rashtrya ujala

Tuesday, October 28, 2008

वामपंथियों का माया-प्रेम

बहुत दिन नहीं बीते, जब कामरेड प्रकाश करात ने मायावती को एक जातिवादी और संकीर्ण राजनीतिक दायरे में काम करने वाली महिला कहकर उनकी राजनीतिक हस्ती को कठघरे में खड़ा किया था। फिर परमाणु करार पर हुए पूरे ड्रामे में मायावती प्रधानमंत्री पद की एक दमदार दावेदार के रूप में उभरीं और डूब भी गईं। और, अभी कुछ ही दिन पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने फिर एक बार मायावती को देश की अगली प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया! माकपा यह भी चाहती है कि आने वाले चुनावों में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी के समर्थक बहुजन समाज पार्टी को वोट दें।
वामपंथियों में यह नया वैचारिक बदलाव, जाहिर है, यूपीए सरकार से परमाणु करार के मसले

दलित और आदिवासियों के बीच एक स्वस्फूर्त नेतृत्व उभर रहा है, जो न मायावती पर केवल इसलिए भरोसा करने को तैयार है कि वे 'दलित' हैं और न वामपंथी दलों पर 'क्योंकि वे सर्वहारा का नाम लेते हैं

पर अपना समर्थन वापस लेने के बाद आया है। अब वामपंथी चाहते हैं कि एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई गठबंधन वाली सरकार बने, जिसकी अगुवाई दलित नेता मायावती करें और अपने संभावित 40-50 सांसदों के बूते पर सरकार की कमान वामपंथी दलों के हाथों में रहे। चूहे और बिल्ली का खेल संसदीय राजनीति में खूब चलता है और कांग्रेस के साथ यह खेल खेलकर माकपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को शायद अब इसका चस्का लग गया है।
और फिर, कांग्रेसी और भाजपाई गठबंधनों के बाहर बचा ही कौन? अपने वामपंथी और अपनी बहन मायावती! हारे को हरि नाम ! दलित खूब सही समय पर याद आए वामदलों को ! काश ! यह दलित-दृष्टिकोण उनमें 60-70, यहाँ तक कि 80 के दशक में भी आ गया होता, तो आज बढ़ती विकास-दर और गरीबों के गिरते जीवन-स्तर के बीच इतना बड़ा फासला न होता। यदि हमारे वामपंथी कामरेड, जो अब संसद की राजनीति में पूरी तरह पक चुके हैं, वैचारिक स्तर पर उस मुकाम पर पहुँच जाते, जहाँ बाबा साहेब आम्बेडकर के शब्दों में, 'दलित नेतृत्व के बिना सच्चा जनतंत्र संभव नहीं है', तो कहना ही क्या था! तब उन्हें मायावती जैसे 'प्रतीक चिह्नों' की जरूरत नहीं होती। वे दलितों और अन्य सामाजिक रूप से वंचित समुदायों के बीच अपनी पैठ बनाते, अपने सांगठनिक ढाँचे में उन्हें सम्मान की जगह देते और विधानसभा व संसद में उनकी भागीदारी का मार्ग प्रशस्त करते।
लेकिन दुर्भाग्य से हमारी वामपंथी पार्टियों, खासतौर पर, भाकपा और माकपा ने, इस जिम्मेदारी को तवज्जो देना तो दूर इसे अपने राजनीतिक एजेंडे तक में शामिल नहीं किया। कहना न होगा कि इसीलिए, सिर्फ आर्थिक माँगों के इर्द-गिर्द सिमटी उनकी राजनीति को जब 90 के दशक में मंडल, कमंडल और भूमंडल जैसी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा तो उनसे लड़ने के लिए उनके अपने हथियार भोथरे हो चुके थे।
