कत मलकांबुधकर
हरिद्वार आने वाले शायद दो-चार प्रतिशत तीर्थयात्री और सैलानी ही जानते होंगे कि यहां ' नारायणी शिला ' नामक कोई ऐसा मंदिर भी है , जहां लोगों द्वारा प्रेतबाधाओं से अपनी या प्रेत योनि से अपने पितरों की मुक्ति का अनुष्ठान किया जाता है। सामान्यतया उत्तराखंड के तीर्थ हरिद्वार में होने वाले हर मेले का केंद्र यहां की पुराण प्रसिद्ध हरकी पौड़ी ही होती है। हर बारहवें साल महाकुंभ तक का मुख्य स्नान भी इसी हरकी पौड़ी पर संपन्न होता है। पर शारदीय नवरात्रों से पहले कभी आप पितृपक्ष की चतुर्दशी के दिन हरिद्वार आएं , तो पाएंगे कि उस दिन हरकी पौड़ी पर भी उतना बड़ा मेला नहीं लगता , जितना इस अल्पज्ञात मंदिर नारायणी शिला पर लगता है। मरणोत्तर अवस्था की कुशलता के लिए मेला! पूरे साल इस मंदिर में देश-विदेश से सभी जातियों-वर्णों के वे लोग आकर अनुष्ठान कराते हैं , जिन्हें कोई प्रेत बाधा है या जिनके पितरों की प्रेत योनि से मुक्ति नहीं हुई है।
नारायणी शिला मंदिर के भीतर कमल के आकार वाली एक अर्धशिला है। वहीं भगवान नारायण की भी प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के बाहर भी एक शिला है , जिसे प्रेतशिला कहते हैं। मंदिर के चारों ओर लोगों ने छोटे-छोटे सैकड़ों स्मृति स्थल अपने पितृपुरुषों की सद्गति और प्रसन्नता के लिए बनवाए हैं,जिनसे प्राय: पूरा मंदिर परिसर अटा पड़ा है।
मेले के दिन आस-पास के गांव-देहात से हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष अपने बड़े-बुजुर्गों और बाल-बच्चों सहित नारायणी शिला पर पहुंचते हैं। चारों तरफ उत्सव का माहौल होता है। चाट-पकौड़ी के खोमचे , चाय और पूरी-कचौडि़यों की ठेलियां , टिकुली-बिंदी , कंघी , शीशा , चोटी-रिबन आदि की अस्थायी दूकानें , बच्चों को लुभाते खिलौने और रंगबिरंगे गुब्बारे- उस दिन सब कुछ होता है हरिद्वार के इस इलाके में , जो असल में नियमित तीर्थ यात्रियों की गहमागहमी से दूर प्राय: सुनसान रहने वाला दफ्तरी और अधिकारियों का आवासीय क्षेत्र है।
पितृपक्ष की चतुर्दशी और सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्रद्धालुओं की आस्था उन्हें नारायणी शिला पर शीश झुकाने ले आती है। चटख रंगों के कपड़े पहने , सिर ढके या घूंघट काढ़े स्त्रियां गोद में बच्चे और हाथों में पूजा की छड़ी और थाल सजाकर , दान के लिए भोजन-वस्त्रादि लिए गांव-टोले के पारंपरिक गीत गाती हुई जब नारायणी शिला के परिसर में पहुंचती हैं , तो मानो उनका अगला जन्म भी संवर जाता है। वे वहां एक बड़ी गोल कमलाकार शिला के मंदिर में स्थापित आधे हिस्से के आगे मत्था टेककर पुरखों से आशीष मांगती हैं। मानों स्वर्ग-अपवर्ग सभी लोकों में रहने वाले पुरखे इस स्तवन से प्रसन्न होकर उन्हें बार-बार आशीष देते हैं।
आस्तिक धारा वाली हिंदू परंपरा इहलोक के साथ- साथ परलोक में भी विश्वास रखती है। मृत्यु के पश्चात अपनी-अपनी करनी के अनुसार परलोक में निवास की मान्यता भी पुनर्जन्म के सिद्धांतों के चलते खूब चली है। परलोक से तात्पर्य इस धरती , इस मृत्युलोक के अलावा अन्य लोकों से है। चौरासी लाख योनियों की चर्चा में प्रेत योनि की भी चर्चा है। माना गया है कि जो जीव वासनाओं के वशीभूत रहते हैं , वे मृत्यु के बाद भी कुछ काल तक प्रेतलोक में निवास करते हैं। प्रेतों को वायुरूप कहा गया है। भूत , पिशाच , ब्रह्माराक्षस , ब्रह्मासमंध , जिन्न या जिन्द , वेताल आदि प्रेत योनियां ही हैं। मान्यता है कि अंत्येष्टि , श्राद्ध , पिण्डदान , नारायण-नागबलि आदि विधियों से प्रेत योनि या प्रेत बाधा से उद्धार होता है। इसके लिए गया में विष्णुपद मंदिर , बदीनाथ में ब्रह्मा कपाली और हरिद्वार में नारायणी शिला पर श्राद्ध-अनुष्ठान की परंपरा है।
स्कंद पुराण में एक कथा है कि महाराक्षस गयासुर पर नारायण ने जब गदा का प्रहार किया , तो गयासुर ने उसे कमलासन पर रोका। परिणाम स्वरूप उसका शिरोभाग ब्रह्माकपाली में , मध्यभाग हरिद्वार में तथा अधोभाग गया में जा गिरा। बाद में हारे हुए गयासुर को प्रभु ने वरदान दिया कि जो व्यक्ति मुक्ति की कामना से कमलासन के इन तीनों टुकड़ों के सम्मुख जाकर अर्चना , वंदना प्रार्थना करेगा , उसकी मुक्ति अवश्य होगी।
