rashtrya ujala

Friday, December 19, 2008

इस्लाम नफरत का मजहब नहीं है

छब्बीस नवंबर 2008 को मुंबई ने आतंकी हमलों का सबसे बुरा रूप देखा। दस आतंकवादी कई इमारतों में घुस गए, अंधाधुँध गोलियाँ चलाईं और कितने ही लोग मारे गए और जख्मी भी हुए। कहा जाता है कि पैगम्बर मोहम्मद के दौर में एक शख्स था। उसका मुख्य काम यही था कि पैगम्बर के बारे में अनाप-शनाप बोलता रहे और उनके बारे में गलत अफवाहें फैलाए। इस आदमी का बेटा अपने बाप की इस आदत से बहुत खफा रहता था। वह धर्मगुरु के पास गया और उसने उनसे अपने पिता को जान से मार देने की इजाजत माँगी। धर्मगुरु ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया, क्योंकि ऐसा करने पर लोग कहते कि उन्होंने अपने

एक घटना में, धर्मगुरु मूसा ईश्वर से प्रार्थना करते हैं- 'हे ईश्वर, मेरे अनुयायियों से सबकुछ ले ले, मगर उनका विवेक उनसे मत छीन।' ईश्वर उत्तर देते हैं- 'हे मूसा, अगर हम किसी समुदाय से कोई चीज लेने का निर्णय करते हैं, तो यह उनका विवेक है, जो हम लेते है

अनुयायियों को कत्लोगारत में लिप्त होने की शिक्षा दी है। इस घटना से जो संदेश मिलता है उसका मतलब यह है कि कोई भी ऐसा काम जिससे इस्लाम का नाम खराब होता हो, नहीं किया जाना चाहिए। ये सारी घटनाएँ हदीसों में दर्ज हैं, लेकिन लोग इनसे सबक नहीं लेते क्योंकि वे इनका गहरा अध्ययन नहीं करते।
यहूदी शास्त्रों में भी बहुत सारी कहानियाँ हैं। एक घटना में, धर्मगुरु मूसा ईश्वर से प्रार्थना करते हैं- 'हे ईश्वर, मेरे अनुयायियों से सबकुछ ले ले, मगर उनका विवेक उनसे मत छीन।' ईश्वर उत्तर देते हैं- 'हे मूसा, अगर हम किसी समुदाय से कोई चीज लेने का निर्णय करते हैं, तो यह उनका विवेक है, जो हम लेते हैं।'
आज बहुत सारे मुसलमान अपना विवेक खो बैठे हैं, हाल में मुंबई में हुई वारदातों से यह साफ जाहिर होता है। जो मुसलमान मुंबई में हुए हमलों में शरीक बताए जाते हैं, उन्हें क्या मिला? फिलिस्तीन में, अरब पिछले साठ वर्षों से लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें आज तक कुछ हासिल नहीं हुआ। बहुत सी जगहों पर मुसलमान आत्मघाती बम के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं जबकि इस्लाम में आत्महत्या को गैरशरई या गैर इस्लामी करार दिया गया है। यह पतन और विवेकहीनता का परिणाम है। जो लोग इस तरह की कार्रवाइयों में लगे हैं, वे इस बात से अनजान हैं कि एक दिन उन्हें अल्लाह के सामने जाना होगा और अपने किए का हिसाब-किताब देना होगा। इस पागलपन की वजह क्या है और इसकी शुरुआत कहाँ से हुई? इसका कारण है- नफरत! नफरत इंसान से कुछ भी करवा सकती है। नफरत शैतान से शुरू हुई।
जब अल्लाह ने आदम की रचना की, तो उन्होंने फरिश्तों और शैतान दोनों को उनकी इबादत में झुकने को कहा। शैतान ने ऐसा करने से मना कर दिया, तब अल्लाह ने उससे कहा, 'तुम और तुम्हारे अनुयायी नर्क में जाएँगे।' शैतान ने इंसान और इंसानियत के प्रति अपने मन में ऐसी घृणा पाल ली कि यह जानते हुए भी कि उसकी जगह नर्क होगी, उसने अल्लाह का हुक्म नहीं माना। नफरत इतनी अंधी होती है कि वह किसी को नर्क तक में ले जाती है। मैंने अपनी पढ़ाई-लिखाई मुस्लिम पाठशालाओं और मदरसों में की है। मैंने मुसलमानों की अनगिनत सभाओं में शिरकत की है और इनमें से कई स्थानों पर मुसलमानों के दिमाग में नफरत और गौरव की भावनाएँ भरते हुए देखा है। उन्हें पढ़ाया जाता है- 'हम धरती पर अल्लाह के खलीफा और नुमाइंदे हैं।' मैं एक बार एक अरब से मिला, जिसने मुझसे पहला सवाल यही पूछा- हम कौन हैं? फिर उसी ने यह भी कहा- हम जमीन पर खुदा के खलीफा हैं। मैंने उसे बताया कि यह हमारी हदीसों में कहीं भी नहीं लिखा है। सही-अल-बुखारी कहते हैं कि मुसलमान धरती पर अल्लाह की गवाहियाँ हैं। इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें धरती पर अल्लाह का संदेश फैलाना है। यही बात कुरान में कही गई है कि मुसलमानों का काम अल्लाह के संदेश को फैलाना और उसकी हिदायतों के अनुसार जिंदगी बसर करना है। पर हुआ क्या है कि मुसलमानों ने तमाम तरह की तहरीकें शुरू कर दीं और सत्ता में दखल करने को लेकर प्रचार शुरू कर दिया। यह सोच तब से बनी जब मुगल साम्राज्य का पतन होने लगा, और मुसलमानों ने शेष दुनिया को शोषक के रूप में देखना शुरू किया, जो उनसे उनके अधिकार और सत्ता छीनना चाहते थे। राजनीतिक सत्ता परीक्षा के प्रश्न-पत्र की तरह है। एक प्रश्न-पत्र कभी भी किसी एक के अधिकार में नहीं होता, यह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाएगा, क्योंकि अल्लाह हर समुदाय का इम्तहान लेना चाहता है। लिहाजा अगर आज राजनीतिक सत्ता आपसे ले ली गई है तो आपको धीरज रखना होगा। पहले सत्ता आपके पास थी तो इम्तहान का पर्चा आपके पास था, और अब, जब सत्ता किसी और को सौंप दी गई है तो यह उनका पर्चा है। किसी ने भी मुसलमानों को नहीं बताया कि उनकी सत्ता के इम्तहान का पर्चा अब खत्म हो गया है और अब उन्हें अन्य रचनात्मक गतिविधियों जैसे शिक्षा, समाज सुधार, स्वास्थ्य आदि के मसलों पर काम करना चाहिए। उदाहरण के लिए फिलिस्तीन में यह खुदा का फैसला था कि राजनीतिक सत्ता किसी और के हाथों में हो, सो मुसलमानों को इसे कबूल कर लेना चाहिए, लेकिन वे साठ साल से लड़ रहे हैं और इस लड़ाई से उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध से पहले जापानियों की सोच वही थी, जो अभी मुसलमानों की है। उस समय