माकपा के अचानक उमड़े दलित-प्रेम की एक और मिसाल पश्चिम बंगाल से ही ली जा सकती है जहाँ पार्टी पिछले 31 सालों से निष्कंटक राज करती आई है। एक ऐसे देश में, जहाँ लगभग 16 प्रतिशत आबादी दलित हो, 14 प्रतिशत अल्पसंख्यक और लगभग 15 प्रतिशत आबादी अन्य पिछड़ी जातियों से आती हो-वहाँ मार्क्सवाद में विश्वास करने वाली एक पार्टी का शीर्ष, मध्य और निम्न नेतृत्व इन सामाजिक वर्गों के हाथ में होने की बजाए सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न 'भद्रलोक' के हाथों में है।
इसे मार्क्सवाद की विडंबना कहें या भारतीय कम्युनिस्टों का अवसरवाद कि जिन्हें चुनाव के समय दलित याद आए और वो भी सिर्फ मायावती। उड़ीसा में अकाल और भूख से होती मौतों के लिए बदनाम कालाहांडी का नियमगिरि पहाड़, एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को बॉक्साइट की माइनिंग के लिए दे दिया गया है, वहाँ के आदिवासी-डोंगरिया कोंध-नियमगिरि को अपना देवता मानते हैं, लेकिन शायद ही कभी माकपा और बड़ी बहन भाकपा ने इसके खिलाफ एक बयान तक देने की जहमत उठाई हो।यह महज संयोग नहीं कि आज देश के ज्यादातर लोकप्रिय आंदोलन, जिनमें दलितों की भागीदारी बड़ी संख्या में है, न मायावती चला रहीं और न वामदल। रोजगार, सूचना का अधिकार, नर्मदा विस्थापन का विरोध हो या विशेष आर्थिक क्षेत्रों का प्रतिकार- इन सबकी कमान पार्टियों से स्वतंत्र कार्यकर्ताओं के हाथ में है। दलित और आदिवासियों के बीच एक स्वस्फूर्त नेतृत्व उभर रहा है, जो न मायावती पर केवल इसलिए भरोसा करने को तैयार है कि वे 'दलित' हैं और न वामपंथी दलों पर 'क्योंकि वे सर्वहारा का नाम लेते हैं।' विचारों की परख काम के आधार पर करने वाले ये आंदोलन गरीबी के बीच अच्छी पैठ बनाए हुए हैं और चुनावों के समय मतदाताओं के मन को ये प्रभावित करने में सक्षम हैं।
1964 में लगभग इन्हीं दिनों (31 अक्टूबर-7 नवंबर) तब भारत की इकलौती कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होकर गरमपंथियों ने कोलकाता में एक अधिवेशन बुलाकर माकपा की स्थापना की थी। कारण बताया गया- भाकपा के तत्कालीन महासचिव श्रीपाद अमृत डांगे का कांग्रेस के प्रति बढ़ता रुझान और पार्टी में संसदीय राजनीति में बढ़ती दिलचस्पी। कोलकाता अधिवेशन में भारतीय राजसत्ता के चरित्र पर एक प्रस्ताव पारित करके कहा गया था कि 'भारतीय बड़े पूँजीपति दिन-ब-दिन साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ बना रहे हैं।' उनके बाद के 44 साल दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक इसी इंतजार में रहे कि

मायावती के समर्थन के पीछे कौन-सी भावना काम कर रही है- यह भी देश के सामने आना चाहिए। वर्ना, जैसा कि मार्क्सवाद का एक मंत्र कहता है : गण-शत्रुओं की जगह इतिहास के कूड़ेदान में है

माकपा पूँजीपतियों और साम्राज्यवाद (सैन्य और आर्थिक) दोनों पर हमला बोलेगी, लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम ने माकपा के छद्म वामपंथ की कलई भी खोल दी। कल तक भारतीय जाति-व्यवस्था के चुभते प्रश्नों को वर्ग-संघर्ष की आड़ में दरकिनार करने वाला वामपंथ आज मायावती का नाम सिर्फ इसलिए ले रहा है कि केंद्र में वह एक ऐसी सरकार चाहता है, जो उसके समर्थन पर निर्भर हो और प. बंगाल में चलने वाली अनगिनत परियोजनाओं को केंद्र से हरी झंडी मिलती रहे। उनके समर्थन पर सरकार टिकी होगी तो परोक्ष रूप से सत्ता के फायदे मिलते रहेंगे और बंगाल-केरल और त्रिपुरा के बाहर पाँव फैलाने का मौका मिलेगा।