हरिद्वार आने वाले शायद दो-चार प्रतिशत तीर्थयात्री और सैलानी ही जानते होंगे कि यहां ' नारायणी शिला ' नामक कोई ऐसा मंदिर भी है , जहां लोगों द्वारा प्रेतबाधाओं से अपनी या प्रेत योनि से अपने पितरों की मुक्ति का अनुष्ठान किया जाता है। सामान्यतया उत्तराखंड के तीर्थ हरिद्वार में होने वाले हर मेले का केंद्र यहां की पुराण प्रसिद्ध हरकी पौड़ी ही होती है। हर बारहवें साल महाकुंभ तक का मुख्य स्नान भी इसी हरकी पौड़ी पर संपन्न होता है। पर शारदीय नवरात्रों से पहले कभी आप पितृपक्ष की चतुर्दशी के दिन हरिद्वार आएं , तो पाएंगे कि उस दिन हरकी पौड़ी पर भी उतना बड़ा मेला नहीं लगता , जितना इस अल्पज्ञात मंदिर नारायणी शिला पर लगता है। मरणोत्तर अवस्था की कुशलता के लिए मेला! पूरे साल इस मंदिर में देश-विदेश से सभी जातियों-वर्णों के वे लोग आकर अनुष्ठान कराते हैं , जिन्हें कोई प्रेत बाधा है या जिनके पितरों की प्रेत योनि से मुक्ति नहीं हुई है।
नारायणी शिला मंदिर के भीतर कमल के आकार वाली एक अर्धशिला है। वहीं भगवान नारायण की भी प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के बाहर भी एक शिला है , जिसे प्रेतशिला कहते हैं। मंदिर के चारों ओर लोगों ने छोटे-छोटे सैकड़ों स्मृति स्थल अपने पितृपुरुषों की सद्गति और प्रसन्नता के लिए बनवाए हैं,जिनसे प्राय: पूरा मंदिर परिसर अटा पड़ा है।
मेले के दिन आस-पास के गांव-देहात से हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष अपने बड़े-बुजुर्गों और बाल-बच्चों सहित नारायणी शिला पर पहुंचते हैं। चारों तरफ उत्सव का माहौल होता है। चाट-पकौड़ी के खोमचे , चाय और पूरी-कचौडि़यों की ठेलियां , टिकुली-बिंदी , कंघी , शीशा , चोटी-रिबन आदि की अस्थायी दूकानें , बच्चों को लुभाते खिलौने और रंगबिरंगे गुब्बारे- उस दिन सब कुछ होता है हरिद्वार के इस इलाके में , जो असल में नियमित तीर्थ यात्रियों की गहमागहमी से दूर प्राय: सुनसान रहने वाला दफ्तरी और अधिकारियों का आवासीय क्षेत्र है।
पितृपक्ष की चतुर्दशी और सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्रद्धालुओं की आस्था उन्हें नारायणी शिला पर शीश झुकाने ले आती है। चटख रंगों के कपड़े पहने , सिर ढके या घूंघट काढ़े स्त्रियां गोद में बच्चे और हाथों में पूजा की छड़ी और थाल सजाकर , दान के लिए भोजन-वस्त्रादि लिए गांव-टोले के पारंपरिक गीत गाती हुई जब नारायणी शिला के परिसर में पहुंचती हैं , तो मानो उनका अगला जन्म भी संवर जाता है। वे वहां एक बड़ी गोल कमलाकार शिला के मंदिर में स्थापित आधे हिस्से के आगे मत्था टेककर पुरखों से आशीष मांगती हैं। मानों स्वर्ग-अपवर्ग सभी लोकों में रहने वाले पुरखे इस स्तवन से प्रसन्न होकर उन्हें बार-बार आशीष देते हैं।
आस्तिक धारा वाली हिंदू परंपरा इहलोक के साथ- साथ परलोक में भी विश्वास रखती है। मृत्यु के पश्चात अपनी-अपनी करनी के अनुसार परलोक में निवास की मान्यता भी पुनर्जन्म के सिद्धांतों के चलते खूब चली है। परलोक से तात्पर्य इस धरती , इस मृत्युलोक के अलावा अन्य लोकों से है। चौरासी लाख योनियों की चर्चा में प्रेत योनि की भी चर्चा है। माना गया है कि जो जीव वासनाओं के वशीभूत रहते हैं , वे मृत्यु के बाद भी कुछ काल तक प्रेतलोक में निवास करते हैं। प्रेतों को वायुरूप कहा गया है। भूत , पिशाच , ब्रह्माराक्षस , ब्रह्मासमंध , जिन्न या जिन्द , वेताल आदि प्रेत योनियां ही हैं। मान्यता है कि अंत्येष्टि , श्राद्ध , पिण्डदान , नारायण-नागबलि आदि विधियों से प्रेत योनि या प्रेत बाधा से उद्धार होता है। इसके लिए गया में विष्णुपद मंदिर , बदीनाथ में ब्रह्मा कपाली और हरिद्वार में नारायणी शिला पर श्राद्ध-अनुष्ठान की परंपरा है।
स्कंद पुराण में एक कथा है कि महाराक्षस गयासुर पर नारायण ने जब गदा का प्रहार किया , तो गयासुर ने उसे कमलासन पर रोका। परिणाम स्वरूप उसका शिरोभाग ब्रह्माकपाली में , मध्यभाग हरिद्वार में तथा अधोभाग गया में जा गिरा। बाद में हारे हुए गयासुर को प्रभु ने वरदान दिया कि जो व्यक्ति मुक्ति की कामना से कमलासन के इन तीनों टुकड़ों के सम्मुख जाकर अर्चना , वंदना प्रार्थना करेगा , उसकी मुक्ति अवश्य होगी।
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