अर्थहीन खबरों और लोगों का ऐसा शोर है कि कई ऐसी खबरें दम तोड़ देती हैं जिन्हें दबने देना नहीं चाहिए, जिनमें जीवन है, सोच और संवेदना है और सबसे बड़ी बात कि आज के इस अंधकार को काटने और इसमें से रास्ता निकालने की शक्ति है। ऐसी खबरों को समाज के सामने रखना, रखते रहना पत्रकारिता का अलिखित ही सही, लेकिन घोषित धर्म है।
राजीव गांधी की हत्या के जो पांच अपराधी घोषित हुए, उनमें से धनु वहीं मारी गई। शिवरासन और सूबा को सुरक्षा बलों ने मार डाला। बचे हैं दो- नलिनी श्रीहरन और उसके पति मुरुगन। दोनों को अदालत ने फांसी की सज़ा सुनाई थी, लेकिन उनकी ज़िंदगी और मौत के बीच आ खड़ी हुईं सोनिया गांधी। जब वह इस तरह आगे आईं तब आज की तरह शक्तिशाली और देश की सबसे बड़ी नेताओं में नहीं थीं। वह बहुत ही निजी किस्म की, राजनीति की जिस आग में उनके पति राजीव होम हुए, उससे अपना दामन व अपने बच्चों को बचाती एक महिला थीं, जिस पर राजनीति के दिग्गज 'विदेशी' की तलवार भांजते सकुचाते नहीं थे। उस सोनिया गांधी ने अपनी प्रेरणा से आगे आकर कहा: नहीं, राजीव की जान के बदले मुझे नलिनी की जान नहीं चाहिए। नलिनी ने जेल में ही एक बेटी को जन्म दिया- मेगारा।
मां-पिता दोनों को फांसी होगी तो इस बच्ची का क्या होगा? सवाल ऐसा था कि हमारे-आपके किसी के भी जहन में उठ सकता था, लेकिन क्या सोनिया के भी? राजीव गांधी हमारे प्रधानमंत्री रहे थे, हो सकता है कि कई लोगों की तरह हम भी उन्हें देश का सबसे अच्छा तारणहार मानते हों, लेकिन राजीव हमारे घर के सदस्य नहीं थे। लेकिन सोनिया गांधी का तो संसार ही उजड़ गया था, राजीव उनके लिए प्रधानमंत्री या देश के नेता भर नहीं, उनकी ज़िंदगी भी थे। लेकिन अपनी अपूरणीय व्यक्तिगत क्षति के उस दौर में भी सोनिया ने अदालत से अपील की कि इस बच्ची के भविष्य का खयाल रखकर उसके माता-पिता को फांसी नहीं दी जाए। अदालत ने वह अपील सुनी और फांसी की सजा आजन्म कैद में बदल गई। पति मुरुगन को उनकी जेल से निकाल कर वेलूर जेल लाया गया, ताकि दोनों एक ही जेल में रह सकें।
अभी 3 अगस्त को खबर आई कि नलिनी ने किसी इंटरव्यू के सवाल के जवाब में कहा कि राजीव गांधी की हत्या का उन्हें अफसोस है... उनकी हत्या से देश को क्षति पहुंची, वह महान नेता थे। खबर यह भी है कि अदालत के पास उसका वह प्रार्थनापत्र विचाराधीन है, जिसमें उसने समय से पहले ही रिहा करने की मांग की है। सहज ही लगेगा कि नलिनी अपनी रिहाई की ज़मीन तैयार करने के लिए राजीव की हत्या के बारे में ऐसी बातें कर रही है। जिन्हें मानवीय सद्वृत्तियों और अच्छाई की तरफ जाने की कुदरती इच्छा पर भरोसा नहीं है, वे ज़रूर नलिनी के इस रवैये को इसी तरह हवा में उड़ाएंगे, लेकिन ...
