भारतीय उपमहाद्वीप में तनाव फिर से बढ़ता जा रहा है। पाकिस्तान में सरकार और प्रेजिडेंट के टकराव से सियासी माहौल और भी पेचीदा हो गया है। एलओसी पर दोनों देशों के बीच गोलीबारी होने लगी है। भारत में आतंकवादी घटनाओं का सिलसिला चल पड़ा है और उधर अफगानिस्तान में भी, जहां भारतीय दूतावास पर हमला हुआ। इस बीच आर्मी और उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई के रोल को लेकर सवाल तीखे हो गए हैं। पाक-अफगान सीमा पर बढ़ते तनाव और नैटो फौजों की बेचैनी के बीच अमेरिका ने अपना रुख सख्त करते हुए पाकिस्तान से कुछ खरी-खरी बातें कही हैं।
इन बदलावों पर विचार करने से पहले पाकिस्तान के सियासी जीवन में आए फर्क पर गौर करना होगा। इस्लामाबाद से आ रही खबरें बता रही हैं कि पाकिस्तानी शासकों ने लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ करीबी रिश्ते बना लिए हैं। इस नई मुहब्बत की वजह है जैश और हिज्बुल मुजाहिदीन जैसे ग्रुपों का नाकाम हो जाना।
इन खबरों के मुताबिक आमीर् और खुफिया एजेंसियां अब इन ग्रुपों पर भरोसा करना नहीं चाहतीं, क्योंकि वे कमजोर पड़ रहे हैं। इस स्थिति में लश्कर सबसे अहम बनकर उभरा है और एक डील के तहत उसकी आड़ में सेना के लोग कश्मीर में घुसपैठ कर रहे हैं।
एक रिपोर्ट तो यह भी कहती है कि लश्कर के अब्दुल वहीद कश्मीरी और लखवी ने आर्मी और आईएसआई के लोगों के साथ कई मुलाकातें की हैं। लश्कर ने पैसे, हथियार और दूसरे संसाधनों के मामले में पूरा सहयोग हासिल कर लिया है। अब यही पाकिस्तानी अजेंडे का मुख्य किरदार है। लेकिन चूंकि जैश और हिज्बुल को नाराज नहीं किया जा सकता, इसलिए लश्कर उनके लोगों की घुसपैठ कराने में भी मदद कर रहा है। पिछले दिनों कुपवाड़ा में 12 घुसपैठिए मारे गए, जिनमें से आधे जैश और हिज्बुल के थे, लेकिन उन्हें लश्कर की पहचान दी गई थी।
इतनी ही गौरतलब बात आईएसआई और दूसरे आतंकवादियों के बीच गठजोड़ की है, जिसे लेकर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने पाकिस्तान सरकार को लताड़ा है। आईएसआई के रिश्ते मौलवी जलालुद्दीन हक्कानी से बताए गए हैं, जो अमेरिका की नजर में अल कायदा का आदमी है। इस रिश्ते पर अब तक काफी बात हो चुकी है, लेकिन अमेरिका और सीआईए सीधे पाकिस्तान सरकार पर उंगली उठाने से हिचक गए हैं, जिसे वे आतंकवाद के खिलाफ जंग में अपना कीमती सहयोगी मानते हैं।
पाकिस्तान के प्राइम मिनिस्टर अभी हाल में वॉशिंगटन के दौरे पर थे। कहते हैं कि अमेरिकी प्रेजिडेंट बुश ने उनसे पूछा था कि आईएसआई पर किसका कंट्रोल है। वाइट हाउस के प्रवक्ता गॉर्डन जॉनड्रो से जब पूछा गया कि क्या इस मुद्दे पर बातचीत हुई, तो उसने जवाब देने से इनकार कर दिया। अलबत्ता अगले दिन उसने कहा कि आतंकवादियों से आईएसआई के रिश्तों की बात पर यकीन नहीं किया जा सकता। उसने कहा, 'हम इसकी इजाजत नहीं देंगे।'
