rashtrya ujala

Saturday, July 11, 2009

देवी बनने की तमन्ना

भारत में आज भी मूर्तिपूजा का कोई जोड़ नहीं है। धर्म में मूर्तिपूजा का विधान है, राजनीति में भी मूर्तिपूजा होती है। भारत के राजनीतिक जीवन में नायकों की पूजा होना एक कड़वी मगर दुर्भाग्यपूर्ण सच्चई है। यह चेतावनी आज से छह दशक पहले आधुनिक भारतीय संविधान के पितृपुरुष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने दी थी।लेकिन उनकी ही विरासत संभालने वाले लोगों ने जता दिया कि आंबेडकरवादियों की सोच एक मूर्ति तक सिमटकर रह गई है। पिछले महीने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और ‘दलित की बेटी’ मायावती ने खुद अपनी और अपने गुरु कांसीराम की 15 मूर्तियों का अनावरण किया। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें आरोप लगाया गया कि पूरे राज्य में स्मारक और मूर्तियां स्थापित करने में सरकारी खजाने से 2000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा खर्च किए जा रहे हैं। कोर्ट ने उप्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए जवाब देने को कहा है।

मायावती ने कोर्ट में इसकी सुनवाई होने से पहले ही एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि ये मूर्तियां ‘टूरिस्ट अट्रेक्शन’ होंगी और इनके जरिए पर्यटकों से जो भी पैसा आएगा, उसका इस्तेमाल आंबेडकर और कांसीराम ग्रामों के विकास के लिए किया जाएगा।यानी कभी अपनी समृद्ध वास्तुशिल्पीय विरासत के लिए जगविख्यात रहा नवाबों का शहर अब दलित नायकों की मूर्तियों और बलुआ पत्थर से बनी तकरीबन 60 हाथियों की मूर्तियों के लिए याद किया जाएगा, जो अगले कुछ सालों में लखनऊ में स्थापित होने जा रही हैं।maya विडंबना यह है कि सिर्फ आंबेडकर ने ही राजनीति में मूर्तिपूजा पर सवाल नहीं उठाए, बल्कि बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांसीराम भी इसकी आलोचना करते रहे। नब्बे के शुरुआती दौर में कांसीराम के साथ एक साक्षात्कार के दौरान मैंने उनसे पूछा कि वे महाराष्ट्र के आंबेडकरवादियों से बुनियादी तौर पर किस बात से असहमत हैं। इस पर उनका जवाब था, ‘वे बाबासाहेब की मूर्तियां तो खूब बनवाते हैं, लेकिन सत्ता में आने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करते। उप्र में हमारा लक्ष्य सत्ता की कुंजी हासिल करना है, मूर्तियां बनाने में वक्त बर्बाद करना नहीं।’आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि मायावती मूर्तियां स्थापित करने को लेकर इतनी उद्यत हैं, जिसमें पर्यावरण के मानकों को नजरअंदाज तो किया ही जा रहा है, बल्कि करोड़ों रुपए का सार्वजनिक धन भी इस पर खर्च किया जा रहा है? निश्चित तौर पर मायावती न तो पहली और न ही आखिरी राजनेता हैं जिन्होंने व्यक्तिवादी राजनीति की उपासना को बढ़ावा दिया है।द्रविड़ आंदोलन मूर्ति पूजा के विरोध में था, लेकिन यह भी अपने अनुयायियों को कटआउट्स और चाटुकारिता के निर्लज्ज प्रदर्शन की संस्कृति विकसित करने से नहीं रोक पाया। नेहरू नायकों की पूजा से नफरत करते थे, लेकिन यह बात भी उनके उत्तराधिकारियों को तकरीबन तमाम सरकारी संस्थानों या परियोजनाओं का नामकरण नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य के नाम पर करने से नहीं रोक पाई।मायावती अपने भाषणों में दलित-पिछड़े वर्ग के सशक्तीकरण के आदर्श के तौर पर भले ही फुले-शाहू-आंबेडकर का जिक्र कर लें, लेकिन सच यही है कि गुजरे जमाने के आदर्श उनके वर्तमान और भविष्य के लक्ष्यों के लिए ज्यादा मायने नहीं रखते। मायावती की छवि एक नए वंश की साम्राज्ञी की तरह है जो कुलीनों द्वारा थोपी गई मान्यताओं और मानदंडों के बोझ से मुक्त है।कांसीराम आंबेडकर के लेखन से बेहद प्रभावित थे और सामूहिक बहुजन समाज की पहचान को आगे ले जाने के प्रति अपनी जिम्मेदारी को शिद्दत से महसूस करते थे। इसके उलट मायावती घोर व्यक्तिवादी हैं, जो राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ने के लिए विचारधारा को एक अवरोध मानती हंै। कांसीराम कभी विशाल जनसमूह के आगे या चाटुकारिता के सार्वजनिक प्रदर्शन को लेकर सहज नहीं रहे, जबकि मायावती को अपने जन्मदिन को शाही अंदाज में मनाने में दिलचस्पी है और वे खुलेआम चाटुकारिता की संस्कृति को बढ़ावा देती हैं।

