उसका नाम हमीद है। पिछले कई सालों से यह युवा कश्मीरी अमरनाथ की यात्रा पर जाने वालों का काम करके होने वाली आय से अपना परिवार पाल रहा है। परिवार में उसके मां-बाप के अलावा दो बहनें और एक भाई है। छह व्यक्तियों का यह परिवार आजकल परेशान है- जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उसके चलते इस परिवार की आय पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। कश्मीर के फल उत्पादक और व्यापारियों के परिवार भी परेशान हैं। जम्मू का रामलाल भी ऐसी ही परेशानी का शिकार है- वह ट्रक चलाता है और ट्रक चल नहीं रहे।
लेकिन अमरनाथ ट्रस्ट को लेकर चल रहे विवाद से सिर्फ कोई हमीद या रामलाल ही परेशान नहीं हैं। छोटी नहीं है उनकी परेशानी, लेकिन वह परेशानी कहीं बड़ी है जो पूरे देश के सामने आकर खड़ी हो गई है। अमरनाथ यात्रा का यह विवाद एक बार फिर देश को धर्म की राजनीति का शिकार बना रहा है। बात सिर्फ कश्मीर की उन अलगाववादी ताकतों तक ही सीमित नहीं है, जो धर्म का नाम लेकर घाटी के लोगों को बरगलाती-उकसाती रहती हैं। करो या मरो का नारा देकर वीएचपी और बीजेपी भी धर्म की राजनीति की आंच पर अपनी रोटियां सेंकने का अवसर देख रही हैं।
यूं देखा जाए तो मसला बहुत छोटा सा है। अमरनाथ की पवित्र गुफा की यात्रा पर जाने वालों की सुविधा व्यवस्था आदि के लिए राज्य सरकार से जमीन का एक टुकड़ा अमरनाथ श्राइन बोर्ड को देने का निर्णय किया, ताकि वहां अस्थायी ढांचे बनाए जा सकें। कश्मीर के पृथकतावादी संगठनों को इसमें कश्मीर की आबादी का गणित गड़बड़ाने का खतरा दिखने लगा। सरकार ने विरोध को देखते हुए बोर्ड को जमीन देने का निर्णय वापस ले लिया। इस पर जम्मू के हिंदू भड़क उठे। आंदोलन शुरू हो गया। बात सीधी सी है- कश्मीर के कुछ मुस्लिम संगठनों को बोर्ड को जमीन देने का विरोध करना ही नहीं चाहिए था। गलत था यह विरोध। लेकिन, इस गलत को सही करने के लिए अमरनाथ संघर्ष समिति ने जो रास्ता अपनाया वह भी इतना सही कहां था? यदि सवाल यात्रियों की सुविधा का ही है, तो यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि सुविधा कौन जुटाता है।
बोर्ड के गठन से पहले भी सुविधाओं की व्यवस्था होती ही थी। उन्हें और भी बढ़ाया जाना चाहिए, बढ़ाया जा सकता है। दोनों पक्षों ने जो रास्ता अख्तियार किया है उसके औचित्य पर सवाल उठना चाहिए। इस मसले पर यदि जम्मू-कश्मीर जम्मू और कश्मीर में बंटता है तो यह हमीद और रामलाल दोनों का अहित ही होगा और हमीद या रामलाल का अहित देश का हित नहीं हो सकता। देश के हित का तकाजा है कि इस समस्या का हल जल्दी खोजा जाए।
राजनीतिक दल इस संदर्भ में अपनी विवशताएं दिखला चुके हैं। महबूबा मुफ्ती की पार्टी बोर्ड को जमीन देने के निर्णय में शामिल थी, पर इसी मुद्दे पर सरकार गिराने में उसे कोई संकोच नहीं हुआ। जम्मू-कश्मीर के फल व्यापारियों के हितों के नाम पर वह अलगाववादी हुर्रियत के साथ चलने के लिए भी तैयार है।
फारूख अब्दुल्ला कहने लगे हैं कि उन्हें अपने पिता के भारत के साथ जाने के निर्णय के बारे में सोचना पड़ रहा है। कांग्रेस सर्वमान्य हल की आशा ही जता रही है, पर कोई रास्ता नहीं जानती और बीजेपी शेष भारत में इस मसले का लाभ उठाने की फिराक में है। कोई भी पक्ष यह सोचना नहीं चाहता कि आज जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हो रहा है अंतत: उससे पूरा देश ही घाटे में रहेगा।
कहीं न कहीं यह बात रेखांकित होनी ही चाहिए कि देश का हित सर्वोपरि होता है और इस बात को भी समझा जाना जरूरी है कि किसी भी क्षेत्र या वर्ग के अहित से देश का हित नहीं सधता। देश का हित सबके हित में समाहित है और सबके हितों की सुरक्षा ही देश को सुरक्षित बना सकती है। धर्म, भाषा या क्षेत्र के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ तो सध सकते हैं, देश का हित नहीं।
देश के बाकी हिस्सों की तरह जम्मू-कश्मीर भी देश का अविभाज्य अंग है। इसी रिश्ते का तकाजा है कि देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले किसी भी धर्म या जाति के नागरिक को गैर न समझा जाए। राष्ट्र हित की बात करने वालों की यह कोशिश होनी चाहिए कि देश के हर नागरिक के हित की रक्षा हो। यदि किसी को यह लग रहा है कि उसके हितों की अनदेखी हो रही है तो उसकी शिकायत को दूर करने की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए।
जम्मू वालों की लम्बे अर्से से शिकायत रही है कि घाटी के हितों के लिए उनके हितों की उपेक्षा हो रही है। अमरनाथ यात्रा के नाम पर भड़के गुस्से में इस उपेक्षा का अहसास भी है। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार दोनों को जम्मू-कश्मीर के सभी हिस्सों के संतुलित विकास की नीति अपनानी होगी। लेकिन यह लम्बी प्रक्रिया है। फिलहाल तो जरूरत इस असंतोष को समाप्त करने की है, जिसके चलते हमीद और रामलाल का जीना दूभर हो रहा है। दोनों का हित इस बात में है कि अमरनाथ यात्रा निर्बाध चलती रहे। यात्रियों की सुविधा जरूरी है, भले ही वह बोर्ड जुटाए या फिर सरकार या कोई और एजंसी।
लेकिन, जब कोई व्यक्ति या समूह या दल सबके हितों की कीमत पर अपना स्वार्थ साधना चाहता है तो मसले उलझते ही हैं। अमरनाथ के नाम पर यदि देश भर में कोई आंदोलन चलाने की बात की जा रही है तो इसमें समस्या सुलझाने के बजाय उलझाए रखने की ही गंध आती है। कुछ मसले आंदोलनों से नहीं, आपसी समझ से सुलझते हैं।
देश का नेता कहलाने वालों को यह बात समझनी होगी। आज देश को आपसी समझ को विस्तार देने की जरूरत है। कोई आंदोलन यदि होना ही है तो वह ऐसी समझ के विकास के पक्ष में ही होना चाहिए। अयोध्या कांड से किसी दल विशेष के हित भले ही सधे होंगे पर भारतीय समाज का ताना-बाना कमजोर ही हुआ था। आज यदि कोई अमरनाथ को अयोध्या बनाने की धमकी दे रहा है तो इससे भी राष्ट्रीय एकता के रेशे कमजोर ही होंगे, जरूरत इन रेशों को मजबूत बनाने की है- हर कीमत पर।
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