हमारे यहाँ निश्चय ही फुल डेमोक्रेसी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे यहाँ राजा-रानी नहीं हैं। राजमाताएँ और राजकुमार-राजकुमारियाँ नहीं हैं। राजमहल नहीं हैं, दरबान नहीं हैं। चारण और भाट नहीं हैं। राजदरबार नहीं हैं। दरबारी नहीं हैं। बेगारी नहीं है। चाबुक और कोड़े नहीं हैं। राजा की मनमानी नहीं है। गर्दनें उड़ा देने और पुरस्कार में गले से उतारकर पुरस्कृत के गले में हीरे का हार पहना देने का चलन नहीं है। संगीत और शराब की महफिलें नहीं हैं। वंशवाद नहीं है।
यह सब है और जी, डेमोक्रेसी भी है। चुनाव होते ही हैं। वोटों की गिनती होती ही है। आमसभाएँ होती ही हैं। आरोप-प्रत्यारोप लगते ही हैं। पाँच साल बाद चुनाव होते ही हैं। समर्थन भी है, विरोध भी है। सिद्धांत भी हैं, सिद्धांतवादिता भी है। मतलब एक जनतंत्र में जो-जो होना चाहिए, सब कुछ है। तामझाम पूरा है। सूचना का अधिकार भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। स्वतंत्र प्रेस भी है, निजी टीवी चैनल भी हैं। अब आप ही बताइए कि क्या नहीं है! उसका भी इंतजाम हो जाएगा।
मगर सब होते हुए भी कुछ नहीं है। पुलिस का डंडा इन सब पर भारी है। तिवाद-संप्रदायवाद-क्षेत्रवाद लोकतंत्र पर बहुत भारी है। वंशवाद-धनवाद के आगे जनतंत्र की लाचारी है। बेशक आप अपना प्रतिनिधि चुन सकते हैं लेकिन वह गुंडों और दलालों की बिरादरी में से ही होना चाहिए। आप अपने ऊपर होने वाले किसी भी अन्याय के खिलाफ अदालत में जा सकते हैं लेकिन वकील की फीस देने की ताकत आप में होनी चाहिए।
यह जनतंत्र है वाकई लेकिन यह धनतंत्र की मर्जी से चलता है। जो वायदे जनता से किए जाते हैं, उन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी किसी पार्टी की नहीं है लेकिन जो वायदे कभी किए ही नहीं जाते, वे चुनाव के बाद फटाफट पूरे होने शुरू हो जाते हैं- सरकार फिर चाहे किसी भी पार्टी की हो। उसका रंग तिरंगा हो, भगवा हो, हरा हो, नीला हो, कुछ भी हो। प्रभु का कैसा चमत्कार है न!
यह सब है और जी, डेमोक्रेसी भी है। चुनाव होते ही हैं। वोटों की गिनती होती ही है। आमसभाएँ होती ही हैं। आरोप-प्रत्यारोप लगते ही हैं। पाँच साल बाद चुनाव होते ही हैं। समर्थन भी है, विरोध भी है। सिद्धांत भी हैं, सिद्धांतवादिता भी है। मतलब एक जनतंत्र में जो-जो होना चाहिए, सब कुछ है। तामझाम पूरा है। सूचना का अधिकार भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। स्वतंत्र प्रेस भी है, निजी टीवी चैनल भी हैं। अब आप ही बताइए कि क्या नहीं है! उसका भी इंतजाम हो जाएगा।
मगर सब होते हुए भी कुछ नहीं है। पुलिस का डंडा इन सब पर भारी है। तिवाद-संप्रदायवाद-क्षेत्रवाद लोकतंत्र पर बहुत भारी है। वंशवाद-धनवाद के आगे जनतंत्र की लाचारी है। बेशक आप अपना प्रतिनिधि चुन सकते हैं लेकिन वह गुंडों और दलालों की बिरादरी में से ही होना चाहिए। आप अपने ऊपर होने वाले किसी भी अन्याय के खिलाफ अदालत में जा सकते हैं लेकिन वकील की फीस देने की ताकत आप में होनी चाहिए।
यह जनतंत्र है वाकई लेकिन यह धनतंत्र की मर्जी से चलता है। जो वायदे जनता से किए जाते हैं, उन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी किसी पार्टी की नहीं है लेकिन जो वायदे कभी किए ही नहीं जाते, वे चुनाव के बाद फटाफट पूरे होने शुरू हो जाते हैं- सरकार फिर चाहे किसी भी पार्टी की हो। उसका रंग तिरंगा हो, भगवा हो, हरा हो, नीला हो, कुछ भी हो। प्रभु का कैसा चमत्कार है न!
1 comment:
मजेदार व्याख्या है.
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