संभवत: जाति आधारित उत्तर भारतीय राजनीति में एक महिला और दलित के तौर पर तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाना मायावती के टिके रहने का मंत्र है। छोटे बाल, सपाट लुक, रूखी भाषा एक सख्त मिजाज दबंग राजनेता की छवि में फिट बैठते हैं। वे अपनी ही मूर्तियां बनवाकर लार्जर-दैन-लाइफ छवि गढ़ना चाहती हैं, जिसके आगे उनके विरोधी बिलकुल बौने नजर आएं।मायावती की उछाल भरती महत्वाकांक्षा यही है कि उन्हें दूसरे राजनेताओं की तरह नहीं, बल्कि मौजूदा दौर की दलित नायिका के तौर पर देखा जाए। यदि मायावती के अन्य समकालीन आइकॉन की तरह मैडम तुसॉद के संग्रहालय में उनका मोम का पुतला नहीं लगाया जा सकता, तो वे खुद अपनी मूर्तियां क्यों नहीं बनवा सकतीं?दुर्भाग्य से मायावती जैसी शख्सियतों के अपनी ही सफलता का शिकार बन जाने का खतरा है। भले ही उनके वफादार अनुयायी अपने नेता की इतिहास में स्थायी जगह बनाने के प्रयास का विरोध न करंे, लेकिन ऐसा समय भी आएगा जब बसपा के वफादार कार्यकर्ता अपनी खास पहचान के लिए मूर्ति की राजनीति से ज्यादा और भी कुछ चाहेंगे। अब चुनावी सफलता संकीर्ण जातिगत पहचानों के बनिस्बत मजबूत सामाजिक गठजोड़ विकसित करने पर ज्यादा निर्भर होती जा रही है।र्तियों और स्मारकों से भले ही मायावती की छवि उनके अनुयायियों की निगाह में देवी की तरह बन जाए, लेकिन इससे अन्य सामाजिक समूहों के बीच अलगाव की भावना ही बढ़ेगी। इसमें वे ब्राrाण भी शामिल हैं, जिन्होंने वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती का समर्थन किया था।उत्तर प्रदेश का 2007 का जनादेश यादव राज का अंत करने के लिए था, जिसने भ्रष्टाचार और आपराधिक संस्कृति को बढ़ावा दिया। लेकिन बेहतर प्रशासन पर ध्यान देने के बजाय अब मायावती को भी उन्हीं आपराधिक तत्वों के साथ पींगे बढ़ाते देखा जा रहा है, जिन्हें उन्होंने खत्म करने की कसम खाई थी।लोकसभा चुनाव के नतीजे उनके लिए चेतावनी के समान होने चाहिए थे, लेकिन लगता है कि इन नतीजों ने मायावती को अपना कद बढ़ाने के प्रयासों में और बेपरवाह बना दिया है। यदि दलित राजनीतिक सशक्तीकरण के एक सहज प्रतीक के बाद मायावती से दलितों का मोहभंग हो जाता है, तो यह दुखद होगा।फिर आंबेडकर के हवाले से कहें तो भारत में ‘भक्ति’ या नायकों की पूजा अथवा समर्पण, जो भी कहा जाए, राजनीति में जितनी बड़ी भूमिका निभाता है, वैसा दुनिया मंे कहीं और नहीं देखा जाता। धर्म में ‘भक्ति’ आत्मा की मुक्ति की राह हो सकती है, लेकिन राजनीति में ‘भक्ति’ या नायकों की पूजा निश्चित तौर पर अधोपतन और संभावित तानाशाही की राह की ओर ले जाती है।

1 comment:

Udan Tashtari said...

सही कह रहे हैं.