rashtrya ujala

Monday, November 24, 2008

बिहार में विकास का विहार

स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई, समय से वेतन, समय पर परीक्षाफल, अस्पतालों के भवनों पर सफेदी, डॉक्टरों का मिलना, दवाओं का वितरण, सड़कें काली-काली, मानो पुनः एक बार बिहार में विकास का विहार होने लगा है। पिछले 2-3 दशकों में 'बिहारी' देश के बड़े शहरों में लगभग एक अपशब्द बन गया है, इससे बिहार की भूमि से पलायन किए मजदूरों का सिर नीचा होता था। वे असम के चाय बागान, हरियाणा और पंजाब के धान-गेहूँ के खेतों, कोलकाता, मुंबई और अहमदाबाद के कल-कारखानों से लेकर दिल्ली की मलीन बस्तियों में मुरझाए-मुरझाए से लगते थे। सिर नीचा कर चलने वाला वह बिहारी समाज अपने ही हाथों सिंचित लहलहाती फसल की हरियाली अपनी आँखों में नहीं भर सकता था।
अपनी आँखों में खुशियाँ बिखेरने की कोशिशों को 'बिहारी' कहकर नाकाम कर दिया जाता था।

यूँ तो बिहार से रोजी-रोटी के लिए पलायन करने वालों की परंपरा बहुत पुरानी रही है। डेढ़-दो सौ साल पूर्व मॉरीशस, गुयाना और सूरीनाम गए मजदूरों की तीसरी-चौथी पीढ़ी अब वहाँ राजसत्ता में भागीदार है। संभवतः यह जानकारी ही राज ठाकरे को उद्वेलित कर रही है

दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बिहार में 40-50 बीघा जमीन जोतने वाले, मालिक कहे जाने वाले परिवारों के बेटे भी थे। 'मलीन बस्ती' के नाम से पुकारे जाने वाली झुग्गियों में मन मारकर बैठते थे। उनके शरीरतोड़ परिश्रम से सड़कें काली होती रहीं, पंचसितारे होटल जगमगाते-चमचमाते रहे, कारखानों से सामान बाजार में आते रहे, करोड़ों शहरी लोगों के घर में सुविधाएँ जुटती रहतीं, पर उन्हें धन्यवाद देने वाला कोई नहीं। 'स्साला बिहारी' ही सुनना पड़ता था। बिहार से दिल्ली आए एक इंजीनियर नौजवान ने साइकल के कैरियर पर पाइप बेचने की एजेंसी ली। उसकी साइकल देखकर व्यापारी उपहास उड़ाते थे-''इसी पर चढ़कर बिहार चले जाओ, वहीं जाकर पाइप बेचो।''

नहीं लौटा वह नौजवान बिहार। मेहनत करता रहा। बड़ी फैक्टरियों की स्थापना की। अरबों का मालिक है। राजनीति में विशेष पहचान बनाई है। साइकल उसने संभाल कर रखी है। वह उसे उन दिनों की याद दिलाती है, विकास की राह रोकती नहीं। आगे और आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। यूँ तो बिहार से रोजी-रोटी के लिए पलायन करने वालों की परंपरा बहुत पुरानी रही है। डेढ़-दो सौ साल पूर्व मॉरीशस, गुयाना और सूरीनाम गए मजदूरों की तीसरी-चौथी पीढ़ी अब वहाँ राजसत्ता में भागीदार है। संभवतः यह जानकारी ही राज ठाकरे को उद्वेलित कर रही है।
पिछले बीस वर्षों में बिहार से पलायन करने वालों में मजदूर (परिवार सहित), विद्यार्थी, व्यापारी ही नहीं अवकाश प्राप्त करने वालों की संख्या भी बढ़ गई थी। दिल्ली में इनके प्रति अवमानना का भाव देख-सुनकर मैंने लिखा था -''दिल्ली, बिहार का सबसे बड़ा शहर है।''तत्कालीन मुख्यमंत्री को सुझाव दिया था -''या तो बिहार से पलायन रोकें, या भूगोल की पुस्तक में लिखवा दें- ''दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद और अमृतसर 'बिहार' के बड़े शहर हैं।'' यह पाठ बचपन से पढ़ने वाला बिहारी देश के किसी भी कोने में जाकर सीना तानकर मेहनत करेगा, सिर झुकाकर नहीं, क्योंकि वह उस स्थान को भी अपना शहर मानेगा। मुख्यमंत्री पद ग्रहण करते हुए नीतीश कुमार ने यही कहा था- ''अब बिहार से बाहर भी 'बिहारी' सिर उठाकर जीएँगे।''
किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य-देश का समय एक-सा नहीं रहा। विकास का मुँह देखने को तरसती बिहार की धरती के हृदय में आस जगी। विकास, विहार करने लगा है। सड़क निर्माण और अन्य विकास के कार्य इतने बढ़े कि मजदूर कम पड़ गए। उस उम्र की महिला शिक्षिकाओं तक की बहाली हुई है, जिन्हें सरकार को प्रसूति अवकाश नहीं देने पड़ेंगे। और भी कई अद्भुत कदम उठाए हैं सरकार ने। मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायक ही नहीं, जनता भी विकास के लिए कमर कसकर तैयार हो गई। तीन वर्षों में कई आपदाएँ आईं। सरकार, समाज की सहायता से उबरने में कामयाब हुई है। कानून व्यवस्था सुधरी है। बिहार से होकर गुजरने वाली गाड़ियों पर चढ़ने से दूसरे राज्य के लोग अब भय नहीं खाते।
दरअसल, विकास कितना हुआ, सवाल नहीं है। विकास का मन और वातावरण बनना भी बड़ी बात है। तीन वर्षों के विकास की गिनती कराने के लिए सरकार की झोली में अब बहुत कुछ है। बचपन में हम एक बक्से में छोटे शीशे से झाँकते थे, उसके अंदर कई तस्वीरें होती थीं। बाइस्कोप दिखाने वाले को तस्वीरों का क्रम मालूम होता था। वह बोलता जाता था-''दिल्ली का कुतुबमीनार देखो, पटना का गोलघर देखो, नौ मन की बुलाकी देखो- देखो जी देखो बाइस्कोप देखो।'' बिहार सरकार 24 नवंबर को फिर बाइस्कोप ही दिखाएगी। सड़कों का निर्माण, तालाबों का जीर्णोद्धार,

गीली मिट्टी से मूर्ति बनाना कठिन काम होता है, परंतु टूटी हुई मूर्ति की मिट्टी से मूर्ति बनाना कठिनतर, चाहे वह कच्ची ही मिट्टी क्यों न हो। रोटी बनाते समय भी ऐसा ही होता है। विकास को भूल जाने वाली धरती पर विकास का विहार करना ही बाइस्कोप दिखाने जैसा है

विद्यालय के भवनों का पुनर्निर्माण, डेढ़ लाख शिक्षकों की बहाली, महिलाओं के हाथ में 55 प्रतिशत पंचायतें, विश्वविद्यालयों की मंजूरी - ''देखो जी देखो -बाइस्कोप देखो। पटना का बाजार देखो, सीतामढ़ी का हाई-वे देखो जी देखो। आम, लीची, मखाना का व्यापार देखो, मछली पालन देखो।'' यह सब बाइस्कोप दिखाने जैसा ही होगा, क्योंकि जो भी विकास हुआ है, उसके बारे में बिहार और बिहार के बाहर के लोगों को अपेक्षा ही नहीं थी।

और बिहार ही नहीं, देश-विदेश की जनता देखेगी। बिहार से बाहर रहने वाले करोड़ों (देश-विदेश में) बिहारियों का सिर भी ऊँचा हुआ है। वे बिहार लौटते हैं। दूसरे राज्यों और अपने राज्य में विकास का अंतराल देखकर उनके मन में अपने प्रति ही हीनभावना का निर्माण होता था। अब जहाँ कहीं भी हैं, वे भी शान से कहते सुने जाते हैं -''देखो जी, देखो बाइस्कोप देखो...बिहार में विकास को विहार करते देखो।''
गीली मिट्टी से मूर्ति बनाना कठिन काम होता है, परंतु टूटी हुई मूर्ति की मिट्टी से मूर्ति बनाना कठिनतर, चाहे वह कच्ची ही मिट्टी क्यों न हो। रोटी बनाते समय भी ऐसा ही होता है। विकास को भूल जाने वाली धरती पर विकास का विहार करना ही बाइस्कोप दिखाने जैसा है। बाइस्कोप दिखाने वाला एक-दो तोले का नहीं, नौ मन की बुलाकी दिखाता था। अविश्वसनीय। आश्चर्यजनक, पर वह दिल्ली का कुतुबमीनार भी दिखाता था। हावड़ा का पुल भी दिखाता था। आश्चर्यजनक, पर सत्य। विश्वसनीय। बिहार के मुख्यमंत्री और उनकी पूरी टीम को बधाई। उन्होंने बाइस्कोप दिखाने के लिए अनेक चित्र एकत्र कर लिए हैं। विकास, बिहार में विहार कर रहा है। अभी बहुत कुछ करना बाकी है। विकास के औजारों की जंग छुड़ाना कठिनतर टास्क रहा है। जंग एक दिन में नहीं लगती। एक दिन में छूटती भी नहीं। अफसरों के खाली बैठे रहने का अभ्यास छुड़ाना होगा। जनता को विकास में भागीदार बनाना होगा।

2 comments:

Ranjan said...

Tyagi jee , Ham bhi BIHAR ke tyagi hain ;)

Noida Press Club said...

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