युधिष्ठिर लाल कक्कड़
दिल्ली से बद्रीनाथ जाने के लिए हरिद्वार से उत्तरकाशी और फिर आगे के सफर के लिए एक और पड़ाव रास्ते में करना पड़ता है। इसलिए हम एक रोज पहले ही दिल्ली से चल कर उत्तरकाशी आ पहुंचे थे। रात में हमने वहीं डेरा डाला। दूसरे दिन उत्तरकाशी से हम सवेरे 6 बजे बद्रीनाथ के लिए रवाना हो गए। रास्ता पूरा पहाड़ी है। यहां पहाड़ों के बीच बनी खाइयों में पानी ही पानी है। टिहरी बांध का पानी यहां कई किलोमीटर तक फैला है। यह पानी करीब तीन - चार घंटे तक साथ रहता है। बांध पर पहुंचते हैं तो मन प्रसन्न हो उठता है। एक ओर अथाह हरा नीला पानी ही पानी , तो दूसरी ओर शानदार इंजीनियरिंग का कमाल टिहरी बांध और उस पर लगे बिजली उत्पादन के संयंत्र , सब कुछ बहुत ही जीवंत लगता है !
रास्ते में करीब 2 बजे श्रीनगर आया। बड़ा कस्बा है। यहां सब सुविधाएं हैं। इसके बाद करीब आठ बजे नंदग्राम , चमोली और फिर पीपलकोठी पहुंचे। पीपलकोठी में हमने रात बिताई। दिन में धूप थी,पर अब बारिश हो रही थी। खबर थी कि पिछली रात बद्रीनाथ में भी बर्फबारी हुई थी,सुनकर मन खुशी से झूम उठा। हम पीपलकोठी से अगले दिन सवेरे करीब आठ बजे रवाना हुए। मौसम साफ था। बारिश बन्द हो चुकी थी और बादल भी छंट चुके थे,लेकिन सूरज की रोशनी अब भी धरती तक या यूं कहें कि पहाड़ों के बीच बनी घाटियों में नहीं पहुंच पा रही थी,क्योंकि पहाड़ों की ऊंचाई ज्यादा थी। दूर कहीं - कहीं बर्फीले पहाड़ भी नजर आ रहे थे।
जोशीमठ हम करीब सवा नौ बजे पहुंचे। यह एक अच्छा कस्बा है। यहां बद्रीनाथ जी की शीतकालीन गद्दी है। आदिगुरु शंकराचार्य ने यहां ज्योतिर्मठ की स्थापना की , इसलिए आज इसे जोशीमठ के नाम से पुकारा जाता है। कस्बा चारों ओर ऊंचे - ऊंचे पहाड़ों से घिरा है। इसके लिए करीब एक घंटे के सफर के बाद गोविंद घाट आता है। यहां से हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी का रास्ता है। दिल कर रहा था कि उधर चला जाए लेकिन हमारे पास वक्त कम था और इसके लिए करीब 18 किलोमीटर का पैदल पहाड़ी रास्ता भी तय करना पड़ता है। गोविंद घाट से अब बद्रीनाथ धाम की दूरी मात्र 20 किलोमीटर थी,इसीलिए मन में रोमांच और खुशी मचल रही थी।
चोटियों पर बर्फ और नीचे पहाड़ियों पर खिली धूप बड़ी प्यारी लग रही थी। बस स्टैंड से बद्रीनाथ धाम पुल पार है। यहां अच्छा खासा बाजार है , दुकानें हैं और उनके बीच बस्ती है। मुख्य मंदिर इसी आबादी के बीच स्थित है। मंदिर की भव्यता और विशालता देखते ही बनती है। मंदिर में बद्री भगवान यानी विष्णु भगवान की मूर्ति है। माहौल में कभी - कभी भक्तों के जयकारें गूंज उठते हैं,ब्रदी विशाल की जय !
