rashtrya ujala

Thursday, August 14, 2008

कुछ ज़्यादा ही ठीक निशाना

एक नागरिक ने टारगेट पर निशाना लगा दिया। भारत की इकसठवीं सालगिरह के कुछ पहले एक खूबसूरत नौजवान निशानेबाज़ ने लगातार राष्ट्रीय अपमान, एक दर्जा नीचे रहने की तकलीफ और गुलामी की याद के रहस्यमय काले पर्दे में अपनी एयर राइफल से अनगिनत छेद कर दिए। अब उन छेदों से आरपार देखा जा सकता है। सुनहरी सफलता हमारे खाते में है और बहुत बड़ी आबादी को इस देश में जन्म लेने का मतलब मिल गया है।
लेकिन यह सफलता किसकी है? बेशक सबसे पहले और सबसे ज़्यादा उस तपस्वी खिलाड़ी अभिनव बिंद्रा की जिसने अपने शरीर, अपने दिमाग, अपने स्नायुतंत्र अपनी आत्मा और अपनी ज़िंदगी में से सर्वोत्तम अंश इस अभियान पर खर्च कर दिए हैं। इसके बाद सफलता उसके माता-पिता और परिजनों की है। उनके बाद उन लाखों-करोड़ों बेचैन शुभकामनाओं की बारी है जिन्होंने एक लम्बे अंतराल के बाद अपना काम कर दिखाया। लेकिन इतने ही उत्साह से क्या सरकार के खेल-तंत्र का नाम लिया जा सकता है? स्वर्ण पदक विजय के बाद से आ रही खबरों के मुताबिक भारतीय ओलिंपिक संघ और स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के भारी भरकम, अनियोजित, गाफिल, पस्त और लद्धड़ तंत्र के बरक्स अभिनव के अमीर और समर्पित पिता ने विश्वस्तरीय सुविधाओं से सजे एक समांतर तंत्र का इंतजाम अपने बेटे के लिए कर रखा था। इस तंत्र में ओलिंपिक और दूसरी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के टक्कर का शूटिंग रेंज था, अभ्यास करने के लिए एक करोड़ रुपये के कारतूस थे, पीठ और कमर में दर्द हो जाने पर म्यूनिख में रह रहे दुनिया के आला खेल विज्ञानी और चिकित्सक थे, और बरसों तक विदेश में रहकर अपने खर्चे से हासिल किया जा रहा सघन आधुनिकतम प्रशिक्षण था।
पदक हासिल करने के बाद भारत सरकार की कई एजेंसियों ने नकद पुरस्कारों की जो बारिश अभिनव पर की है उसको जोड़ देने पर जो राशि बनती है, उतनी ही या उससे कुछ ज़्यादा वह निजी तौर पर अपनी तैयारियों पर खर्च कर चुका है। ऐसे में, निजीकरण की अवधारणा के वकील खुश हो सकते हैं और कह भी सकते हैं कि यह निजी निवेश का स्वर्ण पदक है और इसी रास्ते पर चलकर सफल हुआ जा सकता है।
यकीनन यह गौरव का ऐतिहासिक क्षण है और किसी को भी इस मौके पर देश का जायका खराब करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। यह भी सच है कि ओलिंपिक का स्वर्ण पदक हमसे बहुत दूर था। हमारा समाज इसके सामने खुद को इतना हीन और असहाय मानता आया है कि हमारे सार्वजनिक व्यवहार, फिल्मों, टेलीविजन सीरियलों, चुटकुलों और किस्से-कहानियों में, हमारे मज़ाक तक में किसी ने कभी व्यक्तिगत स्पर्द्धा में ओलिंपिक का स्वर्ण नहीं जीता है। हमारी नींद में आने वाले ख्वाब ओलिंपिक मंच में सोने के पायदान तक नहीं पहुंच पाते और हॉकी में मिले स्याह-सफेद खिताब इतनी दूर चले गए हैं कि लगता है किसी ख्वाब में ही कभी हमें दे दिए गए थे।
