rashtrya ujala

Friday, August 22, 2008

पैसे की न कोई पार्टी है, न विचारधारा...

आपके लिए भले ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दो अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराएं, अलग नीतियों और दृष्टिकोण वाले दल हों पर कुछ व्यापारिक और औद्योगिक हस्तियों के लिए ये एक ही हैं. इसीलिए ये प्रभावशाली लोग दोनों ही पार्टियों की 'गुड बुक्स' में रहते हैं. और 'गुड बुक्स' में रहने का एक तरीक़ा है पार्टियों को चंदे देना या आर्थिक मदद पहुँचाना.यह साबित होता है भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी के पिछले दो वित्तीय वर्षों (2005-07) के दौरान दानदाताओं की सूची देखकर.सूचना का अधिकार क़ानून के तहत जब दिल्ली के एक छात्र और युवा कार्यकर्ता अफ़रोज़ आलम 'साहिल' ने चुनाव आयोग से दोनों राजनीतिक दलों के दानदाताओं की सूची मांगी तो पता चला कि कुछ संस्थाएं दोनों ही दलों को चंदे दे रही थीं.


मोतीलाल वोरा, कोषाध्यक्ष, कांग्रेस
विचारधारात्मक स्तर पर मेल होना ज़रूरी है. जो कांग्रेस की विचारधारा से सहमत हैं, हम उन्हीं से दान लेते हैं. ऐसे किसी से भी पैसा नहीं ले लिया जाता है

और तो और, यूनियन कार्बाइड की वर्तमान मालिक, डाओ कैमिकल्स जैसी कंपनियाँ भी राजनीतिक दलों के लिए अस्पृश्य नहीं हैं. भारतीय जनता पार्टी ने उनसे भी चंदा स्वीकार किया है.गोवा के कुछ व्यापारिक प्रतिष्ठान, जैसे डेम्पो इंडस्ट्रीज़, वीएस डेम्पो, डेम्पो माइनिंग, सेसा गोवा, वीएम सालगांवकर एंड ब्रदर्स जैसे समूहों ने दोनों वित्तीय वर्षों में दोनों ही पार्टियों को लाखों रूपए के दान दिए हैं.डेम्पो और सालगांवकर गोवा के सबसे बड़े औद्योगिक समूहों में हैं. प्रदेश में लौह खनन के कारोबार में इनका ख़ासा वर्चस्व है और इनके राजनीतिक दलों से भी अच्छे संबंध माने जाते हैं.इसी तरह से आदित्य बिरला समूह से संबंधित जनरल इलेक्टोरल ट्रस्ट ने जहाँ वर्ष 2005-06 में भाजपा को 35 लाख रूपए का दान दिया है वहीं वर्ष 2006-07 में कांग्रेस को 10 करोड़ रूपए का दान दिया है.दिलचस्प बात यह है कि कई ऐसे पब्लिक स्कूल और शैक्षणिक संस्थाएं भी हैं जिन्होंने इन पार्टियों को लाखों रूपए का दान दिया है. दिल्ली के एक शैक्षणिक समूह, अकीक एजुकेशन सेंटर ने तो वर्ष 2005-06 के दौरान भाजपा को 75 लाख रूपए दिए हैं.कई माइनिंग कंपनियाँ, प्रापर्टी-रियल एस्टेट कंपनियाँ, ट्रस्ट, रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसियशन्स, निर्यातक, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ - दानदाताओं में शामिल हैं.

औरखाने के और, दिखाने के ...

अगर भोपाल गैस त्रासदी को याद करें तो राजनीतिक मंच पर भाजपा ने बहुत प्रभावी ढंग से कांग्रेस को घेरा था.लेकिन भाजपा को शायद अब यूनियन कार्बाइड के वर्तमान मालिक से कोई तकलीफ़ नहीं है. इसीलिए पार्टी ने वर्ष 2006-07 में डाओ कैमिकल्स से भी एक लाख रूपए का चंदा स्वीकारा है. पार्टी को कंपनी ने सिटी बैंक के ड्राफ़्ट नंबर 9189 के ज़रिए भुगतान किया था.


वे, जो दोनों दलों के सगे बने...
वित्तीय वर्षः 2005-06
सेसा गोवा कंपनीः भाजपा- 5 लाख, कांग्रेस- 7 लाख
वीए सालगांवकरः भाजपा- 5 लाख, कांग्रेस- 14 लाख
वीएस डेम्पोः भाजपा- 6 लाख, कांग्रेस- 9 लाख
डेम्पो इंडस्ट्रीज़ः भाजपा- 2.5 लाख, कांग्रेस- 2.5 लाख
डेम्पो माइनिंगः भाजपा- 2.5 लाख, कांग्रेस- 1.5 लाख
वित्तीय वर्षः 2006-07
सेसा गोवाः भाजपा- 2 लाख, कांग्रेस- 2 लाख
सालगांवकरः भाजपा- --, कांग्रेस- 3 लाख

डाओ कैमिकल्स ने वर्ष 2001 में यूनियन कार्बाइट कंपनी को ख़रीद लिया था. अब यूनियन कार्बाइड के दायित्व और संपदा की मालिक यही कंपनी है.रसायनों और प्रदूषण के मुद्दे पर काम कर रहे समाजसेवी गोपालकृष्ण इसे एक गंभीर मसला मानते हैं. वे कहते हैं, "डाओ कैमिकल्स दुनिया की सबसे बड़ी कैमिकल कंपनियों में है. यूनियन कार्बाइड जैसे विवादित समूह का अधिग्रहण कर चुकी इस कंपनी से पैसा लेना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. ख़ासकर भाजपा जैसी पार्टी के लिए जो कि भोपाल गैस के मुद्दे पर कांग्रेस को घेरती रही है."भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं - रविशंकर प्रसाद और राजीव प्रताप सिंह रूडी - से जब इस चंदे के बारे में प्रतिक्रिया माँगी गई तो दोनो ने सवाल से पल्ला झाड़ते हुए कहा कि वे इसकी पुष्टि करने के बाद ही टिप्पणी दे पाएँगे.

