कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार द्वारा लाए गए सूचना का अधिकार कानून ने तीन साल पूरे कर लिए हैं। मनमोहन सरकार के लिए यह कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय खुद इसकी कार्यप्रणाली को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने में शुरुआत से ही दिलचस्पी लेता रहा है। हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इसके तहत फोन पर आवदेन की सुविधा देने की घोषणा की है। हालाँकि सरकार इसे अपने कार्यकाल की अहम उपलब्धि मानती है और आम जनता के लिए भी इसकी उपयोगिता को कम करके नहीं आँका जा सकता, लेकिन मैदानी हकीकत देखें तो अपने लागू होने से आज तक यह कानून बहुत उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर पाया है। इसे लाते वक्त यह कहा गया था कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम कसेगी, सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाई जा सकेगी और लोगों का सरकार पर भरोसा बढ़ेगा, लेकिन न तो सरकारी काम का ढर्रा बदला और न ही घूसखोरी कम हुई। भ्रष्टाचार कम होना तो दूर भारत लगातार इस मामले में लगातार नंबर वन होने के करीब पहुँच रहा है।
क्या है कानून : सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) भारत की संसद द्वारा पारित एक कानून है। इसे 12 अक्टूबर, 2005 को लागू किया गया। (15 जून, 2005 को इसके कानून बनने के 120वें दिन)। भारत में भ्रटाचार को रोकने और समाप्त करने के लिए इसे बहुत ही प्रभावी कदम बताया जाता है। इसके तहत भारत के सभी नागरिकों को सरकारी रेकॉर्ड और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार है। जम्मू एवं काश्मीर को छोड़कर भारत के सभी भागों में यह अधिनियम लागू है। सूचना का अधिकार कानून लागू करने वाला भारत दुनिया का 61वाँ देश है। इसकी नींव सबसे पहले स्वीडन में 1766 में रखी गई। इसके ठीक दो सौ साल बाद यानी 1966 में अमेरिकी कांग्रेस ने इसे कानूनी जामा पहनाया। यह विडंबना ही है अपने लागू होने के तीन साल बाद भी भारत के ग्रामीण इलाके इसकी उपयोगिता से अनजान हैं।
कैसी सूचनाओं को जानने का हक : ऐसी हर वह जानकारी जो परिपत्र, आदेश, पत्र, उदाहरण या अन्य किसी रूप में मौजूद है। जिसका संबंध किसी सरकारी या निजी निकाय से है, उसे इस कानून के तहत प्राप्त किया जा सकता है।
ये हैं दायरे से बाहर : ऐसी कोई जानकारी जिससे भारत की स्वतंत्रता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, कार्य योजना, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों, विदेशों से संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हों या अपराध को बढ़ावा मिलता हो, सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत प्राप्त नहीं हो सकती।
प्रचार पर ही लाखों का खर्च : एक जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार के सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनल एंड ट्रेनिंग-डीओपीटी) ने अभी तक इस कानून के प्रचार-प्रसार पर तीन बरसों में कुल दो लाख रुपए खर्च किए हैं। विभाग के मुताबिक पिछले तीन बरसों में इस कानून के प्रचार के लिए कुल दो लाख रुपए खर्च किए गए हैं। यह पैसा डीएवीपी व प्रसार भारती के जरिए खर्च किया गया है।
यानी इस आँकड़े के मुताबिक वर्ष में लगभग 66 हजार रुपए या यूँ कहें कि सरकार इस कानून के प्रचार पर औसत तौर पर हर महीने महज साढ़े पाँच हजार रुपए खर्च कर रही है।
बोझिल और खर्चीली है प्रक्रिया : सूचना के अधिकार कानून की सफलता को उसकी बोझिल और खर्चीली प्रक्रिया भी संदिग्ध बनाती है। देशभर में समय-समय पर ऐसे कई मामले सामने आए, जिनमें कहीं सूचना अधिकारी ने आवेदन खर्च के रूप में तय मद से कई गुना अधिक राशि की माँग की तो कहीं महीनों चक्कर लगाने के बाद भी आवेदक को असल जानकारी नहीं मिल पाई।
कानून के तहत सामने आए कुछ चर्चित मामले-
*हाल ही में गुजरात प्रदेश कांग्रेस ने मोदी सरकार और रतन टाटा के बीच नैनो कार के लिए हुए समझौते की कॉपी सूचना का अधिकार कानून के तहत माँगी है।
*केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश के बाद मुहम्मद अली जिन्ना के नाती नुस्ली वाडिया को जिन्ना हाउस के संबंध में पूर्व एटार्नी जनरल सोली एस. सोराबजी द्वारा सरकार को दी गई गोपनीय जानकारी हासिल करने का अधिकार प्राप्त हुआ।
*कानून के तहत एक मामले में सही समय पर पर्याप्त सूचना मुहैया नहीं कराने के लिए केंद्रीय सूचना आयोग आरटीआई अधिनियम की धारा 20 (1) के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी कारण बताओ नोटिस जारी कर चुका है।
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