rashtrya ujala

Wednesday, March 4, 2009

अर्थशास्त्र बदल देगा गठबंधन की राजनीति

चुनावी नार गढ़े जा रहे हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में किसी नेता के पक्ष में कोई लहर नहीं है। जबकि चुनाव में नारों की भी जरूरत होती है और नेता की भी। सत्ताताधारी कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार डॉ. मनमोहन सिंह पूरी तरह स्वस्थ नहीं है। उन्होंने पिछले संसद सत्र में भाग नहीं लिया। प्रधानमंत्री पद के प्रतीक्षार्थी राहुल गांधी आगे आने वाले कठिन आर्थिक दौर में देश की कमान संभालने को अभी तैयार नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्र पद के प्रत्याशी के तौर पर पेश किया है। लेकिन 83 वर्षीय आडवाणी के पक्ष में भी कोई लहर जैसी बात नहीं है।नेतृत्व की कोई स्पष्ट लहर न होने की स्थिति में अर्थशास्त्र ही दोनों प्रमुख पार्टियों के बीच में विजेता पार्टी को चुनेगा, जो अगली सरकार बनाएगी। अनिश्चितता से भर अगले सालों में देश का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी कौन स्वीकार करगा? यह बड़ा सवाल है क्योंकि बहुत कम नेता खासकर नई शुरुआत करने जा रहे नेता ऐसे मुश्किल समय में जिम्मेदारी संभालना चाहेंगे।

ताजा आर्थिक संकेतकों के अनुसार पिछले अक्टूबर से दिसंबर के दौरान सकल घरलू उत्पादन (जीडीपी) की विकास दर मात्र 5।3 फीसदी रही। पिछले छह साल में किसी तिमाही में यह सबसे धीमी विकास दर रही। इस तरह मौजूदा वित्त वर्ष की तीन तिमाहियों यानि 9 महीनों के दौरान विकास दर 6.9 फीसदी रही। औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के स्पष्ट संकेत हैं। अब कृषि क्षेत्र भी सिकुड़ रहा है। हालांकि जीडीपी का सरकारी आंकड़ा कुछ समय पुराना होता है और इसमें बदलाव पूरी तरह दिखाई नहीं देता है। यह पूरी तरह विश्वसनीय भी नहीं है। मौजूदा हालात खासकर गांवों में स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। किसानों के लिए कर्जमाफी योजना लागू होने के बाद कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में कर्ज वितरण में भारी गिरावट आई है। सरकार कृषि क्षेत्र के लिए कर्ज वितरण में कमी की बात स्वीकार नहीं करना चाहती है। लेकिन जमीनी स्थिति बताती है कि सार्वजनिक और निजी बैंकों ने अक्टूबर से दिसंबर के दौरान किसानों को कर्ज देना एक तरह से बंद ही कर दिया। बिजनेस भास्कर पंजाब, हरियाणा व दूसर तमाम राज्य में कृषि क्षेत्र को कर्ज वितरण घटने की ओर लगातार संकेत देता रहा है।कृषि क्षेत्र के लिए कर्ज वितरण की वास्तविकता यह है कि इन कर्जो का बड़ा हिस्सा दैनिक जरूरत की उपभोक्ता वस्तुओं, कंज्यूमर डयूरबल्स और दोपहिया वाहनों की खरीद में खर्च हो रहा है। कंपनियों की बिक्री पर इसका थोड़ा असर पड़ने भी लगा है। अक्टूबर से दिसंबर की पिछली तिमाही कोई सामान्य दौर नहीं था। कंपनियों में घबराहट थी कि पता नहीं अर्थव्यवस्था क्या स्वरूप लेगी। दुनियाभर में बैंकों के दिवालिया होने के कारण भी लोगों ने खरीद संबंधी फैसले टाल दिए। सरकारी अर्थशास्त्री उम्मीद कर रहे हैं चालू जनवरी-मार्च की तिमाही में विकास दर सुधर जाएगी। वे अनुमान के विपरीत उम्मीद कर रहे हैं कि विकास दर की गिरावट जारी नहीं रहेगी। अंतरिम बजट में सरकार ने सात फीसदी विकास दर के आधार पर राजस्व प्राप्ति का अनुमान लगाया था। इस आधार पर वित्तीय घाटा 5.5 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया। अगर राज्यों के वित्तीय घाटे को भी जोड़ दें तो यह नौ फीसदी बैठता है।अमेरिकन इनवेस्टमेंट बैंक गोल्डमैन सैक्स के अध्ययन के अनुसार वित्त वर्ष 2009 में वित्तीय घाटा 10.3 फीसदी रहेगा। मानकों के अनुसार दस फीसदी वित्तीय घाटा काफी ज्यादा है। नई सरकार को इससे जूझना होगा। किसी सरकार के लिए टैक्स रट बढ़ाना और रियायत वापस लेना अलोकप्रिय उपाय होगा, ऐसे में नई सरकार के लिए अर्थव्यवस्था और बजट के लिहाज से आने वाला समय मुश्किल भरा होगा।अब सवाल उठता है कि अलोकप्रिय होने वाली सरकार का नेतृत्व कौन करना चाहेगा, जबकि अगले पांच वर्षो के दौरान वित्तीय संतुलन अधिक खराब रहने वाला है। नया गठबंधन ऐसा स्वरूप ले सकता है जिसे कांग्रेस बाहर से समर्थन दे सकती है। इससे राहुल गांधी को अपनी सारी गलतियों के लिए नई सरकार की आलोचना करने का मौका मिल जाएगा। कांग्रेस को सरकार विरोधी माहौल से बचने का मौका मिल जाएगा। एक-दो साल के लिए अन्य पार्टी की सरकार बनवाना अहम राजनीतिक फैसला होगा। द्वारा यतीश राजावत

1 comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

सच तो यह है कि विकास दर का आंकड़ा भी टोटके के अलावा कुछ नहीं है. इन टोटकों से लोकतंत्र नहीं चलता है. दो साल पहले विकास दर की आन्धी चलती बताई जा रही थी तब भी जनता की हालत महंगाई से ख़राब थी. आज भी है. वह अपने अनुभवों को ही सर्वोपरि रखेगी और ये अलग बात है कि अभी कोई विकल्प नहीं दिख रहा है, पर ये उत्तर आधुनिक काल की जनता है. जिस दिन तुल जाएगी विकल्प भी बना ही लेगी.