rashtrya ujala

Thursday, June 4, 2009

गहराती ही जाएगी वित्तीय आपदा

दुनिया में छाई आर्थिक मंदी और उसके संताप से राहत दिलाने वाली योजनाएँ बनती रहती हैं और स्थितियाँ भी राहत का संदेश देते हुए बदलती रहती हैं, लेकिन उनसे संतुष्ट होने या उम्मीदें बाँधना गलत होगा। संकट दो-चार साल में पैदा नहीं हुआ है इसलिए कोई जादुई समाधान हो भी नहीं सकता। चार अलग-अलग आधिकारिक स्रोतों से 2009-2010 के लिए जो निष्कर्ष निकल रहे हैं उनसे भी यही संकेत मिलता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के बनाए वैश्विक संकट पर रिपोर्ट देने वाले आयोग, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक और भारतीय रिजर्व बैंक ने विकसित और विकासशील देशों को आने वाले दिनों में और अधिक सावधानी बरतने के लिए कहा है। विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि 2009-2010 के वर्ष द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आए आर्थिक संकटों की अपेक्षा अधिक भयावह होंगे। विश्व बैंक ने वैश्विक अर्थव्यवस्था का विषादपूर्ण चित्रण करते हुए कहा है कि विश्व के 20 देशों में से 17 देश संरक्षणवादी नीति अपनाए हुए हैं। वे सीमा शुल्क बढ़ाने के अलावा विश्व बाजार में अपना माल सस्ता बेचने के लिए सबसिडी दे रहे हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2009 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2 प्रतिशत की कमी आएगी। यदि विकसित देशों ने अपनी संरक्षणवादी प्रवृत्तियाँ नहीं छोड़ीं तो विश्व की गरीब जनसंख्या में 20 करोड़ लोगों की आबादी और जुड़ जाएगी।
भारत और चीन भी अमेरिका को किए जा रहे निर्यात घटने के कारण मंदी की मार से नहीं बच सकेंगे। उनकी विकास दर में भी भारी कमी आएगी। विश्व बैंक का अनुमान है कि गरीब देशों को इस वर्ष 70 करोड़ डॉलर तरलता की कमी का सामना करना पड़ सकता है। 116 विकासशील देशों में 94 देश ऐसे हैं जिनमें भारी मंदी आई है या आएगी। वैश्विक मंदी से पाँच करोड़ नौकरियाँ खत्म हो जाएँगी और अकेले दक्षिणी गोलार्द्ध में साढ़े चार करोड़ अतिरिक्त लोग भुखमरी के कगार पर पहुँच जाएँगे। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रबंध निदेशक डॉमिनिक स्ट्रास कॉन ने अपने आकलन में वैश्विक विकास की दर इस साल नकारात्मक बताई है। इस कारण समूचे संकट के आग की तरह दुनिया में फैलने की चेतावनी दी है। कॉन के अनुसार उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर इस संकट की दोहरी मार पड़ी है। एक तरफ उनका निर्यात घटा है तो दूसरी ओर उनके यहाँ पूँजी प्रवाह के स्रोत बंद हो गए हैं। पिछले दो दशकों में आर्थिक वृद्धि की जो दर हासिल हुई थी, वह घटने लगी है।
मुद्राकोष की विशेष चिंता यह है कि वित्तीय संकट आने वाले दो वर्षों में कम आय वाले देशों में प्रवेश कर जाएगा और लाखों की संख्या में लोग एक बार फिर गरीबी की चपेट में आ जाएँगे। उनके अनुसार 2010 तक वैश्विक नुकसान 40 खरब डॉलर को भी लाँघ जाएगा। अकेले अमेरिका को करीब 30 खरब डॉलर का नुकसान होगा। इंग्लैंड के वित्त मंत्री भले ही कहें कि उनका देश इस संकट से प्रभावित नहीं होगा, लेकिन मुद्राकोष का कहना है कि इंग्लैंड की नई घरेलू बचत में घाटा 13 प्रतिशत की सीमा को लाँघ जाएगा और 2009 में विकास दर में 3.3 प्रतिशत गिरावट आएगी। यूरो क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का हाल और बुरा होगा जो 2009 और पुनः 2010 में 4.2 प्रतिशत सिकुड़ेगी। भारत के संबंध में मुद्राकोष ने अधिक सावधानी बरतने की बात करते हुए संभावना व्यक्त की है कि बैंकों को करीब 61 प्रतिशत बुरे कर्ज निरस्त करने पड़ सकते हैं।
