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आधुनिक युग में खड़ी बोली ने भी अपने उदय के साथ ही विदेशी प्रभुत्व के विरुद्ध शुरुआत से ही ऐसी चेतनता बरती थी। जब 'अन्य' का चेतना पर वज्राघात हुआ तो 'स्व' की पड़ताल भाषांतर भी संभव करती रही। यदि हमें वाकई स्वतंत्र होने के लिए संघर्ष करना है तो भाषा भी एक ऐसा प्रतीक बन जाती है, जिसमें विचार का वाल्केनो होता है। विदेशी 'अतिक्रमण' इस देश के लोकचित्त में कभी 'आगमन' की तरह स्वीकार नहीं गए हैं- जैसा कि आजकल भारतीय इतिहास की धर्मशालाई अन्वय करने को उत्सुक कुछ स्वनामधन्य इतिहासकार हमें सिखाने को आमादा हैं, बल्कि सच तो यह है कि उन्होंने जबर्दस्त अंतरमंथन पैदा किया है। भाषा और सृजन की दुनिया उसकी बराबर साक्षी रही है। जिस समय बाहर एक संग्राम चल रहा होता है तो भीतर भी एक संग्राम छिड़ जाता है।
सिर्फ आक्रांता और विजेता का ही साहित्य नहीं होता- भले ही रूडयार्ड किपलिंग जैसे कवि रानी विक्टोरिया की डायमंड जुबली पर 'द व्हाइट मैन्स बर्डन' जैसी कविताओं के जरिए 'हाफ-डेविल, हाफ-चाइल्ड' उपनिवेशित लोगों की मधुर तरीके से ऐसी-तैसी करते रहे, बल्कि इन हताश, पराजित और संघर्षरत लोगों का भी अपना साहित्य रहा है। जब वे नष्ट हो रहे थे, तब भी वे सृजन कर रहे थे। फिलिस व्हीटली अफ्रीका से दासी के रूप में खरीदी गई लड़की थी, लेकिन 1773 में प्रकाशित उसकी कविताएँ गुलामी के विरुद्ध अपनी तरह का चीत्कार हैं। गुलामी के जो नए प्रकार आज उभरे हैं। क्या उनका चित्र 'द ब्यूटीफुल आर नॉट बट बार्न' जैसे अफ्रीकी उपन्यास नहीं खींचते? सृजन का संग्राम भी लगभग समानान्तर चलता ही रहता है।यह वर्ष जो कि 1857 का डेढ़ सौवाँ वर्ष है, क्या इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित करेगा कि 'सृजन' का औपनिवेशिक हितों में विनियोग साम्राज्यवादी ताकतों ने कैसे किया होगा? कैसे गुलाम बनाए गए लोगों के अनुभव और यथार्थों को निरूपित करने के लिए साहित्य की सेवाएँ ली गई होंगी? जब अँगरेज भारत आए तो भारत ने उनके जैसा कोई ऐसा राष्ट्र नहीं था, जो किसी सम्राट या अन्य प्राधिकारी से उद्भुत होता हो। भारत में तब भी जो 'राष्ट्र' था वह इसकी भाषा, संस्कृति, प्रथाएँ, परंपराओं में अपना विकीरण प्रसारित करता था।राष्ट्र के वे अदृश्य सूत्रबंध अँगरेजों को नैतिक और सतह सीमित आँखों को अनुपलब्ध थे, लेकिन दृष्टि सीमा को उन्होंने चतुराई से एक ऐसा भारत भार बना दिया, जहाँ एक गुलाम राष्ट्र को भविष्य में इसके लिए विदेशियों का शाश्वत आभारी होना था कि उन्होंने उसे राष्ट्रीयता बख्शी, लेकिन उनके सिखाए-पढ़ाए बिना वह कौन सृजता था, जो भारतीय दुर्दशा पर लिख रहा था? वह क्या कालपुरुष का ही कोई संयोजक था कि भारतेंदु ने भारत की बात शुरू की।
जिस तरह से बेल्जियम क्रांति ऑबेर के la muette de portici नामक उस ओपेरा के बाद हुए दंगे से फूट निकली, जिसमें विदेशी दमन की पृष्ठभूमि में पनपे एक दुखांत प्रेम की कथा है, उसी तरह भारतेंदु के नाटकों में विदेशी दमन के विरुद्ध संघर्ष की एक पृष्ठभूमि बराबर मिलती है, जिसने भारत में राष्ट्रीयता को संरक्षित-सिंचित किया। चाहे 'अँधेर नगरी चौपट राजा' का लोकप्रिय मेटाफर हो, चाहे पगड़ी संभाल जट्टा, का रुपक हो, चाहे बसंती चोले को रंगने की बात हो, राष्ट्रीय लोक विश्वासों की रचनात्मकता में प्रतीकायित होती रही।
जिस तरह से कविता प्रतीकों और बिम्बों का इस्तेमाल करती है, क्रांति ने भी रोटी व कमल के प्रतीकों/बिम्बों का इस्तेमाल किया। जिस तरह से जर्मनी में ब्रदर्स ग्रिम ने लोक वृत्तांतों के संकलन के जरिए एक रोमांटिक राष्ट्रवाद को प्रेरित किया, उसी तरह से भारत में हिन्दी लोक भाषा होने से इस राष्ट्र की वाहिका बन गई। संस्कृति में निहित राष्ट्रीयता के सृजनात्मक सम्प्रेरकों को अँगरेज वैसे ही नहीं समझ पाए, जैसे वे रोटी और कमल को नहीं समझ पाए। उनके दिमाग में 'पैट्रिअटिज्म' का जो खाका था, वह पैट्रि या पिता के रूप में देश को देखता था, लेकिन भारत की भारती तो एक देवी थी।उस राष्ट्रमाता के अभिप्राय अँगेजों को तब तक समझ नहीं आए, जब तक 'वंदे मातरम्' के जयोद्घोष ने उन्हें झिंझोड़कर नहीं रख दिया। राष्ट्रवाद संग्राम के कोरिलेट्स में से है, यह बात आज तक के विश्व मूल्य सर्वेक्षणों से सिद्ध होती है, लेकिन भारत की मातृसांस्थानिक राष्ट्रीयता उन विशिष्ट संकुचित वरीयताओं से कभी नहीं निर्मित हुई, बल्कि उसकी हमेशा से कुछ यूनिवर्सलिस्ट आस्थाएँ रहीं। अरुण यह मधुमय देश हमारा के भारत को देखें या कनक शस्य कमल धरे वाली भारती को देखें, जिससे ध्वनित दिशाएँ उदार होती हैं। ये राष्ट्रीयताएँ कहीं भी संकीर्ण और परपीड़क नहीं हैं।
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