ऐसे माहौल में 11 अगस्त की सुबह अपने टीवी सेटों पर जिन लोगों ने 'जन गण मन' की धुन सुनी और तीन झंडों में तिरंगे को कुछ ऊपर रहकर आकाश की ओर जाते देखा, उन्हें इस दृश्य को सच मानने में थोड़ा वक्त लगा, लेकिन इस दृश्य को अपना दृश्य मानने में थोड़ा और वक्त लग सकता है। निशानेबाज़ की निजी कोशिशों का सर्वोत्तम परिणाम तो यह है, लेकिन उसकी कोशिशों में सत्ता और समाज की कितनी कोशिशें शामिल हैं यह सवाल हमारे लिए हमेशा भ्रम और अफसोस का मुद्दा बना रहेगा।
यह विजय सिर्फ एक खिलाड़ी की इच्छाशक्ति और एकाग्रता के दम पर, बीती बहुत सी पराजयों के प्रतिकार की तरह उभर रही है। जिस देश के प्रधानमंत्री का कोट विदेश धुलने जाता था, उस देश के खिलाड़ी लहूलुहान नंगे पैरों के साथ खेल के मैदान में उतरते आए हैं। एशियाई खेलों के एक चैंपियन गोलगप्पे का खोमचा लगाते थे। इस ओलिंपिक में भी भारत के दो पहलवान शाकाहारी भोजन के लिए कुछ समय तक पेइचिंग में भटकते रहे। 1980 ओलिंपिक की स्वर्ण विजेता हॉकी टीम के सितारे 1986 में पाकिस्तान से एक मैच हार गए तो उन्हें गद्दार कहा गया। उन्हें बताया गया कि तुम मुसलमान हो। खिलाड़ी इसी तरह हताहत होकर मैदान से बाहर अपने शहर, अपने मुहल्ले, अपने रिश्तेदारों, अपने मजहब, अपनी जाति में लौट जाता है। ताकत का तंत्र लोगों को तयशुदा और कम से कम हैसियत में देखना चाहता है, लेकिन अपनी प्रतिभा और मेहनत जगमगाने वाले कुछ लोग तंत्र की हैसियत से ऊपर हो जाते हैं; तब तंत्र अपने हक में उनका इस्तेमाल करने की तिकड़म करने लगता है। इस पूरी प्रक्रिया में कदम-कदम पर भारी हिंसा है। भारत जैसे विशाल समाज में एक साथ इतनी हलचलें होती रहती हैं कि कई बार ईमानदार होने के बावजूद हम बड़ी सफलताओं को देख और दिखा नहीं पाते और भ्रम का माहौल बना रहता है।
लेकिन इस बार निशाना कुछ ज़्यादा ही ठीक जगह पर लग गया है। अभी तो स्प्रिंग बोर्ड गोलियों से थरथरा रहा है। कुछ दिनों में हम देखेंगे कि खेलों की दुनिया में चल रही बेइमानी और धंधेबाज़ी के दिल पर भी गोली लग गई है। सरकारी अमला भी इस हस्तक्षेप के आगे थरथराता नज़र आएगा। वह या तो निस्तेज पड़ जाएगा या श्रेय लूटने की कोशिश करने लगेगा। उसकी हरकतों से साबित हो जाएगा कि उसे बदल दिया जाना चाहिए। इस स्वर्ण पदक का एक प्रतीकात्मक मतलब भी है। यह तेज़ दौड़ने, तेज़ तैरने, ज़्यादा वजन उठाने, पटखनी दे देने, कलाबाज़ी करने ऊंचा या लम्बा कूदने से मिली सफलता नहीं है। यह सही निशाना लगाने से मिली सफलता है। यह सही निशाना लगाने को प्रेरित करती सफलता है, यह सही निशाना लगाने की राह दिखाती सफलता है। यह निशाना बनने की बजाय निशाना बनाने की चुनौती देती सफलता है। अगर समाज के चेतन और अवचेतन तक सफलता की पुकार के यही तात्पर्य पहुंच गए तो आकाओं के लिए मुश्किल हो जाएगी। असल प्रतिभाएं बिना किसी की मदद के अपनी-अपनी जगहों पर पहुंच जाएंगी और इन अभियानों से बाहर रहने वाले लोग कुछ सरल और दयनीय वाक्यों की शरण में चले जाएंगे, मसलन् 'अभिनव ने इतिहास रच दिया है' या 'देश को तुम पर नाज है'।

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