कंधमाल । उड़ीसा के आदिवासी जिलों में फिलहाल दिख रही शांति और खामोशी की राख के नीचे आक्रोश की आग बदस्तूर सुलग रही है। हालात बेहद तनावपूर्ण हैं। प्रशासन की कोई भी चूक चिनगारी भड़का सकती है।अल्पसंख्यकों को पुचकारने के लिए जहां सरकार ने राहत शिविर शुरू किए हैं, वहीं संघ से जुड़े कार्यकर्ता पुलिस की धरपकड़ से बचने के लिए भागते फिर रहे हैं। नफरत की आग शहर व कस्बों के रास्ते गांवों तक पहुंच गई है।जनजातीय 'कांध' और दलित 'पाण' के बीच का विवाद ईसाईकरण के चलते खूनी रंजिश में तब्दील हो चुका है। हैरानी की बात यह है कि बेहद शांत और भोली-भाली आबादी वाले इस इलाके में धर्म और जाति के नाम पर कोई नफरत नहीं है। झगड़े की वजह है छोटे-छोटे लालच देकर किया जाने वाला ईसाईकरण।
बिखरता ताना-बाना
एक ओर भारतीय संस्कृति और धर्म को संरक्षित करने के साथ स्थानीय लोगों को जागरूक बनाने का दायित्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उठा रखा है, तो दूसरी ओर भोले-भाले वनवासियों को बाइबिल की महिमा बताई जा रही है और उन्हें सुखी व संपन्न बनाने का सपना दिखाया जा रहा है। इसी के सहारे धर्मातरण अभियान चल रहा है।उड़ीसा में धर्मातरण कानून सम्मत नहीं है। गोरक्षा कानून के बावजूद गोवध हो रहा है। टूट रहे इस सामाजिक ताने-बाने की चटक से कंधमाल थर्रा उठा है। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती कई दशक से यहां के लोगों के बीच उनके आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के लिए काम कर रहे थे। यहां के लोगों के लिए वह किसी भगवान से कम नहीं थे।23 अगस्त को उनकी हत्या के बाद अगले दिन उनकी शवयात्रा में उमड़ा लोगों का सैलाब उनकी लोकप्रियता का सुबूत था। सुबह निकली चार किलोमीटर लंबी शवयात्रा अपने गंतव्य पर 48 घंटे बाद पहुंची थी।
अंधाधुंध धर्मातरण:दरअसल, उड़ीसा के कंधमाल और आसपास के जिलों में 'कांध' नाम की जनजाति और 'पाण' नाम के दलितों के बीच विवाद पुराना है। पाण जातियों का ईसाईकरण बेहद आसानी से होता है, जबकि कांधों को ईसाईकरण फूटी आंख नहीं सुहाता। संबलपुर कैथोलिक चर्च के उपाध्यक्ष फादर अल्फांस टोपो के अनुसार कंधमाल में ईसाइयों की संख्या साढ़े छह लाख पहुंच गई है। वहीं कंधमाल जनजातियों का सबसे बड़ा गढ़ माना जाता है, जो हिंदू धर्म के पक्के समर्थक हैं। इनके हितों की पैरवी संघ परिवार करता है। कानूनसम्मत तरीके से 1967 से अब तक सिर्फ तीन लोग ईसाई बने हैं।
नाराजगी की खास वजह:कांधों की नाराजगी की एक खास वजह यह है कि ईसाई बने लोग दलितों को मिलने वाली सहूलियतें भी लेते हैं। कांधों को लगता है कि उनके आरक्षण कोटे में पाण की सेंध अनुचित है। मुश्किल यह है कि सरकारी दस्तावेजों में पाण आज भी दलित हैं। आधिकारिक तौर पर उन्हें ईसाई नहीं माना गया है। यह सरकारी चूक विवाद को भड़काने में घी का काम कर रही है। इसे लेकर कट्टरपंथी ईसाई और हिंदुओं में उबाल है जो गाहे-बगाहे हिंसा का रूप ले लेता है।उड़ीसा में धर्मातरण विरोधी कानून की कहानी भी खूब है। कानून तो है, पर अमल नहीं होता। एकाध बार कानून पर अमल किया भी गया तो अमल कराने वाले सरकारी अफसर को ही दंडित कर दिया गया। लिहाजा कभी किसी जिला प्रशासन ने अमल करने की हिम्मत नहीं जुटाई।यह कानून राज्य में पहली बार 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजेंद्र नारायण सिंह देव के कार्यकाल में बना। कानून की अवहेलना करने वाले को कैद और जुर्माना लगाने का प्रावधान था। अगर अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के व्यक्ति का धर्मातरण किया गया तो दंड दोगुना देना होगा। मामले की जांच भी आला अफसर के हाथ सौंपे जाने का प्रावधान था। कानून के तहत पुजारी या पादरी को धर्मातरण समारोह की सूचना और विस्तृत जानकारी जिला प्रशासन को 15 दिन पहले देने का भी प्रावधान किया गया। लेकिन यह कानून कभी ढंग से लागू ही नहीं हुआ। 22 साल बाद राज्य सरकार की नींद खुली और 1989 में संशोधन किया गया।नवरंगपुर के तत्कालीन जिला पुलिस अधीक्षक ने 22 लोगों के खिलाफ कार्रवाई की तो उन्हें दंडित करते हुए उनका तबादला कर दिया गया। तब से आज तक उस कानून के आधार पर केवल तीन लोगों का अधिकृत धर्म परिवर्तन हुआ है।
No comments:
Post a Comment