rashtrya ujala

Wednesday, October 22, 2008

संग्राम और सृजन

शौर्य निर्भीकता, संकल्प, साहस, आत्म-आश्वस्ति, शरीर और मन के कौशलों का स्थायी भाव है, लेकिन यह सिर्फ योद्धाओं के लिए जरूरी नहीं है, यह सिर्फ साधकों के लिए ही अपरिहार्य नहीं है, बल्कि पूरे 'लोक' के लिए जरूरी है। सिर्फ साधारणीकरण के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई कोई सैन्य विषय नहीं है- वह जनता के बीच की चीज है। वीर रस का कोष काव्यशास्त्रियों के अनुसार 'विज्ञानमयी कोष' है, क्योंकि शौर्य को सुस्थिर होने के लिए भावना की नहीं, विज्ञान की आवश्यकता है।

1857 में हुआ स्वतंत्रता संग्राम 10 मई 2008 को अपने 151 वर्ष पूरे कर रहा है, उस पर विशेष आलेख

यह विज्ञानमयी कोष अहंता के पुराने अर्थों में नहीं, बल्कि अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध विशिष्ट सजगता और साधन संपन्नता के अर्थों में वीरता का पोषण करता है। वीर रस का प्रभावी तत्व काव्यशास्त्रों में 'जल' बताया गया है। यदि वीरता कोई संग्राम है तो वह संग्राम रक्त होने से कहीं पहले 'जल' होकर ही सार्थक हो सकता है। पहले लोक के प्रति अन्याय की अनूभूति से हृदय का 'द्रवण' जरूरी है। पहले इस बात से पानी-पानी होना प़ड़ता है कि जब यह सब अन्याय और अतिचार चल रहा है, हम मूक दर्शक बने बैठे हैं। वीरता तब ही है जब लोक भी सिर्फ साक्षी होने की भूमिका से इंकार करें। शामिल हों।



संग्राम हिन्दी के जीन्स में है। यह क्या आकस्मिक ही था कि हिन्दी साहित्य की शुरुआत ही वीरगाथाकाल से हुई? जैसे जापान में 'कोजिकी' ग्रंथ एक शुरुआत है, जिसमें साहित्यिक व मार्शल दोनों कलाओं का सुष्ठू समन्वय है, वैसे ही इस वीरगाथाकाल में हिन्दी के भीतर ऐसे कई ग्रंथ देखे गए कि हिन्दी की जन्मघुट्टी में ही वीरत्व का भाव मिला हुआ था? कि जब तक देश में एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समरसता रही, संस्कृत अपने दायित्वों का निर्वहन करती रही, लेकिन जब देश पर गजनी-गौरी के आक्रमण प्रबल हुए तो हिन्दी सृजन और संघर्ष की, तनावों और द्वन्द्वों की प्रामाणिक भाषा बनकर उभरी? रस का रासों में बदलना एक साधारण घटना नहीं थी।वह एक तरह से वैसा ही volkstum था- वैसा ही फॉकहुड- जैसा फ्रांसीसी प्रभुता के खिलाफ जर्मनी में एक समय जन्मा था।

जर्मनी द्वारा अँगरेजों पर आक्रमण को लेकर 1871 में लिखी गई कहानी द बैटल ऑफ डारकिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि विदेशी आक्रमणों को लेकर कहानियाँ-उपन्यास लिखने का एक साहित्यिक क्रेज पैदा हो गया और 1914 तक चार सौ ऐसी किताबें सामने आ गईं।

हिन्दी कोई भाट-भाषा के जन्म-चिन्ह लेकर नहीं आई, यह संग्रामों के बीच पनपी। जब विदेशी आक्रमण प्रबल हुए तो वे कोई सामन्ती सत्ता परिवर्तन नहीं कर रहे थे, वे भारत के 'लोक' को भी प्रभावित कर रहे थे। उसी 'लोक' को, जिसके बारे में यह भ्रान्ति फैलाई गई कि वह सत्ता-समीकरणों से पूर्णतः निरपेक्ष होकर अपनी पंचायती रिपब्लिक में निमग्न रहता था। यह लोक गाफिल नहीं था- इसने अभिव्यक्ति के नए माध्यम के रूप में हिन्दी को चुना। यह भाषान्तर इस बात को रेखांकित करते हुए संभव हुआ कि शौर्य जब एक नैतिक प्रणाली (एथिकल सिस्टम) के रूप में स्थापित हो रहा था, तो उसे अपनी वैधता (लेजिटिमेसी) के स्थापन के लिए लोक की संस्वीकृति की मुहर जरूरी थी। यह 'विदेशी' के विरुद्ध खाटी 'स्वदेशिता' थी। एकदम जमीनी।