मंदिर के नीचे अलकनंदा का साफ निर्मल बर्फीला पानी कलकल करता हुआ गंगा में मिलने को आगे बढ़ रहा था , तो पार्श्व में रुई के माफिक बर्फीली गेंदें बिखरी नजर आ रही थीं , जिससे मंदिर की छटा और भी प्यारी लग रही थी। मंदिर के निकट नीचे की ओर कुदरत का करिश्मा यानी गर्म और गंधकयुक्त पानी के तप्त कुंड हैं , जिनमें से भाप का गुबार उठता रहता है। पर्यटक और यात्री गण यहां नहाने का खूब लुत्फ उठाते हैं। कहते हैं इस गंधक युक्त पानी के स्नान से कई चर्म रोग दूर हो जाते हैं। ठंड में नहाने के लिए यह गर्म पानी वैसे भी सुहावना लगता है। हमने भी यहां नहाने का खूब आनंद उठाया।
यहां का मौसम कभी भी बदल जाता है। धूप और बादलों की लुका - छिपी चलती रहती है। ठंडी हवाएं भी खूब चलती हैं। मौसम काफी सर्द रहता है। शीत ऋतु में तो यहां का तापमान शून्य से भी कम हो जाता है और पूरा बद्रीनाथ हिमाच्छादित रहता है। उम्मीद थी कि यहां सिर्फ एक कंबल और एक रजाई में ठंड लगेगी,पर हमारा काम चल गया।
सवेरे उठे तो आज मौसम और साफ था। हम में से कुछ लोगों ने तप्त कुंड में ही स्नान किया। धर्मशाला में भी 10 रुपये में गर्म पानी की बाल्टी की आवाज लगाता एक लड़का घूम रहा था। खैर,हम जल्द तैयार होकर 4 किलोमीटर दूर बसे माणा ( मणिभदपुर ) गांव पहुंचे। यह भारत - तिब्बत सीमा का अंतिम गांव है। अलकनंदा के तट पर बसा यह गांव ग्रामीण संस्कृति से ओत-प्रोत,बहुत ही खूबसूरत और शांत है। उस रोज पहाड़ों पर पूरी तरह बर्फ पसरी थी , जिस पर अब सूरज की किरणें पड़ने लगी थीं। इसकी चमचमाहट आंखों को चुंधिया रही थीं।
गांव की तिब्बती चीनी चेहरों वाली कई महिलाएं अपने पीछे टोकरियां लिए सवेरे काम को निकल रही थीं। कुछ अपनी ही छतों पर भेड़ों की ऊन सुखा रही थीं। ग्रामीण परिदृश्य और अलसाया सौंदर्य बड़ा ही मनोरम था।
यहां हमने व्यास गुफा,गणेश गुफा आदि देखी। व्यास गुफा के बारे में कहते हैं कि यहीं महर्षि वेदव्यास ने वेदों की ऋचाओं और मंत्रों का संग्रह कर उन्हें चार भागों में बांटा। भारत-तिब्बत की सीमा पर बनी अंतिम चाय की दुकान भी यहीं व्यास गुफा के निकट है। इच्छा हो रही थी कि यहां चाय पी जाए,पर हमारे पास समय कम था। हमें नौ बजे वाले गेट से बद्रीनाथ से निकलना था। गेट तक पहुंचते-पहुंचते सवा नौ हो गए,सो जल्दी करते-करते भी हम 15 मिनट लेट थे,अब अगला गेट साढे़ ग्यारह बजे खुलना था। ध्यान रहे कि जोशीमठ तक वन वे होने की वजह से यहां गेट सिस्टम है।
साढे़ ग्यारह बजे वाले गेट से निकल कर शाम सात बजे हम रुदप्रयाग पहुंचे। यहां हमने रात धर्मशाला में बिताई। रुदप्रयाग एक छोटा पर खास नगर है। यह तीन पहाड़ी जनपदों को मिलाता है और सबसे महत्वपूर्ण है यहां अलकनंदा और मंदाकिनी का संगम। संगम के किनारे ऊंचाई पर रुदनाथ का प्राचीन मंदिर है। कहते हैं , यहां महर्षि नारद ने कई सालों तक तपस्या की थी। मंदिर के नीचे संगम पर चामुंडा मां का मंदिर है। यहां संगम में दोनों नदियों के जल को मिलते हुए आसानी से देखा जा सकता है , दोनों का रंग अलग - अलग है।
यहां से सवेरे आठ बजे रवाना होकर बारह बजे हम ऋषिकेश पहुंचे। ऋषिकेश तक के इस सफर में रिवर रॉफ्टिंग का लुफ्त उठाते पर्यटक भी मिले , जिन्हें देखकर मन रोमांचित हो उठा। इनके लिए रास्ते में कई जगह नदी किनारे कैम्प भी बने हैं। खैर ऋषिकेश में हम करीब चार - पांच घंटे घूमे और फिर शाम करीब सात बजे हम वापस हरिद्वार आ गए।
सचमुच बद्रीनाथ की यह यात्रा और यह सफर सब कुछ सुहावना था। आंखों को भानेवाला और दिल को सुकून देने वाला। आप धार्मिक न हों तो भी प्रकृति आपको श्रद्धालु बना देती है। एक बार आप भी यहां अवश्य जाएं।
दिल्ली से बद्रीनाथ जाने के लिए हरिद्वार से उत्तरकाशी और फिर आगे के सफर के लिए एक और पड़ाव रास्ते में करना पड़ता है। इसलिए हम एक रोज पहले ही दिल्ली से चल कर उत्तरकाशी आ पहुंचे थे। रात में हमने वहीं डेरा डाला। दूसरे दिन उत्तरकाशी से हम सवेरे 6 बजे बद्रीनाथ के लिए रवाना हो गए। रास्ता पूरा पहाड़ी है। यहां पहाड़ों के बीच बनी खाइयों में पानी ही पानी है। टिहरी बांध का पानी यहां कई किलोमीटर तक फैला है। यह पानी करीब तीन - चार घंटे तक साथ रहता है। बांध पर पहुंचते हैं तो मन प्रसन्न हो उठता है। एक ओर अथाह हरा नीला पानी ही पानी , तो दूसरी ओर शानदार इंजीनियरिंग का कमाल टिहरी बांध और उस पर लगे बिजली उत्पादन के संयंत्र , सब कुछ बहुत ही जीवंत लगता है !
रास्ते में करीब 2 बजे श्रीनगर आया। बड़ा कस्बा है। यहां सब सुविधाएं हैं। इसके बाद करीब आठ बजे नंदग्राम , चमोली और फिर पीपलकोठी पहुंचे। पीपलकोठी में हमने रात बिताई। दिन में धूप थी,पर अब बारिश हो रही थी। खबर थी कि पिछली रात बद्रीनाथ में भी बर्फबारी हुई थी,सुनकर मन खुशी से झूम उठा। हम पीपलकोठी से अगले दिन सवेरे करीब आठ बजे रवाना हुए। मौसम साफ था। बारिश बन्द हो चुकी थी और बादल भी छंट चुके थे,लेकिन सूरज की रोशनी अब भी धरती तक या यूं कहें कि पहाड़ों के बीच बनी घाटियों में नहीं पहुंच पा रही थी,क्योंकि पहाड़ों की ऊंचाई ज्यादा थी। दूर कहीं - कहीं बर्फीले पहाड़ भी नजर आ रहे थे।
जोशीमठ हम करीब सवा नौ बजे पहुंचे। यह एक अच्छा कस्बा है। यहां बद्रीनाथ जी की शीतकालीन गद्दी है। आदिगुरु शंकराचार्य ने यहां ज्योतिर्मठ की स्थापना की , इसलिए आज इसे जोशीमठ के नाम से पुकारा जाता है। कस्बा चारों ओर ऊंचे - ऊंचे पहाड़ों से घिरा है। इसके लिए करीब एक घंटे के सफर के बाद गोविंद घाट आता है। यहां से हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी का रास्ता है। दिल कर रहा था कि उधर चला जाए लेकिन हमारे पास वक्त कम था और इसके लिए करीब 18 किलोमीटर का पैदल पहाड़ी रास्ता भी तय करना पड़ता है। गोविंद घाट से अब बद्रीनाथ धाम की दूरी मात्र 20 किलोमीटर थी,इसीलिए मन में रोमांच और खुशी मचल रही थी।
चोटियों पर बर्फ और नीचे पहाड़ियों पर खिली धूप बड़ी प्यारी लग रही थी। बस स्टैंड से बद्रीनाथ धाम पुल पार है। यहां अच्छा खासा बाजार है , दुकानें हैं और उनके बीच बस्ती है। मुख्य मंदिर इसी आबादी के बीच स्थित है। मंदिर की भव्यता और विशालता देखते ही बनती है। मंदिर में बद्री भगवान यानी विष्णु भगवान की मूर्ति है। माहौल में कभी - कभी भक्तों के जयकारें गूंज उठते हैं,ब्रदी विशाल की जय !