लेकिन सोनिया ने उस वक्त जो खिड़की खोली उसमें से एक और चेहरा दिखा- प्रियंका का। हम उस प्रसंग को भूलेंगे तो इस खबर की गहराई से चूक जाएंगे। पिछले दिनों अचानक ही खबर आई कि प्रियंका नलिनी से मिलने वेलूर जेल पहुंची। इस मुलाकात में से हम मनुष्य की अच्छाई की वृत्ति को निकाल दें तो यह एकदम अकारण और गैरज़रूरी मुलाकात थी। पिता के हत्यारे को सज़ा मिल गई, वह ताउम्र जेल में रहेगी, इससे अधिक हमारा अपराधशास्त्र किसी को क्या दे सकता है? ऐसा भी नहीं था (कम से कम हमारी जानकारी में) कि सोनिया परिवार और नलिनी परिवार में रोज़-रोज़ का संवाद चल रहा है और दोनों एक-दूसरे के काफी करीब हैं। पिता के हत्यारे से मिलने प्रियंका अपनी पहल से जेल पहुंची। उसका कोई शोरशराबा नहीं हुआ। मुलाकात में क्या हुआ, इसकी भी कोई जानकारी उनकी तरफ से सामने नहीं आई।
ऐसा मामला हो तो उसके पीछे चल रही गहरी मानवीयता को पहचानना मुश्किल नहीं होना चाहिए और इसलिए अब अदालत के सामने आई रिहाई की नलिनी की प्रार्थना और प्रियंका की मुलाकात के बीच की कड़ी को पहचानना भी मुश्किल नहीं होना चाहिए। नलिनी की रिहाई पर अगर किसी की आपत्ति सबसे अधिक वजन रखती है तो वह सोनिया परिवार की ही हो सकती है। उस परिवार ने नलिनी को ऐसी किसी आपत्ति की आशंका से मुक्त न किया हो और नलिनी ने ऐसी प्रार्थना अदालत के सामने रख दी हो, ऐसा तो काई भी नहीं मानेगा। नलिनी अपनी बेटी को सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनाना चाहती है। अभी मेगारा श्रीलंका में अपने दादा-दादी के साथ रह रही है। अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाने के लिए उसे भारत आना है। मदास हाई कोर्ट ने भारत लौटने की उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली है। अदालत ने कहा कि भारत आना उसका अधिकार है, क्योंकि वह जन्मना तो भारतीय ही है।
राजनीतिक मतभेद अपनी जगह है, लेकिन मानवीय स्तर पर कुछ बहुत ही गहरा, गरिमामय और विशिष्ट है इस प्रसंग में। हम यहां ऐसा कुछ पाते हैं जो भारतीय नीति के गंदले आसमान में जल्दी नज़र नहीं आता।
हम देख ही रहे हैं कि एक तरफ अफज़ल गुरु को आज और अभी फांसी की गुहार लगाते लोग हैं, जबकि सभी जानते हैं कि अफज़ल के मामले में कई सवाल बाकी हैं। हत्यारे किसी इंसान की जान लेते हुए उससे जुडे़ नैतिक या न्यायगत सवालों की नहीं सोचते, लेकिन जब व्यवस्था ऐसा करती है तो उसे हजार बार इस बारे में संतुष्ट हो लेना चाहिए कि जिसे सजा मिल रही है, वह ऐसी सज़ा का सौ फीसदी अधिकारी है। ऐसा है या नहीं, इसकी जांच के लिए व्यवस्थाएं बनी हुई हैं। अफज़ल का मामला राष्ट्रपति के पास है और हमें इतना भरोसा करना ही चाहिए कि जब वे इस सज़ा के औचित्य से सहमत हो जाएंगी तो अपनी रज़ामंदी दे देंगी। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक कानून की मर्यादा और इंसानी ज़िंदगी के संरक्षण की बुनियादी भावना से भी हमें चुप रहना चाहिए। लेकिन बातें ऐसी होती हैं मानो इस एक आदम को फांसी मिल जाए तो हमारे देश से आतंकवाद मिट जाएगा।
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