एमिटी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले एक छात्र ने इसलिए खुदकशी कर ली क्योंकि वह अँगरेजी में कमजोर था। नोएडा में अँगरेजी भाषा के दबाव को लेकर यह शायद दूसरी खुदकशी की खबर है। एमिटी विश्वविद्यालय ने यह जरूर कहा है कि उनके संस्थान ने अँगरेजी दास्ता बढ़ाने के लिए उस छात्र पर कोई दबाव नहीं डाला था लेकिन आत्महत्या करने वाले रवि भाटी के पिता ने रिपोर्ट दर्ज कराई है कि उनके बेटे ने अँगरेजी में कमजोर होने की वजह से परेशान होकर आत्महत्या की है। वह प्रबंधन का छात्र था। यह हिन्दी दिवस की ही घटना है। 14 सितंबर के दिन हिन्दी दिवस मनाया जाता है। यह हिन्दी का अँगरेजी के आमने-सामने हो जाने का दिन है। यह सिर्फ भाषा का मसला नहीं है। हैसियत का मसला भी है। भाषा और हैसियत में गहरा संबंध है। जरूर वह छात्र हिन्दी भाषी रहा होगा। प्रबंधन के पाठ्यक्रम अँगरेजी हार की दरकार रखते हैं। उनमें आर्ट अँगरेजी 'उच्चकोटि की साहित्यिक व्यंजनाओं अलंकारों वाली नहीं होती, सामान्य से वाक्य एक अलग विद्या के बारे में बताते हैं।
प्रबंधन में एक बड़ा हिस्सा गणित की जरूरत को बताता है। कैट-मैट की प्रवेश परीक्षा में जो कुछ पूछा जाता है, वह गणितीय सोच की तीव्रगति और सही गलत के सुपरफास्ट बारीक विवेक की भी परीक्षा होती है। अँगरेजी भाषा के रूप में वह बहुत कठिन नहीं होती। जो कठिन होता है वह प्रबुद्धता को परखने के क्षेत्र होते हैं। लाखों की नौकरी दिलाने वाले ऐसे पाठ्यक्रम स्पर्धात्मक जगत में आसान तो हो ही नहीं सकते। हिन्दी क्षेत्र के मध्यवर्गी माता-पिता अपनी संतानों को इस स्पर्धात्मकता में डालते हैं। कच्चे-पक्के अँगरेजी स्कूलों में थोड़ा सिखाकर या इससे भी रहित नौजवान स्पर्धा में या दाखिला-खरीद के जरिए ऐसे संस्थानों में पढ़ने लगते हैं लेकिन यदि कोई संस्थान डिग्री देता है, कागज का टुकड़ा नहीं, तो वह एक स्तर तो रखेगा ही। छात्र पर यही दबाव बन जाता है भाषा माध्यम और विषय को न समझ पाने का।
यथार्थ आत्मकुंठित करता रहता है, आत्मा मरती रहती है, कोई कमजोर मन वाला आत्महत्या कर लेता है, इससे दुख होता है। अँगरेजी भाषा के कारण आत्महत्या दरअसल उस कमजोर हैसियत का आत्मदंड है, जो स्पर्धा में पीछे रह जाना नहीं चाहती मगर जिसके पास स्पर्धा के साधन नहीं हैं। भाषाएँ अर्जित की जाती हैं, मातृभाषा भी। एक अर्थ में भाषा मुफ्त में मिली लगती है, मुफ्त होती। मनुष्य को ज्ञान कमाना पड़ता है, जो सहज मिलता लगता है, वह भी मेहनत से आता है। भाषा तो एक विकसित औजार है। अच्छी हिन्दी पढ़ने वाला भी इसे अर्जित करता है। हिन्दी भी सेंतमेंत में नहीं मिलती, जबकि लगता है कि मिलती है। अँगरेजी का माने तो ज्यादा है। बहरहाल रवि की आत्महत्या ने हिन्दी दिवस के दिन जनप्रियों के भाषणों और लेखों के मुकाबले हिन्दी को यह संदेश दिया है कि हिन्दी को, हिन्दीजन को, स्पर्धा में रहना है तो स्पर्धा का अर्जन करना होगा। जब संस्कृत शासकों की भाषा रही, तब संस्कृत में ज्ञान अर्जित करने के बहुत दाम और ताकत लगती थी, अब अँगरेजीके लिए है। हिन्दी के लिए भी दाम लगे, ताकत लगे, उसमें दुनियाभर के ज्ञानलिन की ताकत आए तो ऐसी घटनाएँ रुकेंगी। गलतफहमी दूर करनी होगी कि हिन्दी सेंतमें में मिलती है। और उसके भी दाम हैं चाहे अभी कम पैसे हैं, क्वालिटी बनाओगे तो दाम भी बढ़ेंगे। तब शायद हिन्दी में आत्महत्या नहीं होगी।
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