जब सीताराम येचुरी जैसे बौद्धिक और वरिष्ठ नेता बंगाल के मतदाताओं से कहते हैं कि चुनाव में बंगाली ममता बनर्जी को बाहर का रास्ता दिखा दें तो क्या क्षणभर के लिए राज ठाकरे की याद नहीं आ जाती ? कामरेड की बंगाल राजनीति इस तरह 'बंगाली पॉलिटिक्स' में बदल जाएगी, यह आशंका तो मार्क्सवाद के प्रारंभिक छात्रों को भी नहीं रही होगी। अगर पिछले 30 सालों में बंगाल की जनता ने माकपा और उसके साथी दलों को सर-आँखों पर बिठाया है तो यह सोचकर कि नवजागरण की भूमि पर वामपंथ बराबरी के बीज रोपेगा, लेकिन बराबरी तो दूर, पश्चिम बंगाल में आज तक भूमि-सुधार को क्रियान्वित करने की दिशा में भी कारगर कदम नहीं उठाए जा सके। माकपा के छात्र और युवा संगठन किस तरह अपनी ऊर्जा गरीबों के लिए विकास-कार्यों में लगाने की बजाय गली-मुहल्ले में अपनी धौंस जमाने और किसी और को न टिकने देने में लगा रहे हैं- इसे साबित करने के लिए तथ्यों की कमी नहीं है। पिछले पंचायत चुनावों में माकपा की हार उसके राजनीतिक उसूलों से भटकने के अंजाम का एक और उदाहरण है। माकपा आज एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहाँ उसे स्पष्ट चयन करना है- क्या वह सचमुच देश के अधिसंख्य गरीबों (जिनमें दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक और पिछड़ी जातियाँ 70 प्रतिशत हैं) को राजनीतिक सत्ता के पायदान पर लाना चाहती है या अवसरवादी समर्थन और गंठजोड़ के खेल में महारत हासिल करना चाहती है। मायावती के समर्थन के पीछे कौन-सी भावना काम कर रही है- यह भी देश के सामने आना चाहिए। वर्ना, जैसा कि मार्क्सवाद का एक मंत्र कहता है : गण-शत्रुओं की जगह इतिहास के कूड़ेदान में है।

3 comments:

Gyan Darpan said...

इनकी कोई विचारधारा नही,कोई नेतिकता नही सारे दल अवसरवादी राजनीती कर रहें है इन्हे सिर्फ़ अपना फायदा दिखता देश नही |

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

जनता कहाँ है देखलो ,सिगुर कामैदान .
राजनीटि- टाटा करे, जनता की ही हान .
जनता की ही हान ,जमी दे दो या ना दो.
मरना दोनों तरह ,किसी भी तरफ वोट दो.
कह साधक कवि,रावण हो गया तंत्र देखलो, सिंगुर का मैदान ,कहाँ जनता है देखलो .
उल्टी गंगा बह रही, कृषक हुआ बेकार ,
टाटा की खातिर बिछे,पलक-पाँवङे यार.
पलक-पाँवङे यार,देश ऋषि-कृषकं का था .
ऐसे दिन भारत मं यह किसने सोचा था ?
जब साधक कवि नेता खुद बन गया लफ़ँगा,
कृषक हुआ बेकार,बह रही उल्टी गंगा . ५.
लुटते आये हं सदा , खेती और किसान ,
राजा ठाकुर ना रहे, ना ही जमीदार.
ना ही जमीदार, आ गया प्रजातन्त्त्र भी ,
प्रजा मगर नीचे है ,हावी रहा तंत्र ही .
साधक आम आदमी सदा पिटते आये हं .
खेती और किस्सन सदा पिटते आये हैं

Kapil said...

नकली वामपंथियों की अच्‍छी पोल खोली है आपने। इनका नकली लाल रंग जितना जल्‍दी झड़ेगा उतना ही इस देश की आम मेहनतकश जनता की लड़ाई का फायदा होगा। समाचारपत्रों के बाद ब्‍लॉग पर आपको देखकर सुखद आश्‍चर्य हुआ। वेबपोर्टल की सफलता के लिए हार्दिक बधाई स्‍वीकार करें।