अमेरिकी खुफिया अफसरों का कहना है कि हक्कानी का नेटवर्क अफगानिस्तान के भीतर बढ़ते आतंकी हमलों के लिए जिम्मेदार है। पाकिस्तान के कबाइली इलाकों में आतंकवादियों की शरणगाह बनाने का काम भी इसी ने किया है। अमेरिकी सेना के एक्टिंग कमांडर मार्टिन डेम्पैसी ने हाल में कबाइली इलाकों का दौरा किया। इससे अमेरिका की बेचैनी का पता चलता है।
भारत और अफगानिस्तान पर दबाव डालने या जानकारी इकट्ठा करने के लिए कई दशकों से आईएसआई ने आतंकवादियों से संपर्क बना रखे हैं। लेकिन यह बात साफ नहीं कि अब जिस रिश्ते की बात सीआईए कर रही है, उन्हें सेना और सरकार के ऊंचे स्तर से सहमति हासिल है या फिर यह कुछ शरारती तत्वों की करामात है।
इन तमाम चिंताओं और दबावों के बीच यह माना जाता है कि पाकिस्तान की नई सरकार आईएसआई पर लगाम कसने की कोशिश कर रही है। लेकिन अमेरिका को डर है कि आईएसआई उस दौर से भी ज्यादा ताकतवर हो सकती है, जब देश का राज मुशर्रफ के हाथों में था।
पिछले हफ्ते सरकार ने आईएसआई को पहले से ज्यादा सिविलियन कंट्रोल में लाने की कोशिश की और उसे मात खानी पड़ी। कुछ ही घंटों के भीतर उसने अपना फैसला वापस ले लिया। माना जाता है कि इसके लिए आर्मी की तरफ से दबाव पड़ा। आर्मी नहीं चाहती कि आईएसआई पर उसकी पकड़ कम हो। यह एजेंसी सियासी हलचलों पर नजर रखने का उसका जरिया है। हर सैनिक शासक ने इसका इस्तेमाल किया है। सरकार के कदम से उसका चिढ़ना स्वाभाविक ही था।
अब अगर हम पाकिस्तान की इन तमाम गड़बड़ियों के संदर्भ में देखें तो हाल की घटनाओं का रहस्य साफ हो जाएगा। बात चाहे चार साल से जारी सीजफायर को तोड़ते हुए एलओसी पर गोलीबारी की हो या फिर भारत और अफगानिस्तान में आतंकवादी हमलों की, ये सभी पाकिस्तान की शासक एजेंसियों की सोची-समझी कार्रवाइयां हैं।
असल बात तो यह है कि पाकिस्तान में सरकार का सिस्टम ठप पड़ गया है। हाल के चुनावों के बाद हालात सुधरने की बजाय नई उलझनें पैदा हो गई हैं। नतीजा यह कि सरहदी सूबे और बलूचिस्तान में शासन की स्थानीय एजेंसियां मनमाने तरीके से काम करने लगी हैं। उन्हें इस्लामाबाद से कोई निदेर्श नहीं मिल रहा और न उन्हें इसकी जरूरत महसूस हो रही है। लेकिन पाकिस्तान में ऐसा होना कोई असामान्य बात नहीं है।
लोकल एजेंसियां तब भी बेकाबू हो गई थीं, जब 1948 में मेजर अकबर खां ने कश्मीर में सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी थी। सन 1997 में अफगानिस्तान में आईएसआई की लोकल यूनिटों ने तालिबान की सरकार को अपनी सरकार से जबरन मान्यता दिलवा दी थी। जानकार मानते हैं कि एक बार फिर वैसा ही माहौल बन रहा है। गिलानी सरकार देश का शासन चलाने में नाकाम हो चुकी है। ऐसे हालात में हमारे विदेश विभाग के कर्ताधर्ताओं को उन तमाम विकल्पों पर सोचना चाहिए, जो भारत के सामने हैं। बातचीत की प्रक्रिया तो बेशक जारी रहनी चाहिए, लेकिन पाकिस्तान के सत्ताधारियों को यह समझाया जाना चाहिए कि उनकी दुस्साहसी नीतियों का क्या अंजाम हो सकता है। यह काम मुश्किल है, लेकिन विदेश विभाग की काबिलियत का इम्तहान तो ऐसे ही वक्त होता है।
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