यद्यपि भारतीय रिजर्व बैंक ने इतना भयावह चित्रण प्रस्तुत नहीं किया है, लेकिन 2009-2010 के लिए निराशावादी दृष्टिकोण अपनाया है। अप्रैल-जून में व्यवसाय पिछले सूचकांक की तुलना में 14 प्रतिशत घटा है। रिजर्व बैंक ने विकास दर घटने का अनुमान लगाया है और मध्यावधि के थोक मूल्य सूचकांक में 3 प्रतिशत की वृद्धि की है, जबकि खुदरा मूल्य में बढ़ोतरी 10 प्रतिशत बनी हुई है। ऐसी स्थिति में 3 प्रतिशत की मुद्रास्फीति कोई मतलब नहीं रखती। रिपोर्ट ने रैपो रेट में डेढ़ प्रतिशत और रिवर्स रैपो रेट में .25 प्रतिशत की कमी कर यह संदेश जरूर दिया है कि अर्थव्यवस्था को प्रेरित करने के लिए अधिक तरलता की आवश्यकता है। यह उभरकर आया है कि विश्व के समृद्ध देश अब अकेले विश्व अर्थव्यवस्था की ढाँचागत समस्याओं को सुलझाने में अक्षम हैं। इन समस्याओं को हल करने के लिए भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, मैक्सिको और इंडोनेशिया जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्थाओं को मदद की जरूरत होगी, जिनका वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास में लगभग 2.5 भाग का योगदान है। ध्यान रहे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की स्थापना के समय यह कल्पना की गई थी कि वह व्यापार संकट से निपटने के लिए नकदी प्रवाह का स्रोत बनाए रखेगा। लेकिन इसने एक 'छाया-साहूकार' के तौर पर काम किया है जो विकासशील देशों के तमाम मंत्रालयों को अपनी शर्तों पर काम करने के लिए सार्वजनिक सेवाओं में होने वाले खर्चों में कटौती कराते हुए वैश्विक पूँजी के लिए रास्ते खोल दे। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ज्योफरी ने एशियाई देशों को दी गई सलाह के संदर्भ में यह याद दिला दी है कि 'जब भी ये वित्तीय संस्थाएँ तारीफ करें, उस समय संभल जाओ' फिलीपिंस के प्रोफेसर वाल्डेन बेला ने अपनी पुस्तक ड्रेगंस इन डिस्ट्रेस (अजगर की पीड़ा) में दक्षिण पूर्व के देशों की अर्थव्यवस्था के कारकों की चर्चा करते हुए सलाह दी है कि विश्व बैंक और मुद्राकोष की 'जादुई गोली' या झोला छाप डॉक्टरों द्वारा हर तकलीफ में एस्प्रिन की दवा के समान उपचार करने की विधि से सावधान रहा जाए। सार यह है कि जब तक मुद्राकोष और विश्व बैंक का पुनर्गठन होने के साथ-साथ कोटा निर्धारण, विशेष निकासी अधिकार और सहायता राशि के वितरण में विषमता और अन्यायपूर्ण व्यवहार दूर नहीं होगा, तब तक विश्व के 116 गरीब देश 2010तक उठने की राह नहीं देख सकेंगे। अनेक देश दिवालिए हो जाएँगे और संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जब तक कदम उठाएँगे बहुत देर हो चुकी होगी। आज की आवश्यकता यह है कि वैश्विक आर्थिक संयोजन परिषद का गठन किया जाए जो विभिन्न देशों द्वारा दिए जा रहे उद्दीपन पैकेज और उठाए जा रहे कदमों के बीच समन्वय स्थापित कर सके। संतोष का विषय है कि विकासशील देशों को अधिक तरलता प्रदान करने के लिए मुद्राकोष ने बांड बेचने का निर्णय लिया है। भारत दस अरब डॉलर की सिक्योरिटी (बांड) खरीदेगा। लेकिन अब समय आ गया है कि मुद्राकोष अपने पास रखे सोने को भी बेचे और उस राशि से गरीब देशों को भी ऊपर उठाने में सहायता करे।

1 comment:

Science Bloggers Association said...

आपने तो चिंता में डाल दिया।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }