rashtrya ujala

Thursday, August 21, 2008

हर गली असुरक्षित, हर चौराहा खतरे में

नई दिल्ली । तीन साल! 21 बड़ी आतंकी वारदात! 584 निर्दोष लोगों की मौतें! यानी हर साल करीब 200 लोग! यह है आतंक का स्कोर।अब जरा दूसरी तरफ देखें। मजबूत सुरागों तक के लाले। मामूली गुर्गो की गिरफ्तारी को कामयाबी बताने की आदतें। लंबी खिंचती जांच। सिरे से गायब समन्वय। और फिर-फिर वारदात। यह है जांच एजेंसियों और सुरक्षा बलों का रिपोर्ट कार्ड।हाल के अहमदाबाद विस्फोट को छोड़ दें तो 2005 से अभी तक 'जिहाद' के नाम पर हुई 21 वारदात में गई जानों का हिसाब तो सरकार के पास है, लेकिन मुख्य अभियुक्तों की धूल तक सरकार को नहीं मिली है। दरअसल बीस साल से आतंक की मार झेल रहे देश में राज्य व केंद्र सरकार का सुरक्षा तंत्र न तो आतंकियों जितना चालाक व आधुनिक हो सका और न ही एक इकाई के रूप में मिल कर काम करने की आदत ही डाल सका।दिल्ली, मुंबई, मालेगांव के विस्फोटों से लेकर समझौता एक्सप्रेस, श्रमजीवी एक्सप्रेस कांड, वाराणसी में विस्फोट और उत्तर प्रदेश की अदालतों में धमाके हों या फिर कर्नाटक और जयपुर के हादसे, किसी में मुकम्मल कार्रवाई तो दूर, सुरक्षा तंत्र अभी पुख्ता सूचनाएं इकट्ठा करने में भी कामयाब नहीं हो सकी है। पिछले तीन सालों में सिर्फ दो बार-अयोध्या और नागपुर संघ कार्यालय (जून 2006)- सुरक्षा बल आतंकियों के मंसूबे नाकाम कर सके हैं।दरअसल जब दुश्मन घर के भीतर छिपा हो तो कदम-कदम पर चाक चौबंदगी चाहिए, लेकिन देश में एक लाख लोगों पर मात्र 122 पुलिसवाले हैं। राज्यों में 20 फीसदी से ज्यादा पुलिस के पद खाली पड़े हुए हैं। प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे की हालत यह है कि हरियाणा और बिहार जैसे तमाम राज्यों में तो डाग स्क्वायड तक नहीं है। पुलिस को आधुनिक बनाने का हाल यह है कि केंद्र की तरफ से 2001 में पुलिस आधुनिकीकरण के एवज में एक हजार करोड़ रुपये दिए जाते थे और अब 2008 तक उसमें मात्र 200 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है। दिलचस्प है कि राज्य सरकारें यह धन भी खर्च नहीं कर पा रही हैं। आतंकियों से निबटने के लिए अच्छी फोरेंसिक लैब, वैज्ञानिक जांच आदि सभी कुछ चाहिए लेकिन इन सब पर पिछले दो दशकों में योजनाबद्ध ढंग से ध्यान नहीं दिया गया।कई-कई स्तरों पर फूल प्रूफ योजना बनाने वाले आतंकियों के सामने यह खुफिया तंत्र खड़ा ही नहीं हो सकता। यहां तो केंद्रीय खुफिया एजेंसी का अधिकारी किसी जानकारी को पहले केंद्र को देता है और फिर केंद्र राज्य को आगाह करता है। इतने वक्त में तो बहुत कुछ हो चुका होता है। इसके अलावा खुफिया एजेंसियों का राजनीतिक इस्तेमाल एक कड़वा सच है।अहमदाबाद के हालिया विस्फोट और सूरत में विस्फोटकों की बरामदगी के बाद पकड़ी गई चारों कारें नवी मुंबई से चुराई गई थी और इनमें विस्फोटक लाया गया था। यानी आतंकी चोरी की कारों पर लाद कर विस्फोटक लाते हैं और स्कूटरों व बाइक में रख कर उसे उड़ा देते हैं। वाहन पर आधुनिक नंबर प्लेट सिस्टम इसे रोक सकता है, लेकिन 2001 में बनी यह योजना सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी न केंद्र के गले उतरी न राज्यों के। हालत यह है कि अभी तक सिर्फ मेघालय ने इस योजना को अमल में लाने की प्रक्रिया शुरू की है।कुल मिलाकर देश में आतंक की आमद, तंत्र और उसने निबटने के तैयारियों की सूरत यह है। बात कड़वी, लेकिन सच है कि फिलहाल देश में हर गली असुरक्षित है और हर चौराहा खतरे में। आतंकी कहीं भी, कभी भी और किसी भी समय मौत का मंजर तैयार कर सकते हैं। बकौल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन, 'हमला ल-थल-नभ कहीं से भी हो सकता है।' ..हां, सच है कि जिंदगी पर हमला कहीं से भी हो सकता है।तीन प्रमुख घटनाओं में जांच की स्थितिदिल्ली में श्रृंखलाबद्ध विस्फोट: 29 अक्टूबर, 2005-67 मौतें, 224 जख्मी हुए। साजिश के तीन असली सूत्रधारों में प्रमुख अबू अलकमा व जायद अभी भी पकड़ से बाहर हैं। इनके बारे में सूचना के अभाव में रेड कार्नर नोटिस तक जारी नहीं किया जा सका।मुंबई लोकल ट्रेनों में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट : 11 जनवरी 2006-सात विस्फोटों में 184 मौतें, 900 घायल लश्कर-ए-तैयबा और सिमी की मिलीभगत से अंजाम दी गई इस सबसे बड़ी वारदात के 10 पाकिस्तानी और पांच भारतीय मूल के असली सूत्रधार फरार हैं। उन्हें भगोड़ा घोषित किया गया है। घटना के मुख्य अभियुक्तों, रिजवान दावरे और राहिल शेख, के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस। आजम चीमा और सोहेल शेख वांछितों की सूची में।मालेगांव विस्फोट: 8 सितंबर 2006- 31 मौतें, 295 घायल। राज्य की विशेष पुलिस शाखा के हाथ कुछ नहीं लगा तब मामले की जांच सीबीआई को दी गई। मुख्य अभियुक्त फरार

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