इस किस्से में ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर वह आदमी नदी में थोड़ा ऊपर की
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पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने पाया कि अचानक उनका मुल्क युद्ध की आग में घिर गया है। पाकिस्तान के आदिवासी इलाकों में सशस्त्र सेनाएँ एक अनजान दुश्मन से जूझ रही हैं। अगर यह अनजानी आफत तालिबान है तो इसका मतलब हुआ कि यह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों, नीति नियंताओं और विश्लेषकों की उस डॉक्टराइन से अलग दावा है जिसके आधार पर पहले वे इस अनजाने शत्रु का समर्थन करते थे। लेकिन यहाँ यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण होगा कि वे चांद से तो नहीं उतरे हैं। किसी न किसी ने उन्हें खड़ा किया है। और जिसने तालिबान को खड़ा किया है उसी ने लश्कर के लिए भी जमीन तैयार की है।
चाहे वह लश्करे झांगवी हो, लश्करे तैयबा या फिर कितने ही मुजाहिदीन गुट। एक दौर वह था जब हमारे रणनीतिकार उल्लासोन्माद में मध्य एशिया, चीन और भारत के प्रभाव वाले हिस्सों के बारे में बातें किया करते थे। मगर अब वे कहीं नजर नहीं आते। लगता है अब वे नीतिकार कहीं किसी अनजान ठिकाने पर अपने निजी सुरक्षाकर्मियों के घेरे में छुपे बैठे हैं। भले ही वे यूरोप में अपनी छुट्टियाँ बिता रहे हों या फिर अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय में फैलोशिप कर रहे हों लेकिन आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का शिकार गरीब और अनजान महिलाएँ, बच्चे और शरणार्थी शिविरों में रहने वाले लोग ही हो रहे हैं। वे अपने घर लौटने की आस लगाए बैठे हैं पर साथ ही यह आशंका भी है कि पता नहीं अब उनका घर बचा भी होगा?
इस बीच, हमारी सेना, जो कि विश्व की सातवीं सबसे बड़ी सेना है, मुट्ठी भर अनपढ़ मौलवियों के खिलाफ उठ खड़ी हुई है। इन मौलवियों ने शायद किसी कॉलेज के भीतर कदम न रखा हो, रक्षा नीतियों की तालीम न ली हो, नेशनल डिफेंस कॉलेज के दर्शन न किए हों और न ही अमेरिका और इंग्लैंड के वॉर ऑफ स्कूल्स के बारे में पता हो। लेकिन पाकिस्तानी की सेना ने इन मौलवियों से लड़ाई के लिए अपने टैंक, एफ-16 लड़ाकू जहाज और हेलिकॉप्टर निकाल लिए हैं। पर फिर भी ये अनपढ़ लड़ाके सेना के लिए चुनौती बने हुए हैं। यहाँ तक कि अमेरिका भी अपने अत्याधुनिक हथियारों से इन पर काबू पाने में नाकाम रहा है।
हम इन मौलवियों का वणर्न तालिबान के रूप में करते हैं और मानते हैं कि इनके पास
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इसके साथ ही यह भी सच है कि इन्होंने जमीन के एक बड़े हिस्से पर कब्जा जमा रखा है जहाँ से ये अपनी एक समानांतर सरकार चलाते हैं। इस सरकार की इसलाम और इसलामी कानूनों की अपनी व्याख्याएँ हैं। अपने ही मुल्क के खिलाफ युद्ध का उनका तरीका यह है कि वे सशस्त्र सेनाओं समेत जनता में डर पैदा करते हैं और एक हद तक वे इसमें कामयाब भी हुए हैं। आज शायद ही ऐसा कोई पाकिस्तानी हो जिसे राह चलते बम फटने का डर न लगता हो, खासकर बड़े शहरों में।
हालत यह है कि अगर ड्यूटी पर न हों तो पुलिस, सेना के जवान और कानून-व्यवस्था से जुड़ी अन्य एजेंसियों के लोग वर्दी पहनने तक से कतराते हैं। सबसे बुरी और महत्वपूर्ण बात यह है कि बहुत से सैनिक तालिबान से सहानुभूति रखते हैं। अभी देश में जो कुछ भी चल रहा है उससे न तो आम जनता खुश है और न ही सेना के लोग। देश के अधिकांश लोग इस संघर्ष को बुश की 'मुसलमानों के खिलाफ लड़ाई' मान रहे हैं न कि आतंकवादियों के खिलाफ जंग।
मैरिओट होटल पर जो हमला हुआ उससे इस अनजाने शत्रु की कुछ पहचान जरूर उजागर हुई है, कुछ चीजें साफ हुई हैं। लेकिन ऐसे हमले अपवाद हैं। तालिबान कानून व्यवस्था से जुड़े प्रतिष्ठानों को अपना निशाना बना रहा है ताकि उनमें भय पैदा किया जा सके।
दुर्भाग्य से इस दोहरे नुकसान और दुविधापूर्ण स्थिति से निपटने की कोई कारगर नीति सरकार नहीं बना सकी है। दरअसल, कोई भी नीति तभी कारगर साबित होती है जब देश उसका समर्थन करता है, अन्यथा वह बेकार साबित हो जाती है। लेकिन सबसे पहले जरूरी यह है कि दुश्मन की पहचान की जाए। पर चूँकि दुश्मन की पहचान नहीं हो सकी है इसीलिए जन-सामान्य को मान्य किसी भी तरह की नीति बना पाने में सरकार अब तक नाकाम ही रही है। नदी से जान बचाने वाला उदाहरण यहां काम करता है कि पहले सरकार आगे कदम बढ़ाकर यह पता लगाए कि आखिर ये तालिबान आ कहाँ से रहे हैं।
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