rashtrya ujala

Saturday, October 18, 2008

सफर में धूप तो होगी...

अभी कुछ दिनों पहले एक खबर पढ़ने में आई कि आई-यूरो-2008 फुटबॉल टूर्नामेंट के महत्व को रेखांकित करने के लिए ऑस्ट्रिया के फोटोग्राफर ने एक हजार आठ सौ चालीस लोगों की एक साथ पूर्णतयाः नग्नावस्था में फुटबॉल के साथ तस्वीरें खींचीं। इसके पूर्व भी जर्मनी के एक विशेष विमान में सिर्फ नग्नावस्था में लोगों को बैठाने का रिकॉर्ड बनाया गया था। आजकल कुछ इन्हीं तरीकों के रिकॉर्ड बनाने का चलन-सा चल पड़ा है।


यह सच है कि आदिम सभ्यता में इनसान नग्न रहता था, पेड़ों पर निवास करता था, पर वह 'आदिम' सभ्यता थी। उससे विकास कर आज हम 'आदमी' सभ्यता में पहुँच गए हैं। फिर भी उस 'आदिम' सभ्यता ने आज की इक्कीसवीं सदी की 'आदमी' सभ्यता के समक्ष कई प्रश्न उठा दिए हैं। ऑस्ट्रिया के फोटोग्राफर या उससे पहले जर्मनी के विमानों में नग्न लोगों की बरात का जो कुछ भी जिस भी उद्देश्य से किया गया, उसे कुछ अराजक तत्वों की कारस्तानी कहकर बिलकुल छोड़ा नहीं जा सकता।
वास्तव में यूरोप में काफी समृद्धशाली लोग रहते हैं और वहाँ 'नग्नता' को ईमानदारी और खुलेपन का पर्यायवाची माना जाता है। वहाँ का दर्शन कहता है कि संसार में यदि कुछ पवित्र है, यदि कुछ आजाद है, तो वह है शरीर। यदि कुछ शाश्वत है, कुछ सत्य है, तो वह है देह। पर हमारे यहाँ, जहाँ श्लील-अश्लील, नैतिक-अनैतिक आचरण की कसौटी हमारा विवेक और हमारी बौद्धिकता है, का दर्शन कुछ अलग है।
बारहवीं शताब्दी की शुरुआत से ही नग्नता के पैरोकारों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि उनकी जीवनशैली इनसान को प्रकृति के ज्यादा करीब ले जाती है। उन्होंने अपनी इस प्रवृत्ति को एक विचार के रूप में फैलाना शुरू कर दिया और तर्क दिया कि उनके यहाँ की जीवनशैली समानता के उसूलों से प्रेरित है। लेकिन हम जिस समाज में रहते हैं या हमारी जो जीवन पद्धति है, उनमें इन तर्कों और विचारों की कोई जगह नहीं है। हमारे यहाँ की आवश्यकताएँ बहुत ही अलग तरीके की हैं।
हमारे यहाँ बुनियादी मानवीय जरूरतों के लिए शरीर का शोषण बहुत आसान है। यूरोप के समृद्धशाली देशों में भूख और गरीबी की कोई जगह नहीं है, इसलिए वहाँ देह की आजादी सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों के समर्थन-विरोध का एक शस्त्र या हथियार बन सकती है, पर हमारे यहाँ की स्थिति बिलकुल अलग है। हमारे दर्शन, हमारे इतिहास और अध्यात्म में एक आवरणहीन जीवन की कल्पना की गई है, पर उन्हीं कल्पनाओं के जरिये हमने अपनी जीवन पद्धति को चुना है। इसलिए हमारे यहाँ जब किसी अन्याय या अत्याचार के विरुद्ध कोई आवरणहीन या वस्त्रहीन प्रदर्शन करता है, तो एक तरफ तो उसकी पीड़ा को मापना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाता है और दूसरी ओर हम उसके दुस्साहस की आलोचना करने से भी नहीं चूकते। ऐसे में यदि हमारे यहाँ के जीवन मूल्यों में नग्नता की सेंध लगती है तो वह ऐसा भयानक परिदृश्य होगा जिसकी कल्पना करना हमारे लिए न तो आसान है और न ही हमारे वश में। हमारे यहाँ का दर्शन, पश्चिम के उस दर्शन, जिसमें कहा गया है कि शरीर ही सबसे पवित्र है, से सहमत होते हुए भी शरीर की आजादी को रिश्तों के घेरों से अलग नहीं कर सकता। हमारे यहाँ का दर्शन तो कुछ अलग ही बयान करता है। हम किसी चीज का विरोध तो नहीं करते पर उसे मापने की हमारी एक अलग ही कसौटी है। और वह कसौटी किसी की कही हुई यह पंक्तियाँ हो सकती हैं-
सफर में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में, तुम निकल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम सँभल सको, तो चलो।

No comments: