेरह साधु एवं तेरह श्रावकों के साथ तेरापंथ की स्थापना की। प्रारंभ में इन्हे भी विरोधियों का सामना करना प़डा लेकिन वर्तमान में तेरापंथ, जैन धर्म संप्रदाय के रूप में विख्यात है। ईसा मसीह ने भी अपने 13 शिष्यों के साथ जिस दिन भोजन किया, वही उनके जीवन का अंतिम दिन था लेकिन उसके तीन दिन पश्चात् ही वे पुन: जीवित हो उठे अर्थात् 13 सदस्यों के साथ भोजन कर कुछ प्रसिद्धि हेतु जीवन संघर्ष कराया फिर तीन दिन पश्चात् ही उनकी प्रसिद्धि प्रारंभ हुई। अत: 13 अंक का भय एक अनावश्यक तथ्य है। सत्य तो यह है कि आप 13 के अंक से खेलना शुरू करें और कुछ दृढ़ निश्चय एवं लक्ष्य रखकर, अंतिम क्षण तक संघर्ष करें, आपकी जीत सुनिश्चित है।

साड़ी एक और सात महिलाएं

नई दिल्ली. झारखंड के एक गांव में गरीबी की इतनी अति हो चुकी है कि सात महिलाएं एक साड़ी से अपना तन ढकने को विवश हैं। यह बेहद त्नासद और चौकने वाली सूचना राज्यसभा सदस्य कांग्रेस के के। केशव राव ने एक चर्चा के दौरान दी। राव देश की आंतरिक सुरक्षा संबंधी विषय पर नक्सल प्रभावित राज्यों में गरीबी और उसके कारणों पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि झारखंड में एक गांव के दौरे के दौरान वह यह देखकर दंग रह गये कि वहां सात महिलाओं के पास कुल एक साड़ी है। गरीबी और बदहाली की ये हालत है कि तन ढकने को इनके पास मात्न एक साड़ी है।

Wednesday, December 2, 2009

देर का विवाह कितना सही

बढ़ती उम्र में विवाह आकर्षण नहीं बल्कि एकदूसरे की जरूरत बन जाता है। पतिपत्नी के इस रिश्ते में प्यार, मनुहार, शारीरिक सौंदर्य का अभाव होता है और आपसी रिश्ते मात्र औपचारिकता बन जाते हैं। हमारे समाज और कानून ने भले ही शादी के लिए न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित की है लेकिन निम्नतम आयु के पश्चात उचित उम्र का निर्धारण करने जैसा महत्तवपूर्ण निर्णय हमारी स्वय की जिम्मेदारी है। जैसे कम उम्र में विवाह के अनेक दुष्परिणाम सामने आते हैं वैसे ही देर के विवाह से भी अनेक नुकसान हो सकते हैं। परिणय बंधन में बंधने जैसा महत्तवपूर्ण कार्य सही समय पर किया जाए तो निश्चित ही जीवन के हर पहलू को शांतिपूर्ण व सुखी रूप से गुजारा जा सकता है।
शारीरिक आवश्यकता: 40 वर्ष के बाद महिलाओं में रजोवृति का समय करीब होता है। जीवन को व्यर्थ जाता देख कर, अपने शरीर पर काबू न रहने पर महिलाएं चि़डचि़डी हो जाती हैं। एक ठोस मजबूत सहारे की चाह के साथ शारीरिक चाहत भी उन्हें विवाह के लिए प्रेरित करती है। स्त्री जिस शारीरिक संतुष्टि की चाहत को युवावस्था में दबा लेती है वह उम्र बढने के साथ तीव्रतर हो जाती है और स्त्री ग्रंथि के उभरने से सेक्स की इच्छा जाग्रत होती है।
ऎसा ही कुछ पुरूषों के साथ भी होता है। अधे़डावस्था में पुरूष पुन: किशोर हो उठते हैं और वे विवाह जैसी संस्था का सहारा ढूंढ़ते हैं। लेकिन देर से किया गया विवाह न तो उन्हे शारीरिक संतुष्टि दे पाता है, साथ ही समय पर विवाह न होने से यौन संबंधी रोगों के बढ़ने का खतरा भी बढ़ जाता है।
बढ़ती परेशानियां: अधिक उम्र में विवाह होने पर पतिपत्नी दोनों ही परिपक्व हो चुके होते है। दोनों को एकदूसरे के साथ विचारों में तालमेल बिठाने में कठिनाई होती है। 30 पार की महिलाओं में प्रजनन क्षमता घटने लगती है, अत: देर से विवाह होने पर स्त्री के लिए मां बनना कठिन व कष्टदायी होता है। साथ ही एक पूर्ण स्वस्थ शिशु की जन्म की संभावनाओं में कमी आने लगती है। ढ़लती उम्र में जिंदगी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबने लगती है और विवाह आनंद का विषय होने के बजाय साथी को ढ़ोना हो जाता है।
यदि अधे़डावस्था में विवाहित पतिपत्नी के पूर्व साथी से बच्चों हैं तो उन दो परिवारों के बच्चों में आपसी मनमुटाव हो जाता है। अधिक उम्र में विवाह होने पर विवाहित दंपत्तियों में असुरक्षा की भावना आ जाती है। दोनों को एकदूसरे पर भरोसा नहीं होता। असुरक्षा की यह भावना पतिपत्नी में विश्वास के बजाय शक और दूरी पैदा कर देती है।
देर से विवाह करने वाले स्त्रीपुरूषों के प्रति समाज का रवैया भी कुछ संदेहास्पद और मजाक का विषय बन जाता है। समाज में विवाह को युवावस्था की जरूरत माना जाता है न की अधे़डावस्था को।
देर का विवाह मतलब समझौता: जो स्त्रीपुरूष अपनी युवावस्था रिश्तों को नापसंद करने में गुजार देंते है उन्हे बाद में अपनी सभी चाहतों से समझौता करना प़डता है। ढ़लती उम्र में जैसा साथी मिलें उसी में संतोष करना प़डता है। अपनी चाहत या पसंद उम्र के इस प़डाव पर आ कर कोई मायने नहीं रखती। अधे़डावस्था में विवाह एक जरूरत बन जाती है, जिस के लिए पतिपत्नी को हर कदम पर समझौता करना प़डता है। इस विवाह का उद्देश्य मात्र एक सहारा होता है, जो वास्तव में इस उम्र में शारीरिक अक्षमताओं की वजह से सहारा बनने के बजाय बोझ ही बनता है।
ढ़लती उम्र का अहसास: युवावस्था में पतिपत्नी की अठखेलियां, उन का रूठना, मनाना और प्रेमालाप इन प्रौढ़ावस्था के विवाहितों में दूर-दूर तक नजर नहीं आता। युवक की खत्म होती शारीरिक क्षमताएं, पस्त होता रोमाचं और उत्साह, साथ ही नारी के नारीसुलभ आकर्षण का अभाव उन में एक दूसरे से प्यार, लगाव व रूचि को खत्म कर देता है। अधे़डावस्था में युवाओं जैसा उत्साह, रोमाचं व शारीरिक क्षमता नहीं रहती तब उन का एकमात्र ध्येय अपने अकेलेपन को दूर करना होता है, जिससे जीवन में नीरसता आ जाती है और दंपत्ति को अपनी ढ़लती उम्र का अहसास सताने लगता है।
अधे़डावस्था के विवाह में उत्साह व जोश की कमी के कारण जीवन में आनंद नहीं रहता और वह रिश्ता एक जरूरत और औपचारिकता बन कर रह जाता है। अधे़डावस्था में विवाह होने पर दंपत्ति के पास भविष्य के लिए योजनाएं बनाने का न तो समय होता है और ना ही उनमें उनको पूरा करने का शारीरिक सामर्थय होता है। ढ़लती उम्र का अहसास उनके जीवन मे गंभीरता व नीरसता भर देता है और परिवार में हंसीमजाक, ल़डना-झग़डना व रूठना-मनाना जैसे उत्सवों का कोई नाम नहीं होता।

Tuesday, November 10, 2009

गोत्र, जाति, संप्रदाय की सीमा लांघकर...

