rashtrya ujala

Sunday, October 5, 2008

न्यायाधीश और न्यायदान के आदर्श

- रमेशचन्द्र लाहोटी
जो 'दूध का दूध, पानी का पानी' करे सो न्याय है। न्याय पाना मानव का मूलभूत नैसर्गिक अधिकार है। न्यायदान शासन का कर्तव्य है, यह नागरिक के द्वारा माँगी जाने वाली कृपा या भीख नहीं है। जिस समाज में प्राणीमात्र को न्याय नहीं मिल सकता उस समाज में स्वतंत्रता और स्वाधीनता जैसे सिद्धांतों की चर्चा करना निरर्थक है। सभ्यता और शिष्टता न्यायविहीन समाज में जीवित नहीं रह सकते। भारतीय संविधान में देश के प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने का वादा किया गया है।
न्याय की इस विशद परिकल्पना को मूर्तरूप देना शासन का कर्तव्य है और शासन को अपने आधारभूत कर्र्तव्य का स्मरण दिलाते रहना, बल्कि उसे अपने कर्तव्य पालन के लिए विवश करते रहने का दायित्व भारतीय संविधान ने न्यायपालिका को सौंपा है। प्रत्येक न्यायाधीश को अपने प्राथमिक कर्तव्य का स्मरण रखते हुए अपने कार्य का संपादन और उत्तरदायित्व का निर्वहन करना चाहिए। न्यायाधीश को अपने कर्तव्य पथ से किंचित मात्र भी विचलित नहीं होना चाहिए। न्याय के पथ पर आरूढ़ न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों की आध्यात्मिक अर्थ में अभिव्यक्ति खलील जिब्रान ने बहुत सुंदर शब्दों (जीवन-संदेश पृष्ठ 52) में की है । वे लिखते हैं-
और न्यायप्रिय न्यायाधीशों!
तुम उसे क्या सजा दोगे जो ईमानदार है लेकिन मन से चोर है? और तुम उस व्यक्ति को क्या दंड दोगे जो देह की हत्या करता है लेकिन जिसकी अपनी आत्मा का हनन किया गया है? और उस पर तुम मुकदमा कैसे चलाओगे जो आचरण में धोखेबाज और जालिम है लेकिन जो खुद संत्रस्त और अत्याचार-पीड़ित है? और तुम उन्हें कैसे सजा दोगे जिनका पश्चाताप उनके दृष्कृत्यों से अधिक है? और क्या यह पश्चाताप ही उस कानून का न्याय नहीं है जिसका पालन करने का प्रयास तुम भी करते हो? मान्यता है कि गंगा में डुबकी लगाकर मनुष्य के पाप तिरोहित हो जाते हैं। गंगा स्नान करके पापी भी पवित्र जीवन का आरंभ कर सकता है। किंतु कोई गंगा के जल में बैठकर ही पाप करे तो? न्यायालय को 'न्याय-मंदर' भी कहा जाता है।
न्यायाधीश न्याय की देवी का पुजारी, आराधक और साधक है। उसका चिंतन, आचरण और कृति जिस आसन पर वह बैठता है उसके आदर्श और अपेक्षाओं के अनुरूप होना ही उसे न्यायाधीश का बाना पहनने को अधिकारी पात्र बनाता है। इसीलिए न्यायाधीश का उद्देश्य, आचरण और कार्यशैली सभी उत्कृष्ट होना चाहिए। नीतिशास्त्र कहता है कि मूर्ख, व्यसनी, लोभी, प्रगल्भ, भीरू, क्रूर, अन्यायी- ऐसा न्यायाधीश नहीं होना चाहिए। ये सभी दुर्गुण न्यायाधीश के लिए त्याज्य और वर्जित हैं। जिस व्यक्ति में इनमें से कोई भी लक्षण है वह न्यायाधीश का पद धारण करने योग्य नहीं है। विलक्षण दार्शनिक विद्वान सुकरात ने, न्यायाधीश के चार आदर्श लक्षण बताए हैं- शिष्टतापूर्वक सुनना, बुद्धिमत्तापूर्वक उत्तर देना, गंभीरतापूर्वक विचार करना तथा निष्पक्षतापूर्वक निर्णय देना। इन चार लक्षणों से युक्त न्यायाधीश निर्भीक और क्षुद्रताओं से ऊपर उठ जाता है।
