सिंगूर प्रकरण जमीन अधिग्रहण से जुड़े एक अहम पहलू पर विचार करने के लिए बाध्य करता है। यह पहलू है मुआवजे का। भूमि अधिग्रहण के मामले में दो धारणाएँ काम करती हैं। पहली, अगर सरकार अपनी किसी परियोजना के लिए जमीन लेती है तो किसानों और आम जनता का सोच यह होता है कि यह सबकी भलाई के लिए किया जा रहा है, इसमें मुनाफाखोरी नहीं होगी या फिर कम होगी। सरकारी भूमि अधिग्रहण को लोग कमोबेश ईमानदारी की नजर से देखते हैं। उस हालत में अगर मुआवजे या पुनर्वास को लेकर प्रदर्शन-आंदोलन होता भी है तो वह लंबा नहीं खिंचता। कुछ ही समय बाद वह विरोध शांत हो जाता है। सरकारी अधिग्रहण के मामले में विरोध-प्रदर्शन उतने उग्र और हिंसक भी नहीं होते, जितने कि सिंगूर या देश के दूसरे हिस्सों में प्राइवेट सेक्टर में होते रहे हैं। इसके ठीक विपरीत जब भी कोई उद्योगपति अपने किसी परियोजना के लिए जमीन लेने की बात करता है तो वहाँ जमकर विरोध होता है। हिंसा होती है और साथ ही उस मामले पर राजनीतिक खेल शुरू हो जाता है। जैसा कि सिंगूर या दूसरी बड़ी परियोजनाओं को लेकर होता रहा है। सिंगूर मामले में तो राजनीति भी खूब हुई है। अब सवाल यह उठता है कि वह कौनसा तरीका हो सकता है, जिससे सिंगूर प्रकरण की पुनरावृत्ति न हो। इसके लिए हमें मुआवजे की एक ऐसी ठोस नीति बनाना होगी, जिससे जनता भी खुश रहे, उद्योगपति भी।
दरअसल यह सिर्फ जनता और पूँजीपति के बीच टकराव का मामला नहीं है। इसकी जड़ें हमारी सामाजिक असमानता से जुड़ी हुई हैं। यह बात सही है कि जब भी पूँजीपति अपनी कोई परियोजना शुरू करता है तो उसके पीछे ध्येय विशुद्ध रूप से मुनाफा कमाना ही होता है। सामाजिक असमानता के यथार्थ को व्यावहारिक रूप से इस तरह समझा जा सकता है। होता यह है कि जब भी किसानों को मुआवजा मिलता है तो वे उस पैसे को अनाप-शनाप ढंग से खर्च कर देते हैं। वे निश्चिंत हो जाते हैं, लेकिन थोड़े ही दिनों बाद उन्हें एहसास होता है कि अब न तो उनके पास अपनी जमीन बची है और मुआवजे का पैसा भी जाता रहा। तब अंदर ही अंदर एक विरोध जन्म लेने लगता है। तंगहाली में उनके बच्चे अपराध और हिंसा के रास्ते पर चल पड़ते हैं। हम पाते हैं कि जहाँ-जहाँ निजी परियोजनाओं का विरोध होता है, आसपास के इलाकों में अपराध दर बढ़ जाती है। सब कुछ गँवा चुके किसानों को यह बर्दाश्त नहीं होता कि उनकी जमीन पर कोई पूँजीपति पनपे, अपनी तिजोरियाँ भरे और वे खस्ताहाल रहें। जब तक समाज के विभिन्न तबकों के बीच दूरियाँ रहेंगी, अमीर-गरीब की खाई बढ़ेगी तो विकृति पैदा होगी। यही विकृति और असमानता हिंसा को जन्म देती है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के रास्ते रोकती है। जो परियोजनाएँ चल पड़ती हैं या तो वे ठहर जाती हैं या पूरी नहीं हो पाती हैं या फिर उन्हें पूरा होने में बरसों लग जाते हैं। इसीलिए एक ठोस मुआवजा नीति की दरकार है। सिंगूर जैसे मामले फिर-फिर न हों, इसके लिए सबसे पहले उद्योग जगत को अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करना पड़ेगी। सरकार की तुलना में उन्हें ज्यादा जिम्मेदार बनना होगा। उचित मुआवजे के कई उपाय हो सकते हैं। एक यह है कि किसान को परियोजना का हिस्सेदार बनाया जाए। उसे भी स्टेक होल्डर बनाया जाना चाहिए। यह भी कर सकते हैं कि मुनाफे की हालत में एक निश्चित रकम किसानों में बाँट दी जाए। उनके बच्चों को रोजगार का आश्वासन नहीं, सच में काम दिया जाए।
हालाँकि जब भी कोई बड़ी परियोजना शुरू होती है तो उद्योगपति उसमें आसपास के लोगों को रोजगार देने की बात कहता है, गारंटी देता है, लेकिन जब यह बात व्यावहारिक रूप से सही साबित नहीं होती तो असंतोष बढ़ता है, इसीलिए सबसे पहले उद्योग जगत को पहल करना होगी। उद्योगपति राहुल बजाज सिंगूर प्रकरण के मद्देनजर अपनी बिरादरी की जिम्मेदारी से जुड़ी यह बात कह भी चुके हैं।
उद्योग जगत से अधिक जिम्मेदार होने की अपेक्षा इसलिए भी की जाती है कि सरकारें अपनी इस भूमिका में अब तक नाकाम रही हैं। राजनीति ने अच्छे खासे मामलों का बेड़ा गर्क कर दिया है। नेता सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकते हैं। बीच में आकर पैसा बटोरते हैं और मामले को कहीं का नहीं छोड़ते। एक सामाजिक जागरूकता की भी जरूरत है और इसी चेतना की उम्मीद इंडस्ट्री से भी की जाती है। अगर उद्योग जगत इस बात पर गहराई से विचार करे और एक दूरगामी फायदे के बारे में सोचे तो यह समझ में आने वाला रास्ता है, क्योंकि टकराव या विरोध से सबसे ज्यादा नुकसान या तो पूँजीपति का होता है या फिर आम जनता का। नेताओं का इसमें धेला नहीं जाता। उनकी न तो जनता के प्रति कोई प्रतिबद्धता है और न देश को लेकर। तभी जनता भी परेशान है। लिहाजा जिम्मेदारी का बीड़ा उद्योगों को ही उठाना होगा।
समय के हिसाब से अब उद्योग जगत को ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है, क्योंकि यह सवाल सिर्फ किसानों और उनके बीच का नहीं है। यह सवाल पूरे देश का है। उद्योगपतियों को चाहिए कि वे एक बड़े परिप्रेक्ष्य में अपनी परियोजनाओं को सामाजिक ताने-बाने से जोड़कर देखें। जब उद्योग जगत पूरे समाज को साथ लेकर तरक्की की योजना बनाएगा तो अमीर-गरीब की खाई कम होगी और किसान अपने भविष्य और परिवार को लेकर आश्वस्त होंगे। उस हालत में विरोध की गुंजाइश कम होती चली जाती है। अगर एक बार किसान अपने घर-परिवार को लेकर आश्वस्त हो गए और समाज में जागरूकता बढ़ी तो नेता अपनी राजनीतिक रोटियाँ नहीं सेक पाएँगे, लेकिन सबसे बड़ी बात मुआवजे की है। अगर उद्योग जगत इस बारे में ठोस नीति बनाकर उस पर ईमानदारी से अमल करता है तो निश्चय ही असंतोष के स्वर हल्के पड़ेंगे।
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