भारत में आए दिन कोई ऐसा मामला सुनने को मिलता है जिसमें किसी नव-विवाहित युगल का शोषण किया जा रहा हो, उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा हो और इसकी वजह खोजने पर पता चलता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों ने शादी के लिए कुल, गौत्र, जाति या संप्रदाय की समाज में प्रचलित मान्यताओं और सीमाओं का उल्लंघन किया है.कभी इन युगलों को आर्थिक-मानसिक-शारीरिक यातनाओं से गुज़रना पड़ता है. कभी सामाजिक रूप से इन्हें बहिष्कृत किया जाता है. कभी-कभी प्यार करने या ऐसी सीमाओं को लांघकर शादी करने की क़ीमत इनकी ज़िंदगी होती है. शादी के लिए गोत्र, जाति और संप्रदाय को आधार मानना सही है. अगर आप इन पारंपरिक तरीकों को सही मानते हैं तो क्यों, और अगर नहीं तो क्यों नहीं.
अगर कोई युगल गोत्र, जाति और संप्रदाय की सीमाओं को लांघकर शादी कर भी ले तो क्या ऐसा करने के लिए उनको किसी भी तरह की सज़ा देना या उन्हें परेशान करना सही ठहराया जा सकता है. क्या सामाजिक रूढ़िवादी मान्यताएं क़ानून और वैज्ञानिकता के दायरे से बढ़कर हैं.

फर्ज़ी मुठभेड़ की बढ़ती संख्या

नौतुंबी, उम्र केवल 40 साल, लेकिन उनके फक्क चेहरे पर तैरती झांई जैसे कहीं अधिक पुरानी हो. इतनी ख़ाली आंखें कम ही दिखती हैं लेकिन इतनी ख़ाली आंखों में इतनी दृढता और भी विरल है.अपने बेटे संजीत की तस्वीर को हाथों से बार बार पोंछते हुए नौतुंबी कहती हैं, "मैंने अभी तक अपने बेटे का अंतिम संस्कार नहीं किया है। और जब तक मुझे न्याय नहीं मिल जाता करूंगी भी नहीं. आख़री सांस तक लड़ूंगी."उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले में अपने टूटे और अस्तव्यस्त मकान के बाहर खड़ी मंजू गुप्ता की आंखों में उनकी 60 साल की उम्र से पुराना शक़ है जो सामने खड़े हर अजनबी चेहरे पर रुकता है। वो बार बार सिर पकड़ कर कहती हैं, "अब हमें कुछ नहीं कहना है. किसी से शिकायत नहीं करनी है. पुलिस से दुश्मनी कौन मोल ले. लाखों का बेटा चला गया. अब कैसी उम्मीद." राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार भारत में पिछले तीन सालों में औसतन हर तीसने दिन एक व्यक्ति की पुलिस के साथ कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मौत होती है. मरने वाले लोगों की सूची में संजीत और गौरव गुप्ता के नाम दर्ज हो गए हैं.आयोग के अनुसार पूरे देश में लगभग एक साल में कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में लगभग 130 लोग मारे गए हैं. पिछले एक साल में ही कथित फर्ज़ी मुठभेड़ो के सबसे ज्यादा यानि 51 मामले उत्तर प्रदेश से हैं जब कि दूसरे नंबर पर है देश का एक सबसे छोटा राज्य मणिपुर जहां कम से कम 21 मामले दर्ज हुए हैं.चौंकाने वाली बात यह है कि इसी साल सबसे ज़्यादा यानि 74 शौर्य पदक मणिपुर की पुलिस को मिले और इनमें से ज्यादर मुठभेड़ों के लिए मिले जबकि शेष राज्यों की पुलिस को केवल 138 शौर्य पदक मिले.

पुलिस के दावे:-उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एके जैन स्पेशल टास्क फ़ोर्स में लंबा समय बिता चुके हैं और फ़र्जी मुठभेड़ों के आरोपों का खंडन करते हैं. वो कहते हैं, "जब पुलिसकर्मी मुठभेड़ों में मरते हैं तो कोई यह सवाल नहीं करता. मगर जहां फ़र्ज़ी मुठभेड़ के मामले आते हैं वहां पुलिस कार्यवाई भी करती है और ताकतवर लोग भी उसकी ग़िरफ़्त में आते हैं."जहां तक मणिपुर की बात है वहां के पुलिस महानिदेशक जॉय कुमार कहते हैं, "जो लोग मुठभेड़ो में मरते हैं उनसे हथियार बरामद होते हैं. पुलिस पर फ़र्जी मुठभेड़ का आरोप लगाने वाले लोग पृथक्तावादी संगठनों के समर्थक हैं."

