rashtrya ujala

Monday, June 8, 2009

काश, हमें एक और हबीब मिल पाएँ....

जब असलियत की ज़मीन पर सार्थक और ईमानदार थिएटर का ख़्याल आता है, हबीब सामने नज़र आते हैं. आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, ग्रामीणों के साथ उनकी ही लोक परंपराओं के ज़रिए उन्हीं के दर्द को उकेरते रहे हबीब साहब.चाहे चरणदास चोर, पोंगा पंडित के ज़रिए समाज में व्याप्त अंधविश्वास और पाखंड पर आधारित मुद्दों को सामने लाना रहा हो, मृछकटिकम, राजरत्न का वर्ग विभेद और नारी विमर्श हो, आगरा बाज़ार के ज़रिए कल और आज और आने वाले दिनों के बाज़ार के अंदर झांकने और गहरे घावों को सामने लाने का मसला रहा हो, हबीब अपनी बात और काम के ज़रिए मील का पत्थर बन गए हैं.रंगयात्रा के यह पितामह उस दौर में प्रगतिशील थिएटर समूह, इप्टा से जुड़कर काम कर रहे थे जब मंबई में पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर का डंका बज रहा था.पर भारी सेटों का पृथ्वी थिएटर जब लोगों के बीच जा पाने में असमर्थ था, झोलों में नाटक की सामग्री समेटे हबीब लोगों के बीच जाकर, उनकी भाषा शैली में उनके मुद्दों पर नाटक करते थे.

लोक संवाद शैली:-लंदन की रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रेमेटिक आर्ट्स से थिएटर पढ़कर लौटे हबीब आसान और पैसे, चमक वाले आधुनिक थिएटर या सिनेमा की ओर नहीं बढ़े, बल्कि लोक परंपराओं के साथ सदियों से चली आ रही संवाद शैलियों को अपने काम का आधार बनाया.


आगरा बाज़ार
मंच पर एक ओर क्रांतिकारी कवि गदर होते थे और दूसरी ओर हबीब साहब की टीम

वो दिल्ली के बड़े सभागारों में, ड्रामा संस्थानों में और अकादमियों में सिमटने के बजाय सीधे आदिवासियों, दलितों, मजदूरों के बीच जाकर काम करते रहे। यही उनके काम और रंगमंच को उनके योगदान की सबसे पहली पहचान है.आतंकवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद, नारी विमर्श, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद जैसे मुद्दों पर काम करते हुए हबीब साहब ने कभी भी अपनी विचारधारा के साथ समझौता नहीं किया.हालांकि अपने इस तेवर और कलेवर के कारण उनके विरोधियों, ख़ासकर राजनीतिक विरोधियों की एक लंबी सूची भी रही. कितने ही नाटकों के मंचन के दौरान उनकी टीम पर हमले हुए, प्रस्तुतियां रोकने की कोशिश की गईं. उनको कई तरह के ख़तरे भी रहे पर हबीब डटे रहे, नाटक करते रहे.भारतीय थिएटर में ऐसे लोग कम ही हैं, जिन्होंने हबीब तनवीर जितना अध्ययन किया हो, थिएटर और रंगकला को उतना पढ़ा-समझा और प्रशिक्षण लिया हो.हालांकि मील के इस पत्थर की राह पर रंगकर्मियों के कम नाम ही चलते नज़र आते हैं. बल्कि कुछ प्रगतिशील रंगकर्मियों और समूहों को छोड़ दें तो नाटक दिल्ली और मुंबई के वातानुकूलित सभागारों तक सिमटे नज़र आते हैं.

हबीब तनवीर... जैसा मैंने उन्हें देखा:लिंकन जैसे धंसे गालों वाले चेहरे में काले पड़ रहे होठों में हमेशा एक पाइप धंसा रहता था. जिससे धुँआ कभी कभी उठता था. बाकी वक़्त या तो वो कुछ सोच रहे होते थे या आसपास बैठे लोगों से मुख़ातिब होते थे.


हबीब तनवीर
लिंकन जैसे धंसे गालों वाले चेहरे में काले पड़ रहे होठों में हमेशा एक पाइप धंसा रहता था.

पहनावे से लेकर खान-पान तक कहीं से भी ऐसा नहीं लगता था कि इतनी ऊंची हस्ती के साथ हम बैठे हैं. बेहद सादा और ज़रूरत के मुताबिक.मुझे याद है, वर्ल्ड सोशल फ़ोरम के दौरान मुंबई में मुंबई प्रतिरोध नाम से भी कुछ लोग इकट्ठा हुए थे, यह भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के ख़िलाफ़ खड़े लोगों का वो समूह था जो डब्ल्युएसएफ़ की एनजीओ राजनीति से सहमत नहीं था.हबीब यहाँ अपने नाटकों के साथ आए. तब मंच पर एक ओर क्रांतिकारी कवि गदर होते थे और दूसरी ओर हबीब साहब की टीम. और जितनी देर ये लोग मंच पर होते थे, पंडाल में मानो सम्मोहन का जादू हो जाता था.

आगरा बाज़ार:उनके नाटक भोपाल में भी देखे. लखनऊ में भी. हर जगह एक मज़बूत और स्पष्ट राजनीतिक तैयारी और संदेश के साथ आते थे हबीब साहब. बेगूसराय के प्रगतिशील लेखक संघ के लोगों से या पटना के साहित्य जगत से पूछिए, हबीब क्या चीज़ थे.हबीब साहब के कुछ नाटक जामिया यूनिवर्सिटी में भी हुए. अपार भीड़ वाले. दिल्ली में किसी और रंगकर्मी के नाटक के लिए इतनी भीड़ मैंने कभी नहीं देखी. पिछले साल दिल्ली में एक खुले मंच पर आगरा बाज़ार का मंचन हुआ. पानी बरसा, आंधी आई पर सैकड़ो लोग हबीब साहब के आगरा बाज़ार से मिलने आए.पर इसी दिल्ली में कुछ ही दिनों बाद हैबिटेट सेंटर में उनके नाटक पोंगा पंडित का मंचन हुआ. दिल्ली के पेज थ्री के कई चेहरे, बड़े धनाढ्य घरों के मेक-अप में लिपटे चेहरे और शाम को शौंकिया कुर्ता पजामा पहनकर लोग बड़े नाम का नाटक देखने पहुँचे.पर लोक धुनों में सजा गंभीर विमर्श वाला यह नाटक और इसके ग्रामीण पात्र कला और संस्कृति की ग्लोबल दुकानों के ख़रीदारों को समझ नहीं आया। नाटक के दौरान ही आधे से ज़्यादा लोग उठकर बाहर जा चुके थे.दरअसल, मीडिया में कुछ मिनटों, कॉलमों में हबीब के जाने की ख़बर बताई जाएगी और औपचारिकता पूरी हो जाएगी पर दिल्ली के इस संभ्रांत वर्ग की तथाकथित सांस्कृतिक मुख्यधारा हबीब तनवीर के काम का आकलन और भरपाई शायद ही कर पाए.

2 comments:

Kapil said...

जन कलाकार को श्रद्धांजलि।

vinitutpal said...

BBC se lekh chodee kar chaspa kar liye, kam se kam lekhak panani anand ka nam to de dete. sharma aanee chahiye aisee kartuut par. is se blog ke vishvasneetyta ghatatee hai.