आधुनिक युग में खड़ी बोली ने भी अपने उदय के साथ ही विदेशी प्रभुत्व के विरुद्ध शुरुआत से ही ऐसी चेतनता बरती थी। जब 'अन्य' का चेतना पर वज्राघात हुआ तो 'स्व' की पड़ताल भाषांतर भी संभव करती रही। यदि हमें वाकई स्वतंत्र होने के लिए संघर्ष करना है तो भाषा भी एक ऐसा प्रतीक बन जाती है, जिसमें विचार का वाल्केनो होता है। विदेशी 'अतिक्रमण' इस देश के लोकचित्त में कभी 'आगमन' की तरह स्वीकार नहीं गए हैं- जैसा कि आजकल भारतीय इतिहास की धर्मशालाई अन्वय करने को उत्सुक कुछ स्वनामधन्य इतिहासकार हमें सिखाने को आमादा हैं, बल्कि सच तो यह है कि उन्होंने जबर्दस्त अंतरमंथन पैदा किया है। भाषा और सृजन की दुनिया उसकी बराबर साक्षी रही है। जिस समय बाहर एक संग्राम चल रहा होता है तो भीतर भी एक संग्राम छिड़ जाता है।


कविता या कला उस भीतरी संग्राम की साक्षी होती है। जब हेड्रियन की दीवार आक्रमणों से टूटती है या चीन की ग्रेट वॉल, तो साहित्य अपनी तरह से एक फोर्टिफिकेशन करता है कि कविता जो जोड़ने का काम करती है, स्वयं एक ऐसा युद्धास्त्र हो जाती है जो कैमरा भी है और मोशन-सेंसिटिव सेंसर भी। जर्मनी द्वारा अँगरेजों पर आक्रमण को लेकर 1871 में लिखी गई कहानी द बैटल ऑफ डारकिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि विदेशी आक्रमणों को लेकर कहानियाँ-उपन्यास लिखने का एक साहित्यिक क्रेज पैदा हो गया और 1914 तक चार सौ ऐसी किताबें सामने आ गईं।

