साठ बरस पहले दीर्घ और सशक्त जन-प्रतिरोध के चलते भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के दिन लद गए। अंग्रेज भले ही बोरिया बिस्तर बांध कर चले गए, मगर अंग्रेजी जमी रही और उसका रुतबा बरकरार रहा। अंग्रेजों का साम्राज्य समाप्त होने के साथ अंग्रेजी का वर्चस्व भी क्षीण होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो उसके मूल में नव सत्तासीन राष्ट्रीय नेताओं के मन में भाषाई सौहार्द बिगड़ने की आशंका थी। इस निर्मूल आशंका का तर्कसंगत और वस्तुपरक निराकरण उसी समय करने के बजाय 'एकता बनाए रखने' के नाम पर अंग्रेजी को बनाए रखने की युक्ति लगभग वैसी ही थी जैसे सत्ता हस्तांतरण के बावजूद तत्कालीन वाइसराय लार्ड माउंटबेटन से कुछ समय तक गवर्नर जनरल के रूप में पद पर बने रहने को कहा गया था। सच्चाई यह है कि अंग्रेजी को राजकाज से विदा करने लायक आत्मविश्वास हम अभी तक अर्जित नहीं कर पाए है। इसका कारण अंग्रेजी से अंधा प्रेम या लगाव नहीं, न ही उसकी सर्वस्वीकार्यता है, बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों से उठे भाषाई आंदोलनों की विभाजनवादी मानसिकता है, जिसके तहत भाषाई आधार पर प्रदेशों का पुनर्गठन करना पड़ा। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह अनिवार्य था, परंतु इससे भाषाई-आधार पर वोट बैंक बनाने और सहेजने की प्रवृत्तिने जोर पकड़ा। आज मुंबई में दुकानों और अन्य प्रतिष्ठानों पर मराठी भाषा में नामपट लगाने के लिए जिस तरह का धमकी भरा आग्रह किया जा रहा है उससे भाषाई वोट बैंक की अवधारणा को समझा जा सकता है।
स्वतंत्रता संग्राम के महानायक गांधीजी ने भारत जैसे विशाल, विस्तृत और बहुभाषी देश में एक सर्वमान्य और सर्वसुलभ संपर्क भाषा की कसौटी पर हिंदी को उपयुक्त पाया था और नई भूमिका के लिए उसे तैयार करने का आग्रह किया था। गांधीजी और सुभाष बाबू इस बात पर एक राय थे कि राष्ट्रीय भाषा का नाम हिंदुस्तानी होना चाहिए और उसमें यथासंभव अन्य भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों का समावेश होता रहे ताकि वह देश के कोने-कोने में सरलता से बोली और समझी जा सके। नेताजी ने आजाद हिंद फौज में प्रशासनिक और व्यवहारिक भाषा के रूप में जो प्रयोग किए उनसे हमें सबक लेना चाहिए था, परंतु हिंदी प्रेम के अति उत्साह और अंग्रेजी की जबर्दस्त पैरोकारी के द्वंद्व के चलते जाने-अनजाने कई तकनीकी किस्म की भूलें हुई जिनका खामियाजा हिंदी को बेवजह उठाना पड़ा। सबसे ज्यादा नुकसान हिंदी को राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा के बजाय 'राजभाषा' जैसे सजावटी विशेषण से विभूषित करने से हुआ। हिंदी कैसी राजभाषा बनी है, यह तो जगजाहिर है, लेकिन सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में अंग्रेजी आराम से सिंहासन पर आरूढ़ है। दूसरी भूल शब्दावली आयोग द्वारा गढ़े गए भारी भरकम और बेजान शब्दों के अवतरण के रूप में हुई। 'लौहपथ गामिनी विराम स्थल' जैसे हास्यास्पद शब्द इसके उदाहरण हैं। तीसरी भूल दक्षिण भाषा हिंदी प्रचार सभा जैसे महत्वपूर्ण और प्रभारी अभियानों की स्वतंत्रता के बाद के समय में उपेक्षा रही। दरअसल समस्या यह है कि हम अपनी मातृभाषा से इतर भाषा का प्रयोग तो करते हैं, लेकिन उसे अपनापन देने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं।जो भी हो, वैश्वीकरण और खुले बाजार के इस दौर में हिंदी बाजार की भाषा के रूप में बिना किसी वैधानिक बैसाखी या भावनात्मक ज्वार के एक बड़ी भाषा के रूप में उभरी है। एक वृहतर संपर्क भाषा की अपनी असली भूमिका में जिस तरह यह विज्ञापन जगत और संचार माध्यमों पर सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के रूप में छाई है उससे अंग्रेजी को कड़ी चुनौती मिली है। राजभाषा के रूप में इसकी प्रभावहीनता अब गौण होती जा रही है। ठीक है आज की तारीख में रोजगार संबंधी अवसरों के सिलसिले में अंग्रेजी लगभग अपरिहार्य है, मगर जिस तरह से कारोबार की दुनिया में हिंदी का वर्चस्व बढ़ रहा है उसे देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब यह रोजगार दिलाऊ बन जाएगी। हिंदी की इस बढ़त का प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं और स्वयं हिंदी की उपभाषाओं पर पड़ा है। भोजपुरी का ही उदाहरण लें। अभी तक लगभग उपेक्षित रही यह भाषा अपनी कारोबारी क्षमता के कारण फिल्म उद्योग में मजबूती से अपने पैर जमा रही है। और इसी के साथ हिंदी में आ रहा है बदलाव। मीडिया पर प्रभुत्व जमाने के लिए हिंदी को अपनी कथित जटिलता को तिलांजलि देनी पड़ी है। बहुत से लोगों को हिंदी का यह अत्यंत लचीला और सर्वसमावेशी रूप नहीं भा रहा है, परंतु परिवर्तन तो सृष्टि का नियम है। हर चीज बदलती जा रही है तो हिंदी ही कब तक पर्दानशीं रहेगी। हिंदी ही नहीं, सभी प्रमुख भारतीय भाषाएं कारोबारी और रोजगारी दबाव में बदलाव की इस प्रक्रिया से गुजरेगी।
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