मंदिर के नीचे अलकनंदा का साफ निर्मल बर्फीला पानी कलकल करता हुआ गंगा में मिलने को आगे बढ़ रहा था , तो पार्श्व में रुई के माफिक बर्फीली गेंदें बिखरी नजर आ रही थीं , जिससे मंदिर की छटा और भी प्यारी लग रही थी। मंदिर के निकट नीचे की ओर कुदरत का करिश्मा यानी गर्म और गंधकयुक्त पानी के तप्त कुंड हैं , जिनमें से भाप का गुबार उठता रहता है। पर्यटक और यात्री गण यहां नहाने का खूब लुत्फ उठाते हैं। कहते हैं इस गंधक युक्त पानी के स्नान से कई चर्म रोग दूर हो जाते हैं। ठंड में नहाने के लिए यह गर्म पानी वैसे भी सुहावना लगता है। हमने भी यहां नहाने का खूब आनंद उठाया।
यहां का मौसम कभी भी बदल जाता है। धूप और बादलों की लुका - छिपी चलती रहती है। ठंडी हवाएं भी खूब चलती हैं। मौसम काफी सर्द रहता है। शीत ऋतु में तो यहां का तापमान शून्य से भी कम हो जाता है और पूरा बद्रीनाथ हिमाच्छादित रहता है। उम्मीद थी कि यहां सिर्फ एक कंबल और एक रजाई में ठंड लगेगी,पर हमारा काम चल गया।
सवेरे उठे तो आज मौसम और साफ था। हम में से कुछ लोगों ने तप्त कुंड में ही स्नान किया। धर्मशाला में भी 10 रुपये में गर्म पानी की बाल्टी की आवाज लगाता एक लड़का घूम रहा था। खैर,हम जल्द तैयार होकर 4 किलोमीटर दूर बसे माणा ( मणिभदपुर ) गांव पहुंचे। यह भारत - तिब्बत सीमा का अंतिम गांव है। अलकनंदा के तट पर बसा यह गांव ग्रामीण संस्कृति से ओत-प्रोत,बहुत ही खूबसूरत और शांत है। उस रोज पहाड़ों पर पूरी तरह बर्फ पसरी थी , जिस पर अब सूरज की किरणें पड़ने लगी थीं। इसकी चमचमाहट आंखों को चुंधिया रही थीं।
गांव की तिब्बती चीनी चेहरों वाली कई महिलाएं अपने पीछे टोकरियां लिए सवेरे काम को निकल रही थीं। कुछ अपनी ही छतों पर भेड़ों की ऊन सुखा रही थीं। ग्रामीण परिदृश्य और अलसाया सौंदर्य बड़ा ही मनोरम था।
यहां हमने व्यास गुफा,गणेश गुफा आदि देखी। व्यास गुफा के बारे में कहते हैं कि यहीं महर्षि वेदव्यास ने वेदों की ऋचाओं और मंत्रों का संग्रह कर उन्हें चार भागों में बांटा। भारत-तिब्बत की सीमा पर बनी अंतिम चाय की दुकान भी यहीं व्यास गुफा के निकट है। इच्छा हो रही थी कि यहां चाय पी जाए,पर हमारे पास समय कम था। हमें नौ बजे वाले गेट से बद्रीनाथ से निकलना था। गेट तक पहुंचते-पहुंचते सवा नौ हो गए,सो जल्दी करते-करते भी हम 15 मिनट लेट थे,अब अगला गेट साढे़ ग्यारह बजे खुलना था। ध्यान रहे कि जोशीमठ तक वन वे होने की वजह से यहां गेट सिस्टम है।
साढे़ ग्यारह बजे वाले गेट से निकल कर शाम सात बजे हम रुदप्रयाग पहुंचे। यहां हमने रात धर्मशाला में बिताई। रुदप्रयाग एक छोटा पर खास नगर है। यह तीन पहाड़ी जनपदों को मिलाता है और सबसे महत्वपूर्ण है यहां अलकनंदा और मंदाकिनी का संगम। संगम के किनारे ऊंचाई पर रुदनाथ का प्राचीन मंदिर है। कहते हैं , यहां महर्षि नारद ने कई सालों तक तपस्या की थी। मंदिर के नीचे संगम पर चामुंडा मां का मंदिर है। यहां संगम में दोनों नदियों के जल को मिलते हुए आसानी से देखा जा सकता है , दोनों का रंग अलग - अलग है।
यहां से सवेरे आठ बजे रवाना होकर बारह बजे हम ऋषिकेश पहुंचे। ऋषिकेश तक के इस सफर में रिवर रॉफ्टिंग का लुफ्त उठाते पर्यटक भी मिले , जिन्हें देखकर मन रोमांचित हो उठा। इनके लिए रास्ते में कई जगह नदी किनारे कैम्प भी बने हैं। खैर ऋषिकेश में हम करीब चार - पांच घंटे घूमे और फिर शाम करीब सात बजे हम वापस हरिद्वार आ गए।
सचमुच बद्रीनाथ की यह यात्रा और यह सफर सब कुछ सुहावना था। आंखों को भानेवाला और दिल को सुकून देने वाला। आप धार्मिक न हों तो भी प्रकृति आपको श्रद्धालु बना देती है। एक बार आप भी यहां अवश्य जाएं।
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