| |
ऐसे में जबकि सारी घटनाओं की न्यायिक जाँच जारी है, मीडिया या राजनीतिक दलों को क्या वास्तव में यह हक है कि वे किसी भी संगठन के खिलाफ 'सुप्रीम जज' की भूमिका अदा करें। खासकर उस स्थिति में तो बिलकुल नहीं, जब पुख्ता सबूत का अभाव हो। सवाल यह है कि आखिर मीडिया और राजनीतिक दलों का रुख एक ही मामले में वक्त के साथ बदल क्यों जाता है। क्यों किसी के दिमाग में उस वक्त बहस कराने का विचार नहीं आता, जब लालू यादव और रामविलास पासवान जैसे नेता सिमी को सांस्कृतिक संगठन करार देते हैं।दिल्ली बम विस्फोट में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्र आरोपी बनाए जाते हैं और देश के मानव संसाधन विकास मंत्री उन्हें कानूनी सहायता देने को उचित ठहराता है। उस वक्त मीडिया जनता की राय जानने क्यों नहीं जाता? क्यों सारे सामाजिक और गैर सामाजिक संगठन चुप्पी साध लेते हैं?अमरसिंह जैसे क्षेत्रीय नेता जिस बजरंग दल को सिमी से भी ज्यादा खतरनाक बताते हैं, उसी सिमी पर प्रतिबंध लगाने के लिए केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में दलीलें पेश कर रही है। जाहिर है सरकार की नजर में सिमी पाकसाफ नहीं है। फिर क्यों कभी प्रधानमंत्री या सोनिया गाँधी अपने सहयोगियों को इस तरह की बयानबाजी करने पर फटकार नहीं लगाते?अमरसिंह तो देश की खातिर कुर्बान होने वाले पुलिस अधिकारी एएमसी शर्मा की शहादत को भी शक की निगाहों से देख चुके हैं। क्या मीडिया ने इस सपा नेता को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की, उस वक्त भी जब गृह मंत्रालय खुद यह साफ कर चुका था कि शहीद शर्मा की मौत फर्जी मुठभेड़ में नहीं हुई। सिमी जैसे संगठनों का दामन तो देश के सैकड़ों बेगुनाह लोगों के खून से रंगा है, फिर उसके हक में बोलने वाले नेताओं पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाना चाहिए। कैसी शर्मनाक हकीकत है कि जिन सिमी सरगनाओं को गिरफ्तार कर पुलिस और सुरक्षा एजेंसियाँ अपनी पीठ थपथपाते फिरती हैं, उनकी धरपकड़ को बड़ी कामयाबी के रूप में आँकती है, वहीं देश के कर्णधार इन्हीं आतंकियों की पैरवी करते नहीं थकते।अतीत में ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जब वोटबैंक की राजनीति में अंधी राजनीतिक पार्टियों ने क्षणिक लाभ के लिए देश हितों को तिलांजलि दी है।
...लेकिन न तो मीडिया को कभी इनके गिरेबाँ गंदे दिखे और न ही सरकार को। आखिर क्यों...? यहाँ यह उल्लेख करना भी मौजूँ रहेगा कि जो केंद्र सरकार अब तक आतंकवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने के दावे करती रही, उसने पहले राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में इसे शामिल करना भी मुनासिब नहीं समझा। वह तो भाजपा और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के विरोध के बाद उसे मजबूरी में आतंकवाद को अपने एजेंडे में जगह देना पड़ी।
यह दीगर बात है कि बैठक में अल्पसंख्यकों की आर्थिक स्थिति और उनसे जुड़े कई अन्य मुद्दों पर प्रमुखता से विचार करना पहले से तय था।
146 सदस्यों वाली राष्ट्रीय एकता परिषद (इसमें राजनीतिक दलों के अलावा जाने-माने उद्योगपति और अन्य लोग भी शामिल हैं) में आतंकवाद जैसे देशव्यापी मसले को नजरअंदाज करने के बाद सरकार की नीयत पर सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए? काबिले गौर यह भी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन खुद कह चुके हैं बजरंग दल और सिमी में जमीन-आसमान का फर्क है। बजरंग दल पर प्रतिबंध तब तक नहीं लगाया जा सकता, जब तक कि पुख्ता सबूत न मिल जाएँ। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैसे पद पर बैठी शख्सियत अगर इस तरह की राय रखती है तो फिर क्या राजनीतिक दल और मीडिया दोनों को इस मुद्दे पर अपने रवैये को लेकर आत्ममंथन करने की जरूरत नहीं है...?बहरहाल, उड़ीसा में जो कुछ हुआ, उसे किसी भी कीमत पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। बलात्कार और हिंसा की घटनाएँ हर सभ्य समाज के मुँह पर कालिख की तरह हैं। इनकी भर्त्सना होना ही चाहिए। जो लोग इसके लिए दोषी हैं, उन्हें भी बख्शना नहीं चाहिए। ...लेकिन जरूरी यह है कि समाज, सियासत और मीडिया दोषियों के खिलाफ आवाज बुलंद करे, किसी विचारधारा या निजी स्वार्थ या सहानुभूति को आधार बनाकर नहीं...। निर्मेश त्यागी
No comments:
Post a Comment