सिर्फ आक्रांता और विजेता का ही साहित्य नहीं होता- भले ही रूडयार्ड किपलिंग जैसे कवि रानी विक्टोरिया की डायमंड जुबली पर 'द व्हाइट मैन्स बर्डन' जैसी कविताओं के जरिए 'हाफ-डेविल, हाफ-चाइल्ड' उपनिवेशित लोगों की मधुर तरीके से ऐसी-तैसी करते रहे, बल्कि इन हताश, पराजित और संघर्षरत लोगों का भी अपना साहित्य रहा है। जब वे नष्ट हो रहे थे, तब भी वे सृजन कर रहे थे। फिलिस व्हीटली अफ्रीका से दासी के रूप में खरीदी गई लड़की थी, लेकिन 1773 में प्रकाशित उसकी कविताएँ गुलामी के विरुद्ध अपनी तरह का चीत्कार हैं। गुलामी के जो नए प्रकार आज उभरे हैं। क्या उनका चित्र 'द ब्यूटीफुल आर नॉट बट बार्न' जैसे अफ्रीकी उपन्यास नहीं खींचते? सृजन का संग्राम भी लगभग समानान्तर चलता ही रहता है।यह वर्ष जो कि 1857 का डेढ़ सौवाँ वर्ष है, क्या इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित करेगा कि 'सृजन' का औपनिवेशिक हितों में विनियोग साम्राज्यवादी ताकतों ने कैसे किया होगा? कैसे गुलाम बनाए गए लोगों के अनुभव और यथार्थों को निरूपित करने के लिए साहित्य की सेवाएँ ली गई होंगी? जब अँगरेज भारत आए तो भारत ने उनके जैसा कोई ऐसा राष्ट्र नहीं था, जो किसी सम्राट या अन्य प्राधिकारी से उद्भुत होता हो। भारत में तब भी जो 'राष्ट्र' था वह इसकी भाषा, संस्कृति, प्रथाएँ, परंपराओं में अपना विकीरण प्रसारित करता था।राष्ट्र के वे अदृश्य सूत्रबंध अँगरेजों को नैतिक और सतह सीमित आँखों को अनुपलब्ध थे, लेकिन दृष्टि सीमा को उन्होंने चतुराई से एक ऐसा भारत भार बना दिया, जहाँ एक गुलाम राष्ट्र को भविष्य में इसके लिए विदेशियों का शाश्वत आभारी होना था कि उन्होंने उसे राष्ट्रीयता बख्शी, लेकिन उनके सिखाए-पढ़ाए बिना वह कौन सृजता था, जो भारतीय दुर्दशा पर लिख रहा था? वह क्या कालपुरुष का ही कोई संयोजक था कि भारतेंदु ने भारत की बात शुरू की।
जिस तरह से बेल्जियम क्रांति ऑबेर के la muette de portici नामक उस ओपेरा के बाद हुए दंगे से फूट निकली, जिसमें विदेशी दमन की पृष्ठभूमि में पनपे एक दुखांत प्रेम की कथा है, उसी तरह भारतेंदु के नाटकों में विदेशी दमन के विरुद्ध संघर्ष की एक पृष्ठभूमि बराबर मिलती है, जिसने भारत में राष्ट्रीयता को संरक्षित-सिंचित किया। चाहे 'अँधेर नगरी चौपट राजा' का लोकप्रिय मेटाफर हो, चाहे पगड़ी संभाल जट्टा, का रुपक हो, चाहे बसंती चोले को रंगने की बात हो, राष्ट्रीय लोक विश्वासों की रचनात्मकता में प्रतीकायित होती रही।
जिस तरह से कविता प्रतीकों और बिम्बों का इस्तेमाल करती है, क्रांति ने भी रोटी व कमल के प्रतीकों/बिम्बों का इस्तेमाल किया। जिस तरह से जर्मनी में ब्रदर्स ग्रिम ने लोक वृत्तांतों के संकलन के जरिए एक रोमांटिक राष्ट्रवाद को प्रेरित किया, उसी तरह से भारत में हिन्दी लोक भाषा होने से इस राष्ट्र की वाहिका बन गई। संस्कृति में निहित राष्ट्रीयता के सृजनात्मक सम्प्रेरकों को अँगरेज वैसे ही नहीं समझ पाए, जैसे वे रोटी और कमल को नहीं समझ पाए। उनके दिमाग में 'पैट्रिअटिज्म' का जो खाका था, वह पैट्रि या पिता के रूप में देश को देखता था, लेकिन भारत की भारती तो एक देवी थी।उस राष्ट्रमाता के अभिप्राय अँगेजों को तब तक समझ नहीं आए, जब तक 'वंदे मातरम्‌' के जयोद्घोष ने उन्हें झिंझोड़कर नहीं रख दिया। राष्ट्रवाद संग्राम के कोरिलेट्स में से है, यह बात आज तक के विश्व मूल्य सर्वेक्षणों से सिद्ध होती है, लेकिन भारत की मातृसांस्थानिक राष्ट्रीयता उन विशिष्ट संकुचित वरीयताओं से कभी नहीं निर्मित हुई, बल्कि उसकी हमेशा से कुछ यूनिवर्सलिस्ट आस्थाएँ रहीं। अरुण यह मधुमय देश हमारा के भारत को देखें या कनक शस्य कमल धरे वाली भारती को देखें, जिससे ध्वनित दिशाएँ उदार होती हैं। ये राष्ट्रीयताएँ कहीं भी संकीर्ण और परपीड़क नहीं हैं।

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