यदि अमेरिकी कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस द्वारा जारी रपट की मानें तो पाकिस्तानी हथियारों के ज़खीरे में 60 परमाणु बम मौजूद हैं। इन हथियारों के लिए पाकिस्तान में निरंतर विखंडनीय सामग्री तैयारी होती रहती है। पाकिस्तान परमाणु शस्त्र बनाने की इकाइयों और वाहनों में भी बढ़ोतरी कर रहा है। इन परमाणु बमों में उच्च किस्म के ठोस व उम्दा यूरेनियम का इस्तेमाल किया जाता है। हर परमाणु हथियार में 15 से 20 किलोग्राम यूरेनियम का इस्तेमाल होता है। इन हथियारों के लिए पाकिस्तान प्रतिवर्ष 100 किग्रा की दर से यूरेनियम का उत्पादन कर रहा है। इसके अलावा पाकिस्तान दो अतिरिक्त हैवी वाटर रिएक्टर भी बना रहा है जिनके पूरा होने पर पाकिस्तान की प्लूटोनियम उत्पादन क्षमता बहुत बढ़ जाएगी। अभी तो वह हर साल 5 से 6 परमाणु बम तैयार कर रहा है।
परमाणु बमों की डिलीवरी के लिए पाकिस्तान के पास दो तरह के वाहक उपकरण हैं- पहला विमान और दूसरा ज़मीन से ज़मीन पर मार करने वाली मिसाइल। अमेरिका से हासिल एफ-16 विमान में पाकिस्तान ने कुछ परिवर्तन किए हैं। अमेरिका से 36 नए विमान लेने का करार भी पाकिस्तान ने कर लिया है। इसके साथ ही इन विमानों के साथ हथियारों और पाकिस्तान के एफ-16 ए/बी मॉडल के विमानों के रखरखाव का अनुबंध भी हुआ है। हालाँकि पाकिस्तान ने अपनी परमाणु नीति घोषित नहीं की है, लेकिन यह तो तय है कि वह अफगानिस्तान, चीन, ईरान या अपने अन्य पड़ोसियों के खिलाफ तो इन हथियारों का प्रयोग करने से रहा। इन हथियारों का निशाना अंततः भारत ही बनेगा। पाकिस्तान खुद के द्वारा खड़े किए गए 'भस्मासुर' तालिबान का दमन करने में नाकाम रहा है। ऐसे देश के बारे में अमेरिका की नीति भी डाँवाडोल ही है। मई के अंतिम सप्ताह में पाकिस्तान में दो बड़े आतंकी हमले हुए थे। पेशावर में 24 घंटों के भीतर दो हमले हुए थे जिनमें 30 लोग मारे गए और 200 से ज़्यादा घायल हुए। इसके अलावा पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आईएसआई के लाहौर स्थित कार्यालय के पास बम विस्फोट हुआ जिसमें 55 लोग हलाक हो गए और 350 से अधिक घायल हुए।
तालिबान ने लाहौर हमलों की ज़िम्मेदारी लेते हुए कहा कि हमला मलाकंद और स्वात में पाकिस्तानी फौज की कार्रवाई का बदला लेने के लिए किया गया है। 3 मार्च 2009 में श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमले से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान में मौजूद जिहादी ऐसी बेखौफ कार्रवाइयों को अंजाम देकर अपने मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहते हैं। हालाँकि किसी आतंकी समूह ने इस हमले की ज़िम्मेदारी नहीं ली। लेकिन ऐसे कई कारण हैं जिनके आधार पर यह लश्कर-ए-तोइबा का काम प्रतीत होता है। आईएसआई द्वारा पैदा और पाला-पोसा गया यह संगठन भारत पर दबाव बनाए रखने के लिए है। यह अपने मकसद को पूरा भी कर रहा है। पहले-पहल पाकिस्तान के परमाणु बम को इस्लामिक बम कहा गया। ऐसा माना जाता है कि इसे बनाने के लिए लीबिया, सऊदी अरब और शायद ईरान जैसे मुस्लिम देशों ने भी पाकिस्तान को पैसा मुहैया कराया। शर्त यह थी कि पाकिस्तान इसके एवज में इन देशों को परमाणु हथियार बनाने के लिए तकनीकी जानकारी देगा। मुस्लिम देशों ने पाकिस्तान के परमाणु बम का स्वागत 'इस्लामिक बम' कहकर किया था। काबिले गौर है कि परमाणु बम बनाने वाले पाकिस्तानी वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खान ने 2004 में यह कबूल किया था कि उन्होंने परमाणु शस्त्रों की जानकारी ईरान, उत्तरी कोरिया और लीबिया को दी थी। इसके लिए उन्हें तुरंत माफी भी दे दी गई, क्योंकि जो कुछ एक्यू खान ने किया, वह पाकिस्तानी सरकार की मर्ज़ी से ही किया था।
अमेरिकी कुछ भी कहें लेकिन पाकिस्तान के परमाणु हथियार पूरी तरह से पाकिस्तानी फौज के कब्ज़े में ही हैं। पाकिस्तान के एक पूर्व विदेश मंत्री ने बयान दिया था कि परमाणु शक्ति हमेशा पाकिस्तानी सेना के कब्ज़े में ही रही है। बात वहीं की वहीं है कि पाकिस्तान में फौज, नागरिक सरकार की बराबरी पर है या वास्तव में पाकिस्तानी फौज वहाँ की सरकार से ज्यादा मज़बूत है जिसके सामने प्रधानमंत्री भी तुच्छ है! कौन नहीं जानता कि मुशर्रफ ने किस तरह से नवाज़ शरीफ को प्रधानमंत्री की कुर्सी से उतारकर दर-बदर कर दिया। यह जनरल वही था जिसके इशारों पर जनता द्वारा चुना गया प्रधानमंत्री कारगिल मुद्दे पर वही करता रहा, जैसा कि जनरल कहता गया। फरवरी, 2009 में पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने इस बात को क़बूला कि उनकी सरकार ने तालिबानी खतरे को कम करके आँका था और आतंकी बड़ी संख्या में पाकिस्तान में मौजूद हैं। वे न सिर्फ कबाइली इलाक़ों में हैं बल्कि पेशावर जैसे बड़े शहरों में भी हैं। पाकिस्तान अपने अंदरुनी हालात से कैसे निपटेगा, यह वहाँ की सरकार को सोचना है। लेकिन जो कुछ भी पाकिस्तान के भीतर होगा, उसका असर हिन्दुस्तान पर भी पड़ेगा। पाकिस्तानी सेना हमेशा से आतंकियों के पक्ष में रही है ताकि वे भारत में गड़बड़ी फैला सकें। फरवरी, 2009 में अमेरिकी सेना ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने पाकिस्तानी फौज और अर्द्धसैनिक बलों को न केवल ट्रेनिंग दी बल्कि उन्हें इंटेलीजेंस एवं लड़ाई की चालें भी सिखाईं।
जहाँ तक भारत का सवाल है अमेरिका दोहरी नीति अपना रहा है। अमेरिका पाकिस्तान को फौजी साजोसामान के साथ 1.5 अरब डॉलर की हर साल मदद दे रहा है, यह जानते हुए भी कि अंततः पाकिस्तान इनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ ही करेगा। लेकिन हम अमेरिका के विरुद्ध कोई शिकायत नहीं कर सकते, क्योंकि अमेरिका भारत के खिलाफ भी नहीं है। बात इतनी है कि किसी भी अन्य मुल्क की तरह अमेरिका अपने बारे में पहले सोच रहा है। जैसा कि मानव इतिहास में हर इंसान और हर देश ने किया है, इसलिए हमें न केवल सैनिक दृष्टिकोण से मज़बूत होना होगा बल्कि हमारी इंटेलीजेंस भी पुख्ता और भरोसेमंद होनी चाहिए ताकि अगली बार जब हमारा पड़ोसी किसी गलत इरादे से हमारे घर में घुस रहा हो तो हम सोते न रह जाएँ। पाकिस्तान ने हमेशा कहा है कि उसकी सरज़मीं से आतंकी गतिविधियाँ नहीं चलने दी जाएँगी। लेकिन सभी जानते हैं कि पाकिस्तान कभी बात का पक्का नहीं रहा इसलिए हमें यह समझना होगा कि अपनी आज़ादी को बनाए रखने के लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं है। हम पाकिस्तान की परमाणु शक्ति को हल्के में नहीं ले सकते। पाकिस्तान के कहने भर से हम यह नहीं मान सकते कि सबकुछ ठीक-ठाक है। इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान के परमाणु बम अल-क़ायदा व अन्य इस्लामिक जेहादी गुटों के हाथों में पड़ सकते हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तानी फौज में मौजूद कुछ तत्वों के चलते भी ये नाभिकीय अस्त्र गलत हाथों में पड़ सकते हैं। इस्लामिक बम कहलाने वाले ये परमाणु बम सिर्फ और सिर्फ भारत को लक्ष्य करने के लिए ही बने हैं, इनका और कोई औचित्य नहीं है। हमारे पास निगरानी की ऐसी प्रणाली होनी चाहिए कि हम किसी भी हमले से अपनी रक्षा कर सकें और हमारे देश तक पहुँचने से पहले ही खतरे को खत्म कर सकें तथा पाकिस्तान के उन एजेंटों को भी पकड़ना होगा, जो भारत के नागरिक बनकर यहाँ रह रहे हैं।
2 comments:
आपने जो बाते की है वह चिंतनीय है
haramkhor hai pakistan.
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