महात्मा गाँधी ने एक लक्ष्य निर्धारित किया और उसे एक आदर्श के रूप में अपने सम्मुख रखा। उनके अनुसार न केवल उद्देश्य बल्कि उसके पाने का मार्ग और उपाय भी आदर्श हों। आदर्श उपायों से अनादर्श और अनादर्श उपायों से आदर्श की प्राप्ति निंदनीय और त्याज्य हैं। दोनों में समाधानविहीन विरोधाभास है। आदर्श न्यायाधीश सांसारिक न्याय के आदर्श का पालन करता रहे तो उसके हाथों से किया गया न्यायदान दिव्यता की ओर उन्मुख होने लगता है। ऐसे न्यायाधीश के न्यायासन पर आसीन होने और तपस्वी के तप में कोई अंतर नहीं होता है।
रामचरित मानस के दो प्रसंगों के परिप्रेक्ष्य में एक जिज्ञासु ने मानस के विद्वान से प्रश्न पूछा। जयंत ने तो सीता के पैर पर चोंच से प्रहार किया था। उसने सीता को चोट पहुँचाई, शारीरिक कष्ट दिया किंतु भगवान राम ने उसे केवल एक आँख लेकर छोड़ दिया। दूसरी ओर, रावण ने सीता का अपहरण तो किया किंतु लंका के सर्वोत्तम और सुंदर उपवन में स्त्री-रक्षकों की निगरानी में रखा। रावण ने सीता से अनुनय-विनय तो की, प्रलोभन भी दिए किंतु अपनी बात मनवाने के लिए कभी भी बल का प्रयोग नहीं किया। फिर भी भगवान राम ने उसके प्राण ले लिए।
जयंत को केवल दंड किंतु रावण को प्राणदंड, जबकि जयंत का अपराध अधिक गंभीर था। ऐसा क्यों? विद्वान ने उत्तर दिया कि जयंत ने कौवे का वेष धारण कर सीता पर चोंच का प्रहार किया जो कौवे का स्वभाव है किंतु रावण ने साधु का वेष धारण कर सीता का अपहरण किया और इस प्रकार साधु के वेष की मर्यादा का उल्लंघन किया। रावण का अपराध बड़ा है, जयंत का अपेक्षाकृत छोटा। इसलिए रावण को कठोर दंड मिला, जयंत को एक प्रकार की चेतावनी भर मिली।
सार यह है कि साधारण सांसारिक प्राणी का नैतिकता एवं उत्कृष्ट आचरण के पथ से यत्किंचित विलग हो जाना उतना गंभीर नहीं है जितना एक न्यायाधीश का बाना पहनने वाले व्यक्ति का विलग या विचलित हो जाना। न्यायालय कक्ष के अंदर और न्यायालय कक्ष के बाहर, वह जहाँ भी हो, अपने घर में भी आदर्श के उच्च मानदंडों का पालन और अनुसरण उससे अपेक्षित है। यदि अपने आचरण, व्यवहार और वाणी से वह किसी भी आदर्श का उल्लंघन करता है अथवा अनैतिक आचरण करता है तो वह समाज और संविधान के प्रति उत्तरदायी है। एतदर्थ, अनुभव और व्यावहारिक कठिनाइयाँ यह दर्शाती हैं कि न्यायाधीश पर महाभियोग की कार्रवाई कर, मात्र उसके पद से उसे हटा देना कारगर उपाय नहीं है, महाभियोग से न्यून दंडित करने की व्यवस्था विधान में होनी चाहिए। परंतु ऐसी व्यवस्था और उससे संबद्ध प्रक्रिया में कोई भी बात ऐसी नहीं होनी चाहिए जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आँच आए।

No comments: