जम्मू-कश्मीर की घटनाओं को एकाकी रूप में नहीं देखा जा सकता। वहां नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के बीच जारी राजनीतिक जंग के अलावा भी बहुत से पहलू हैं। जम्मू-कश्मीर में शासन कभी आसान नहीं रहा। शोपियां मसले पर गत छह माह घाटी में काफी घमासान मचा है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हालात से निपटने के लिए काफी जूझना पड़ा है। पीडीपी प्रमुख विपक्षी पार्टी की भूमिका निभा रही है। सीमा पार के हालात बिल्कुल अलग हैं। मुजफ्फर बेग जैसे वरिष्ठ नेता द्वारा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पर सेक्स स्कैंडल में शामिल होने का आरोप लगाना उचित नहीं ठहराया जा सकता। उमर का परिवार है, छोटे बच्चे हैं और मेरी नजर में उन्होंने सही ढंग से काम किया है। सदन में माइक्रोफोन फेंकने वाली महबूबा मुफ्ती ने बाद में सदन में सीबीआई पत्र भी फाड़ डाला। नासमझी भरा टकराव जारी रहना दु:खद है। हम अमरनाथ यात्रा मुद्दे पर पीडीपी की भूमिका देख चुके हैं। साथ ही घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने के बेहूदा प्रस्तावों के बारे में भी सुन चुके हैं।
इस प्रकार के सभी घटनाक्रम दुर्भाग्यपूर्ण हैं। मुझे नहीं लगता कि नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और भाजपा इस स्थिति में महज मूकदर्शक रह सकते हैं। घाटी में पिछले छह माह काफी भारी रहे हैं। सोपोर, पुलवामा, श्रीनगर में हिंसा और हत्याएं, शोपियां में दुष्कर्म और उपद्रव तथा बारामुला में हिंसा की घटनाएं हुई हैं। उमर अब्दुल्ला ने हालात को काफी हद तक काबू में रखा और हिंसा को बेकाबू होने से रोके रखा। इसी प्रकार हम पाकिस्तान में घटनाक्रम की अनदेखी नहीं कर सकते, जहां तालिबान और उग्रवादी संगठन पाकिस्तानी सेना व खुफिया एजेंसियों में पैठ बना चुके हैं। इस कारण घाटी और देश के अन्य हिस्सों में आतंकी हमलों की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। हमारे सामने गंभीर समस्या है कि पाकिस्तान में सरकार के हाथ में नियंत्रण नहीं रह गया है। बात चाहे मुंबई पर आतंकी हमले की जांच की हो अथवा आईएसआई के आतंकी ढांचे और आत्मघाती हमलावरों की फौज की, हमारे पास अत्यधिक सावधानी से आगे बढ़ते रहने के अलावा सीमित विकल्प ही बचे हैं। साथ ही पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सहयोग लेने का प्रयास करना चाहिए।
वर्तमान हालात में संप्रग और मुख्य विपक्षी दल भाजपा को जम्मू-कश्मीर सरकार को समर्थन देना चाहिए। पिछले एक साल में घाटी में जो दबाव और तनाव रहा है उसे देखते हुए फारुक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के लिए साहस और दृढ़ संकल्प की जरूरत है। जम्मू-कश्मीर में हुए चुनाव में रिकार्ड मतदान और जनादेश को देखते हुए स्पष्ट हो जाता है कि हालात बदल चुके हैं। घाटी और पाक अधिकृत कश्मीर में उग्रवादी तत्व और उनके हमदर्द अलग-थलग पड़ गए हैं। इन उग्रवादी तत्वों के वोट हासिल करने के लिए पीडीपी के प्रयास कामयाब नहीं हुए, किंतु उसके राजनीतिक तेवर और क्रियाकलाप राष्ट्रीय हितों पर आक्रामक हमला बोल रहे हैं। हम पाकिस्तान में उथल-पुथल का कश्मीर पर दुष्प्रभाव पड़ते नहीं देख सकते। जो राजनेता उग्रवादी और विभाजनकारी राजनीति का समर्थन करता है वह राजनीतिक वनवास का अधिकारी है। पाकिस्तान में भयावह हालात से सभी भलीभांति परिचित हैं। इराक और अफगानिस्तान में अव्यवस्था पर भी हमारा ध्यान है। पाकिस्तान से बातचीत में हमें बेहद सावधानी बरतनी चाहिए। लोगों द्वारा बरता गया संयम हमेशा के लिए कायम नहीं रह सकता। हाल ही में पाकिस्तान ने मुंबई हमलों पर भड़काऊ बयान दिए हैं। पाकिस्तानी गृह मंत्री रहमान मलिक के आतंकी सरगना हाफिज सईद के बारे में दिए गए बयान से संकेत मिलता है कि मुंबई हमले के सूत्रधारों को सजा देने के संबंध में पाकिस्तान से अधिक अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए। भारत-पाक संयुक्त बयान पाकिस्तान के रुख पर मुहर लगाता है।
नि:संदेह वर्तमान संकेत उत्साहवर्धक नहीं कहे जा सकते। साझा बयान पर संप्रग और राजग तलवार भांजते नजर आ रहे हैं, लेकिन इसका सही आकलन मुंबई के सूत्रधारों को सजा दिलाने की पाक की वचनबद्धता पूरी होने से होगा। अमेरिका और उसके मित्र देश अफगानिस्तान और इराक में अपनी नीति की सफलता के लिए पाकिस्तान में समस्याओं के हल के लिए उतावले नजर आ रहे हैं। हम इराक और अफगानिस्तान में उलझे और वित्तीय संकट की मार झेल रहे वैश्विक समुदाय से कुछ अपेक्षा नहीं कर सकते। आर्थिक संकट के कारण वहां बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और असंतोष फैला है, जिसका प्रभाव राजनीतिक फैसलों पर भी पड़ रहा है। अतीत में जब भी पाकिस्तान को हथियार मुहैया कराए गए इनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ हुआ है। मीडिया में खबरें आ रही हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन ने अफगानिस्तान और संभवत: पाकिस्तान में तालिबान से बातचीत शुरू कर दी है। हम इसे क्या समझें?
संयुक्त बयान में कुछ गड़बड़ जरूर है। संसद में बहस से कुछ सामने तो आया, किंतु संदेह अब भी बने हुए हैं, क्योंकि पाकिस्तान द्वारा अभिव्यक्त किसी भी विचार की विश्वसनीयता नहीं है। आशा की जानी चाहिए कि अमेरिका की तरफ से पाकिस्तान को मिलने वाली आर्थिक और सैन्य सहायता से भारत के हित प्रभावित नहीं होंगे। अमेरिका से सहायता के बदले पाकिस्तान स्वात घाटी में तालिबान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करेगा और भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों की तरफ से आंखें मूंदे रहेगा। सच्चाई यह है कि वार्ता करने और एक-दूसरे को सूचनाओं का आदान-प्रदान करने भर से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्या इसको प्रगति कहा जा सकता है? मतदान करने वाली जनता ने काफी संयम और धैर्य का प्रदर्शन किया है, किंतु हर चीज की एक सीमा होती है। संयुक्त बयान का आकलन अगले कुछ माह में होने वाली प्रगति पर निर्भर करेगा।
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