एके जैन

एके जैन कहते है कि मुठभेड़ में पुलिस वाले भी मारे जाते हैं और फर्जी मुठभेड़ के मामले में कार्रवाई की जाती है

23 जुलाई 2009 को संजीत की मौत के बाद से मणिपुर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थमा नहीं है. पिछले लगभग तीन महीनों से छात्र संगठनों के आह्वान पर स्कूल कॉलेज बंद हैं. दबाव में मणिपुर सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश दिए और एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को निलंबित किया.लखीमपुर खीरी में पुलिस गौरव गुप्ता को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारने के आरोपों का खंडन करती है. उस पर आरोप था कि उसने एक पुलिस अधिकारी की हत्या की थी. लेकिन गौरव गुप्ता के 20 वर्षीय भाई रिक्कू का कहना है कि पुलिस उसी के सामने लखनऊ में गौरव को ग़िरफ्तार कर के ले गई थी. आज वहां कुछ राजनीतिक गुट सच्चाई को सामने लाने के लिए प्रयास कर रहे हैं.

वजह क्या है?

कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की वजह क्या है, क्या सच्चाई है? जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप कौन से चश्मे से इसे देख रहे हैं. सरकार बढती मुठभेड़ों के बारे में देश में बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों की ओर इशारा करती है. लेकिन अगर कथित फर्ज़ी मुठभेड़ों में मरने वालों की पृष्ठभूमि पर नज़र डालें तो ज्यादातर लोग या तो छोटे मोटे अपराधी थे या उनका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं था.एसआर दारापुरी उत्तर प्रदेश पुलिस में अतिरिक्त महानिदेशक रह चुके हैं और अब मानवाधिकार संगठन पीपल्स यूनियन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स के उपाध्यक्ष हैं. वे कहते हैं, "राजनीति में अपराधी तत्वों का बढता प्रभाव कथित फर्ज़ी मुठभेड़ों के पीछे एक बड़ा कारण है. जो राजनेता सत्ता में हैं उनके लिए काम करने वाले अपराधियों को संरक्षण मिलता है जब कि उनके विरोधियों के लिए काम करने वाले अपराधियों को ख़त्म करने के लिए पुलिस को औजार बनाया जाता है. कई मामलों में पुलिस सत्तारुढ राजनेताओं को ख़ुश करने के लिए, पदोन्नति और शौर्य पदकों के लिए भी ऐसी कार्रवाईयां करती है."मुठभेड़ फर्ज़ी है या नहीं यह साबित करना एक आम आदमी के लिए जिसका रिश्तेदार मारा गया हो वैसा ही है जैसे वो पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ रहा हो. ग़ैर सरकारी संस्थाओं की मदद से भी यह लड़ाईयां सालों खिंचती हैं.जून 2003 में 19 साल की इशरत जहां और उसके तीन दोस्त गुजरात पुलिस के हाथों मारे गए थे. इस साल गुजरात की ही एक अदालत ने इसे फ़र्जी़ मुठभेड़ करार दिया था. मगर कुछ ही दिनों में ऊपरी अदालत ने इस फ़ैसले पर रोक लगा दी. इशरत जहां की बहन और मां अब सुप्रीम कोर्ट की ओर देख रहे हैं. वो कहते हैं, कि अगर सही तरीके से जांच होगी तो हमें न्याय भी मिलेगा.कई मानवाधिकार कार्यकर्ता और गुजरात के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक रह चुके श्री कुमार मानते हैं कि आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फ़ैसला फ़र्ज़ी मुठभेड़ की वारदातों में कमी ला सकता है.इस फ़ैसले के मुताबिक किसी भी पुलिस मुठभेड़ के बाद लाज़मी तौर पर इसमें शामिल पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज़ हो. मुठभेड़ फर्ज़ी नहीं थी ये साबित करने का भार भी पुलिस पर हो. हालांकि इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. अब नज़र सुप्रीम कोर्ट पर है.