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Monday, August 25, 2008

'बेनामी' कानूनी कवायद

निर्मेश त्यागी
सरकार बेनामी संपत्तियों
को उजागर करने के लिए इससे जुड़े कानून में संशोधन करने पर कथित तौर पर विचार कर रही है, हालांकि ऐसा मुश्किल ही लगता है। व्यापक संस्थागत सुधारों और राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाए बगैर ऐसे कानूनों में कोई भी संशोधन इन्हें सिर्फ उत्पीड़न और भ्रष्टाचार के औजार ही बना कर छोड़ेंगे। आज के दौर में रियल एस्टेट इकलौता ऐसा बड़ा धंधा है जिसके माध्यम से बड़े पैमाने पर काले धन को छुपाने का खेल किया जाता है। ऐसे में बेनामी संपत्तियां और खरीद-फरोख्त की कीमत को कम बताने के हथकंडे भ्रष्टाचार के सबसे कारगर औजार बन जाते हैं। बेनामी संपत्ति (विनिमय) कानून में प्रस्तावित संशोधन के तहत अधिकारी एक ऐसी संपत्ति को बेनामी 'मान' लेंगे जिसके धारक के पास आय का कोई प्रत्यक्ष स्त्रोत नहीं होगा। संपत्ति को बेनामी 'मानने' संबंधी इस प्रावधान का नुकसान यह होगा कि बगैर संपत्ति के विवरण में गए इस पर जुर्माना लगाया जा सकेगा, यदि संपत्ति धारक उसे खरीदने संबंधी अपनी वित्तीय क्षमता का सबूत नहीं दे सके। भले ही यह प्रावधान कागजी तौर पर अच्छा लगे, लेकिन इससे काले धन पर आधारित अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान पहुंचेगा। प्रॉपर्टी के बाजार में भ्रष्टाचार सिर्फ लक्षण है, असल मर्ज हमारे चुनावों में लगने वाला धन है। चुनावी खर्च पर रोक लगाए जाने के बाद अब राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के लिए जरूरी हो गया है कि वे अपना काला धन कहीं और निवेश करें। यहीं पर रियल एस्टेट उनके लिए रामबाण बन कर आता है। यह क्षेत्र न सिर्फ काले धन को पैदा करता है, बल्कि नेताओं को सहूलियत भी देता है।
सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में सुधार की पहल
अब संकेत साफ मिल रहे हैं कि सरकार देश की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में आर्थिक सुधारवादी बदलाव लाने जा रही है। पेंशन विधेयक पर सरकार की तैयारी के अलावा इसे इस बात से समझा जा सकता है कि उसने गैर-सरकारी पेंशन, ग्रेच्युटी और सुपरऐनुएशन फंड के लिए निवेश के मानकों को लचीला बना दिया है। इससे पहले ईपीएफ कोष के प्रबंधन को निजी कंपनियों द्वारा आउटसोर्स कराए जाने का कदम उठाया ही गया था।
ये सारे बदलाव हालांकि मामूली स्तर पर ही हो रहे हैं। जरूरत पेंशन पर एक ऐसी राष्ट्रीय नीति की है जो सभी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को अपने भीतर समाविष्ट कर सके। आज पेंशन की कवरेज आय और पेशे पर आधारित होती है जिसका ढांचा बिखरा हुआ है जहां ईपीएफओ संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों की रिटायरमेंट आय का प्रबंधन करता है, जबकि नई पेंशन नीति सरकारी कर्मचारियों को केंद्र में रखेगी। इसके अलावा कुछ ऐसे फंड हैं जो बड़ी कंपनियों की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की देखरेख करते हैं और जिनका कोष अनुमान के आधार पर 50,000 करोड़ के आसपास है। इनके अलावा हम परिसंपत्तियों का प्रबंधन करने वाली फर्मों यूटाआई और फ्रैंकलिन टेंपलटन द्वारा चलाई जाने वाली रिटायरमेंट योजनाएं और पीपीएफ समेत लघु पेंशन योजनाएं और बीमा फर्मों के कुछ उत्पाद भी मौजूद हैं।
इसका नतीजा यह होता है कि रिटायरमेंट के बाद अपने लिए बचत की चाह रखने वाले अधिकतर भारतीय उन पेंशन योजनाओं से वंचित रह जाते हैं जो पेशे के आधार पर भेदभाव नहीं करतीं। अब तक ईपीएफओ का प्रबंधन बहुत खराब रहा है। अब तक भारत के नीति निर्माताओं ने सामाजिक सुरक्षा या पेंशन योजनाओं को सेवा प्रदाता के नजरिये से ही देखा है, कर्मचारियों के नजरिये से नहीं। इन दिक्कतों को संबोधित करने के लिए एक नई नीति की तुरंत दरकार है। यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार को पेंशन और वित्त विधेयक में ऐसे बदलाव लाने चाहिए जिससे सभी योजनाएं पीएफ नियामक एजेंसी के दायरे में आ सकें। इस पर कोई भी टालमटोल पेंशन सुधारों पर प्रगति को बाधित कर सकती है।

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