rashtrya ujala

Tuesday, June 9, 2009

प्यार; दृश्य एक : सुखांत प्यार

कहीं भी, कभी भी नजरें चार हुईं। दिल धड़के, मोहब्बत हुई और शादी हो गई।
प्यार; दृश्य दो : दुखांत प्यार। नजरें भी मिलीं, दिल भी धड़के मगर शादी नहीं हो पाई। दुखांत प्यार ने क्या दिया? नंबर एक- यादें और आहें। नंबर दो- प्रतिशोध की अग्नि। प्यार का सुखांत हुआ, तो इसका मतलब इति शुभम्‌ ही नहीं। जिस तरह क्रांति करने से ज्यादा दुश्वार है क्रांति को सफल बनाना, उस तरह प्यार करके शादी करने से भी ज्यादा मुश्किल है, उस शादी को ताउम्र निभा जाना। क्योंकि प्यार एक भावना है, एक तूफान है, एक गति है। वह गति, वह आवेग, वह तूफान सबकुछ बहा ले जाता है। रिश्ते, नाते, मुलाहिजे सबकुछ, यहां तक कि समझ को भी। प्यार करने वाले दिलों में जज्बात ही जज्बात होते हैं और जुबान पर इंकलाबी जुमले होते हैं।

प्रेमी-प्रेमिका जब पति-पत्नी में परिवर्तित होते हैं, तब उनके सामने जज्बातों का तूफान थम जाता है। चाँद-तारों और चमन-बहारों की दुनिया गायब हो जाती है। उनके सामने खुरदुरा यथार्थ दो रूप में सामने आता है। पहला, अपने-अपने समीपी नातों की बेरुखी, नाराजगी और असहयोग। दूसरा, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के सवाल।
प्रायः देखा यह गया है कि इन कड़वी सच्चाइयों के थपेड़ों में प्यार की कश्ती डगमगाने लगती है। बाज वक्त तो डूब भी जाती है क्योंकि दोनों को ऐसा लगने लगता है कि कहीं कोई गड़बड़ हो गई है। जिन माता-पिता को प्यार का दुश्मन समझा था, वे याद आने लगते हैं। जिन मुद्दों को प्यार के भावावेश में नजरअंदाज किया था, वे पूरी ताकत से सामने आते हैं।
अतः जो प्रेमी-प्रेमिका बतौर पति-पत्नी अपने प्यार के सुखांत को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें प्यार की लहरों में बहने के पहले बहुत कुछ सोच लेना चाहिए, खासकर सांसारिक धरातल पर। इसके अलावा एक बात और कि कोई शख्सियत मुकम्मल नहीं होती, किसी को सारा जहां नहीं मिलता। शादी के पहले रोमांस के दौर में सामने वाले में कोई कमी नहीं दिखती क्योंकि यह वह दौर होता है, जब दिल ही दिल होता है, दिमाग नहीं। खामियां तो तब दिखती हैं जब दिल की भूमिका खत्म हो चुकी होती है और दिमाग की शुरू होती है। यह एक अति की समाप्ति के बाद, दूसरी अति की शुरुआत होती है। बेहतर यही है कि शुरू से ही दिल और दिमाग दोनों की सुनी जाए। जिसने दोनों की सुनी, उसका पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों ही सुखमय होता है।
अब बात करें प्यार ; दृश्य दो अर्थात दुखांत की। दुखांत के भी अपने कई-कई स्तर होते हैं। एक तो यह कि दिल की दिल में ही रह गई। दिल की बात जुबां तक आ ही नहीं पाई। यह लघुकथा की तरह लघु प्यार होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि इन्होंने भी कही, उन्होंने भी कही। जवाब न इन्हें मिला, न जवाब उन्हें मिला। प्यार की गाड़ी फर्र-फट्ट करके खड़ी रह गई।
प्यार की एक स्थिति यह होती है कि दोनों ने प्यार का इकरार किया। मगर अपने-अपने माता-पिता को कौन समझाए? बीच में दिक्कतें कितनी सारी हैं- माता-पिता का नामालूम रुख, आर्थिक-सामाजिक स्तर में फर्क, जातियों और धर्म के बंधन आदि-आदि। तब ऐसे में कोई देवदास पैदा होता है। कोई पारो पैदा होती है। दोनों जालिम जमाने को कुछ दिनों तक कोसते हैं और फिर अपनी-अपनी दुनिया बसा लेते हैं। दुखांत प्यार यादों के अलावा दो परिणाम भी देता है। पहला- सृजनात्मक और दूसरा- विनाशक या प्रतिशोधात्मक। सृजनात्मक परिणाम प्रेमी-प्रेमिका को बहुत ऊंचाइयों पर ले जाता है। ऐसे असफल प्रेमी जुदाई के गम को भुलाने के लिए अपने आपको किसी ऊंचे मकसद से जोड़ लेते हैं। ऐसे मकसद से जुड़ने वाला आला दर्जे का लेखक, गायक, संगीतकार और वैज्ञानिक बन जाता है।
कभी ऐसा भी होता है कि वह अपने दर्द को छोटा बनाने के लिए दूसरों के दर्द की अनुभूति करता है। यह व्यापकता उसे एक ऐसी दृष्टि देती है कि वह कह उठता है 'भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में इश्क ही एक हकीकत नहीं, कुछ और भी है।' ऐसा प्रेम, प्रेम की ऐसी ऊंचाइयाँ और ऐसी सर्वव्यापी दृष्टि स्तुत्य है, प्रशंसनीय है और अनुकरणीय है। दुखांत प्यार का जो लज्जास्पद पहलू सामने आता है, वह है प्रतिशोध। प्रेमिका के इंकार, प्रेमिका को नहीं पाने की स्थिति में प्रेमी के हृदय में प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला उत्पन्न होती है कि उसका प्रेम पलक झपकते ही गायब हो जाता है। शेष रह जाती है नफरत... नफरत और सिर्फ नफरत। इस नफरत और इंतकाम की आग में जलता आशिक अपनी माशूका को ब्लैकमेल करता है। उसका वैवाहिक जीवन तबाह कर देता है। हद तो तब होती है जब प्रतिशोध की आग में जलता आशिक प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है, उसकी हत्या ही कर देता है। कुल जमा निष्कर्ष यह कि प्रेम का परिणाम सुखांत हो या दुखांत, प्रेम त्याग मांगता है। प्रेम एक तपस्या है। अगर प्रेम सुखांत है तो फिर वैवाहिक जीवन में भी उसकी मजबूती इस तरह होनी चाहिए कि न उसमें पश्चाताप के लिए जगह हो, न उसमें अधूरापन देखने वाली दृष्टि हो और न वह प्रेम दुनियादारी के धक्कों से क्षतिग्रस्त हो।

2 comments:

Unknown said...

tyaagi ji,
prem vakai tyaag maangta hai aur tyaagi hi premi ho sakta hai
WAAH !

vandana gupta said...

ji han prem mein tyag hi tyag hota hai.........jo hota hai premi ke liye hota hai apne liye kuch nhi.......wahi prem safal hai .......jaise gopiyon ka prem krishna ke prati........jahan prem vilakshan hoga wahi safal hoga anyatha to dushparinaam hi bhogne padte hain.