चंदे का फंडा

राजनीतिक दल आम आदमी की सदस्यता से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों तक से पैसे लेते हैं। चंदे के रूप में मिलने वाला यह पैसा ही राजनीतिक दलों के कामकाज का ईधन बनता है.



दस्तावेज़

पर क्या पैसा किसी से भी लिया जा सकता है या चंदा लेते वक्त पार्टी दानदाता कि विचारधारा, उसकी छवि और काम, चरित्र जैसी बातें भी ध्यान में रखी जाती हैं?कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा कहते हैं, "जो लोग हमारी पार्टी के शुभचिंतक हैं, जिन्हें हम जानते हैं, हम उन्हीं लोगों से चंदा लेते हैं। इचाराधारात्मक स्तर पर मेल होना ज़रूरी है. जो कांग्रेस की विचारधारा से सहमत हैं, हम उन्हीं से दान लेते हैं. ऐसे किसी से भी पैसा नहीं ले लिया जाता है."


अरुणा रॉय, सामाजिक कार्यकर्ता
जिस तरह की संस्थाएँ दानदाताओं की सूची में हैं, उससे तो लगता है कि उनका विचारधारा से कोई वास्ता नहीं है बल्कि यह एक तरह की रिश्वत है ताकि सरकार किसी की भी बने, हमारा काम कर दे. इसीलिए राजनीतिक शुद्धता और राजनीति को और नैतिक बनाने के लिए भी इन जानकारियों का सार्वजनिक होना ज़रूरी है

पर जब हमने बताया कि कुछ लोगों ने दोनों ही पार्टियों को पैसा दिया है, तो पहले तो मोतीलाल वोरा कहते हैं कि हम इसे देखकर ही टिप्पणी करेंगे और फिर टका-सा जवाब मिला, "हमें कैसे मालूम चलेगा, कोई भाजपा को देता है या समाजवादी पार्टी को देता है? या क्या करता है इसे मैं कैसे जान सकता हूँ? उनके खातों का विवरण मेरे पास तो आते नहीं."भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद इस पर कुछ अलग राय भी रखते हैं. वो कहते हैं, "अगर कोई माफ़िया है या अपराधी है तो उससे पैसे लेने का सवाल ही नहीं उठता है पर बाक़ी के लोग तो पैसा देते हैं. हमारे अलावा और किस-किस को पैसा देते हैं, यह तो हमारा विषय नहीं है. दानदाता इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वो और किन दलों को भी पैसा देगा."

'कोउ नृप होए, हमै का हानि...'

तो क्या एक से ज़्यादा दलों को चंदा देने दानदाताओं के स्वार्थी और अवसरवादी होने का संकेत है?गोवा के उदाहरण पर भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद कहते हैं, "जब भी अनिश्चितता वाला फ़ैसला आएगा, उससे अनिश्चितता पैदा होगी. इस तरह के तत्वों पर अपने स्वार्थ के लिए (राजनीतिक दलों पर) नियंत्रण करने का दबाव बढ़ेगा. पर इसका उत्तर दान देने वाले के चरित्र पर निर्भर नहीं करता. इसका निर्णय तो जनता को करना पड़ेगा."

रविशंकर प्रसाद, भाजपा प्रवक्ता
अगर कोई माफ़िया है या अपराधी है तो उससे पैसे लेने का सवाल ही नहीं उठता है पर बाक़ी के लोग तो पैसा देते हैं. हमारे अलावा और किस-किस को देते हैं, यह तो हमारा विषय नहीं है. दानदाता इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वो और किन दलों को भी पैसा देगा

सामाजिक कार्यकर्ता और मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित अरुणा रॉय कहती हैं कि इस जानकारी का सार्वजनिक होना इस दलील को और मज़बूत करता है कि राजनीतिक दलों के आय-व्यय में पारदर्शिता सुनिश्चित करना कितना ज़रूरी है.

वे कहती हैं, "इससे राजनीतिक दलों का भीतरी चेहरा लोगों के सामने आ सकेगा और लोगों को पता चलेगा कि नीतियों को तय करने में किन लोगों का स्वार्थ निहित है."अरुणा रॉय कहती हैं, "दानदाताओं की सूची से तो लगता है कि इन संस्थाओं का विचारधारा से कोई वास्ता नहीं है बल्कि यह एक तरह की रिश्वत है ताकि सरकार किसी की भी बने...हमारा काम कर दे. इसीलिए राजनीतिक शुद्धता और राजनीति को और नैतिक बनाने के लिए भी इन जानकारियों का सार्वजनिक होना ज़रूरी है."हालांकि राजनीतिक दलों की इस संदर्भ में पारदर्शिता का सवाल जब भाजपा प्रवक्ता से पूछा तो उन्होंने कहा कि ऐसा पहले उन संस्थाओं, संगठनों पर ही लागू हो जो ऐसी माँग उठा रहे है.पर जनता के पैसों और समर्थन से चलने वाले राजनीतिक दल ख़ुद पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित क्यों नहीं करते? भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद कहते हैं, "चुनाव आयोग हर प्रत्याशी से जानकारी लेता ही है. हम चंदे का ब्यौरा चुनाव आयोग को भेजते ही हैं, इसलिए ऐसा कहना ग़लत है कि पारदर्शिता है ही नहीं. और हो, इसपर राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाने की ज़रूरत है."सचमुच, पैसे की न कोई पार्टी है, न विचारधारा...

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