इतिहास की यह घटना मुझे यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि मुसलमानों के भीतर से नफरत खत्म क्यों नहीं होती? ऐसा इसलिए कि मुसलमानों की नफरत एक खास दिमागी सोच का प्रतिबिम्ब है

हिरोहितो जापान का सम्राट था। जापानियों के मन में यह धारणा घुसी हुई थी कि उनका राजा दुनिया को शासित करने के लिए पैदा हुआ है। नतीजतन उन्होंने कितने ही देशों के साथ युद्ध किया। ये जापानी थे जिन्होंने आत्मघाती बमों की शुरुआत की जिसे हम 'हारा-किरी' के नाम से जानते हैं।
लेकिन 1945 में अमेरिका ने जापान पर दो एटम बम गिराए और जापानी सेना को नेस्तनाबूद कर दिया। जापान को लज्जाजनक हार का सामना करना पड़ा। तब जापानियों को समझ में आया कि राजा, खुदा नहीं था, वर्ना वह उन्हें बचा लेता। उसके बाद इतिहास गवाह है, जापान ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इतिहास की यह घटना मुझे यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि मुसलमानों के भीतर से नफरत खत्म क्यों नहीं होती? ऐसा इसलिए कि मुसलमानों की नफरत एक खास दिमागी सोच का प्रतिबिम्ब है। जापानियों का विश्वास है कि - राजा ही ईश्वर है- गलत साबित हुआ और वह धारणा खत्म हो गई, लेकिन आमतौर पर दिमाग में जमी हुई धारणाएँ अपनेःआप खत्म नहीं होतीं। इन्हें तभी दूर किया जा सकता है जब इनके विरुद्ध एक तरह की 'डिकंडीशनिंग' की जाए यानी नकारात्मक सोच पर वास्तविकता की गहरी चोट पड़े।अब मोहम्मद साहब जैसे धर्मगुरु तो रहे नहीं जो अपने अनुयायियों की सोच को इस हद तक प्रभावित कर सकें। यह एक मुश्किल काम है। सैद्धांतिक सोच को बदलने के लिए मुसलमानों को अपने भीतर से पहल करनी होगी ताकि उन्हें अपनी नफरत से बाहर निकलने में मदद मिल सके।
मौलाना वहीदुद्दीन खान

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